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Updated: 06 नवम्बर, 2019 01:41 PM
अनुज मौर्या
अनुज मौर्या
  @anujkumarmaurya87
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दिल्ली में इन दिनों सड़कों पर पुलिस और वकीलों (Delhi Police and Advocate Fight) की भीड़ प्रदर्शन (Delhi Police Protest) करती दिख जाएगी. दोनों ही न्याय की गुहार लगा रहे हैं. पुलिस ने एक वकील पर गोली चलाई, जिसके बाद वकीलों ने पुलिसवालों पर हमला बोल दिया. इन दोनों के ही कंधों पर अहम जिम्मेदारियां हैं, लेकिन इस समय दोनों ही आरोप प्रत्यारोप में लगे हुए हैं और दोनों की बीच की लड़ाई बहस का मुद्दा बन गई है. ये लड़ाई शुरू तो एक पार्किंग को लेकर हुई थी, लेकिन अब दिल्ली की सड़कों तक पहुंच चुकी है. अब तक पुलिसवालों को दबंगई करते तो देखते ही थे, इस बार वकीलों ने भी पुलिसवालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा है और अपनी धौंस दिखा दी है. इसी को लेकर पुलिसवाले प्रदर्शन कर रहे थे साथ ही पुलिस कमिश्नर तक को लेकर अपनी नाराजगी दिखा रहे थे. ये सब चल क्या रहा है? पुलिस कमिश्नर कुछ साफ-साफ बोलते नहीं दिख रहे, मोदी सरकार की दिल्ली पुलिस को अपनी ही सुरक्षा को लेकर सड़क पर उतरना पड़ा, आखिर मामला क्या है? हालांकि, अब पुलिसवालों की मांगें मान ली गई हैं और उन्होंने विरोध प्रदर्शन खत्म (Delhi Police Protest end) कर दिया है. तमाम मांगों में सबसे अहम मांग ये थी कि उन्हें यूनियन बनाने का अधिकार मिले. वैसे थोड़ा एंगल बदलें तो ये भी दिखेगा कि आने वाले महीनों में दिल्ली में चुनाव हैं. ऐसे में 5 सवाल हैं, जिसका जवाब हर कोई जानना चाहता है.

delhi police protest live update Delhi Police-lawyers clashन्याय की मांग कर रही पुलिस ने धरना तो खत्म कर दिया, लेकिन कुछ सवाल पीछे छूट गए हैं.

1- अमित शाह: पुलिस या दिल्‍ली चुनाव?

केंद्र शासित प्रदेश होने के चलते दिल्ली की पुलिस मोदी सरकार यानी केंद्र के अधीन है. ऐसे में गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी सबसे अधिक है. वैसे तो गृह मंत्रालय की ओर से हाईकोर्ट में मंगलवार को याचिका दाखिल कर दी गई है और हाईकोर्ट ने भी याचिका के आधार पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया समेत वकीलों के अन्य संगठनों को नोटिस जारी किया है, लेकिन अमित शाह को कोई अता-पता नहीं है. सेना की बात होती है तो तुरंत ही मोदी सरकार की तरफ से कोई न कोई बयान आ ही जाता है, लेकिन अभी तक अमित शाह ने दिल्ली पुलिस को लेकर कुछ नहीं कहा. सवाल ये उठता है कि आने वाले दिनों में दिल्ली में चुनाव हैं, तो क्या अमित शाह इस मामले से दूर रहते हुए इसे बैलेंस करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वकील भी नाराज ना हों और पुलिस से भी दोस्ती बनी रहे. वैसे भी, विधासनभा चुनावो में वकीलों और स्थानीय पुलिस पर स्थानीय नेताओं का काफी प्रभाव होता है. तो क्या इस बार दिल्ली पुलिस से अधिक दिल्ली के चुनाव को तरजीह दी जा रही है? दिल्ली पुलिस का ख्याल रखना जरूरी है या फिर दिल्ली चुनाव के बारे में सोचना जरूरी है? आखिर उनकी तरफ से एक भी शब्‍द क्‍यों नहीं आया?

2. पुलिस कमिश्‍नर: मनोबल जरूरी या रुटीन घटना?

दिल्ली पुलिस के कमिश्नर अमूल्य पटनायक से भी पुलिसवाले नाराज दिख रहे हैं. उन्होंने प्रदर्शन कर रहे पुलिसवालों से कहा कि 'हम कानून के रखवाले हैं और व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी हमारी है, घटना की न्यायिक जांच हो रही है, आप धैर्य बनाए रखें और ड्यूटी पर जाएं.' अभी दिल्ली पुलिस उनकी बातों पर विचार कर ही रही थी कि खबर आई वह मुख्यालय से कहीं चले गए हैं. फिर तो गुस्सा और भड़क गया और प्रदर्शन कर रहे पुलिसवालों ने नारेबाजी शुरू कर दी. नारे लगने लगे- 'हमारा सीपी कैसा हो, किरण बेटी जैसा हो.' यहां सवाल उठता है कि आखिर पुलिस कमिश्नर पटनायक के लिए ज्यादा जरूरी क्या था? पुलिसवालों का मनोबल बढ़ाना या फिर सिर्फ खानापूर्ति कर देना. पुलिसवालों को वकीलों द्वारा पीटा जाना एक असाधारण सी घटना है, लेकिन उस पर कार्रवाई के नाम पर पुलिस कमिश्नर ने वही कह दिया जो पुलिस हमेशा जनता से कहती है- 'कार्रवाई की जा रही है...' इसी वजह से पुलिसवालों का गुस्सा कमिश्नर के भी खिलाफ भड़क उठा है. खैर, अब दिल्ली पुलिस की सभी मांगें मान ली गई हैं और उन्होंने धरना खत्म कर दिया है.

3. दिल्‍ली पुलिस: दबदबा जरूरी या ड्यूटी?

पुलिस स्टेशन से बहुत से लोगों का कभी न कभी पाला पड़ा ही होगा. भले ही वो मोबाइल चोरी होने या फर्जी कॉल आने का ही क्यों ना हो. पुलिस कह देती है कि कानून कार्रवाई करेगा, आप धैर्य बनाए रखें. इस बार कमिश्नर ने भी पुलिसवालों से यही कह दिया है. अब सवाल ये उठता है कि कानून तो अपनी कार्रवाई करेगा, लेकिन क्या पुलिस इसके लिए धैर्य रखेगी? और अगर धैर्य था तो सड़कों पर आने की क्या जरूरत थी? कानून अपनी कार्रवाई करता और दोषी वकीलों को कानूनी प्रक्रिया के तहत सजा दिलाई जाती. लेकिन मामला सिर्फ इतना सा नहीं है. दरअसल, पुलिस का एक दबदबा है, एक रौब है. वकीलों से पिटाई होने पर वो दबदबा कम हो गया है. अब पुलिसवाले भले ही न्याय की मांग कर रहे हों, लेकिन असल में वह अपना दबदबा वापस पाने की कोशिश में हैं. ताकि पुलिस के आला अधिकारी कोई बड़ा एक्शन लें और वकीलों को सबक मिले. लेकिन जरा सोचिए, पुलिस के लिए दबदबा जरूरी है या फिर अपनी ड्यूटी? ड्यूटी से यहां मतलब है उनका कर्तव्य, जो ये है कि वह कानून के दायरे में रहकर बिना कानून हाथ में लिए जनता की सेवा करेंगे, लेकिन वह ऐसा कर नहीं रहे.

4. दिल्‍ली हाईकोर्ट: वकीलों की सुनवाई, पुलिस का क्‍या?

2 नवंबर को इस घटना की शुरुआत हुई. अगले ही दिन 3 नवंबर यानी रविवार को हाईकोर्ट ने केंद्र, दिल्ली सरकार और बार काउंसिल को नोटिस जारी कर दिया. आपको बता दें कि इस मामले पर दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने स्वतः संज्ञान लेते हुए कार्रवाई की थी. वहीं दूसरी ओर, पुलिस की ओर से एफआईआर तक दर्ज करने में 2 दिन लग गए और सोमवार को एफआईआर दर्ज की गई. यहां एक सवाल उठता है कि वकीलों की सुनवाई तो हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए ही कर दी, लेकिन पुलिस का क्या? पुलिस की ओर से संज्ञान कौन लेगा, खुद कमिश्नर तो उनसे धैर्य बनाए रखने को कह रहे हैं.

5. बार काउंसिल: हार-जीत जरूरी या समझौते की गुंजाइश?

वकीलों ने बीच सड़क जो हंगामा किया, पुलिसवालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा, आगजनी की, उसे बार काउंसिल ने भी सीधे-सीधे गलत नहीं कहा. काउंसिल की ओर से पुलिसवालों की गलती बताई जा रही है. अब सवाल उठता है कि ऐसे मामले में हार-जीत जरूरी है या फिर समझौते की गुंजाइश? वैसे भी, अगर खुद वकील ही थर्ड डिग्री पर उतर आएं, जिसके लिए पुलिस बदनाम है, तो फिर बहस की गुंजाइश ही कहां रह जाती है. और अगर बहस की गुंजाइश ही नहीं बची तो फिर समझौता क्या खाक होगा?

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