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Updated: 04 मार्च, 2018 03:07 PM
सन्‍नी कुमार
सन्‍नी कुमार
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दो कॉमरेड आपस में बतिया रहे थे. दोनों के चेहरे पर कई प्रकार के भाव एक साथ तारी हो रहे थे. मानों, वो किसी जटिल समस्या के समाधान तक, पहुंचने की कोशिश में सफल होते होते असफल हो जा रहे हों. उनकी चर्चा से वातावरण काफी गंभीर लग रहा था. हालांकि आस पास कोई था नहीं, पर उनसे एकदम सटा बड़ा सा पत्थर लोकतंत्र की भांति उनकी बातों से सहमति दिखा रहा था. इस विकट बौद्धिक घमासान से कुछ समय निकालकर दोनों कॉमरेड अगल बगल देख भी रहे थे कि किसी को उनकी बुद्धि के तेज से परेशानी तो नहीं हो रही है. पर राहत की बात थी कि, उस भीड़ भाड़ वाले इलाके में उनके आसपास कोई नहीं था. इस बात का उनको संतोष भी था और बेचैनी भी.

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मैं हिम्मत करके कुछ पास गया. नजदीक जाते ही विचार, सिद्धांत, मार्क्स, लोकतंत्र, पूंजीवाद जैसे शब्द तेजी से मेरे कानों को चोट पहुंचाने लगे. सुनहरे फ्रेम के पीछे नेपाल विजय सी आंखों से एक कॉमरेड ने मेरी ओर देखा और फिलस्तीन सा मुंह बनाते हुए दो अंगुलियों के बीच फंसी पूंजीवादी सिगरेट की राख को इस तरह झाड़ा, मानो पूरी सामंती व्यवस्था एकसाथ ढह गई हो. उसके मुंह में पूंजीवादी सिगरेट का भरा हुआ जनवादी धुंआ था जिसको मिसाइल का आकार देते हुए उन्होंने आकाश में इस उम्मीद से फेंका कि यह इजरायल को नष्ट कर ही देगा. 

मुंह से धुंआ खाली करते ही वो दूसरे कॉमरेड की ओर मुड़े और सिगरेट कंपनियों के पर्यावरण विरोधी कृत्यों पर धाराप्रवाह बोलने लगे. साथ ही वो विदेशी भाषा में इन कंपनियों द्वारा अपने श्रमिकों के शोषण का जोर जोर से आरोप लगाने लगे. वो शोषण के विरुद्ध इतने क्रांतिकारी हो चुके थे कि इस बीच चाय के पैसे मांगने आए रामू से हाफ चाय के अधिक रेट को लेकर बहस करने लगे. खैर, थोड़े विवाद के बाद बीच का कोई रास्ता निकाल लिया गया. और तय हुआ कि आज भर पैसे दे दो कल से कहीं और चाय पी जाएगी.

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दूसरे कॉमरेड हालांकि सहमति में सिर हिला रहे थे पर उनके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. धीरे धीरे उनके चेहरे की भंगिमा बदल रही थी और वो चीन की तरह लाल हो रही थी. चेहरे से क्रांति की भाप उठ रही थी जो शायद उनके मस्तिष्क में पूंजीवाद के जलने से पनपा था. ‘कैपिटलिज्म मस्ट डाय' कहते हुए उन्होंने एक अमरीकी कंपनी के लेटेस्ट मोबाइल को महंगे लग रहे अपने कुर्ते की बाईं जेब से निकाला और किसी अंग्रेजी अखबार के संपादक को फोन लगा दिया.

बातचीत में तय हो गया कि रविवार को एक पूरे पेज का लेख आएगा जिसमें क्रांति की सारी बाते होंगी. और भी क्रांतिकारी लेखकों और संपादकों को एकजुट किया जाए और क्रांति की एक मशाल हर लेख में जलाई जाए. इसमें क्रांति को सफल बनाने के लिए लिखी गई किताबों और विदेशों में किए गए सेमिनारों का भी जिक्र हो. पूरी रूपरेखा तय हो गई.

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अब दोनों कॉमरेडों के चेहरे पर क्रांति संपन्न कर देने का संतोष था. वो गुस्सा थूक चूक थे और इस क्रांति से उपजी थकान को दूर करने के उपायों पर विचार कर रहे थे. तभी गुमटी वाले ने उन्हें बताया कि त्रिपुरा में भी एक क्रांति हो गई. लाल बदल कर भगवा हो गया. वो थोड़े चिंतित हुए फिर संभल कर बोले कि लेख में इस हार के कारणों की भी पड़ताल की जाएगी. अब अंधेरा अधिक स्याह होता जा रहा था. राह भी ठीक से नहीं सूझ रही थी. दोनों कॉमरेड बस स्टैंड तक राह खोजते खोजते जा रहे थे. अफसोस, अंतिम बस भी इनके पहुंचने से पहले ही निकल गई थी. फिर ये कैब करके घर गए.

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लेखक

सन्‍नी कुमार सन्‍नी कुमार @sunny.kumar.125

स्वतंत्र लेखक हैं.

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