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Updated: 22 जनवरी, 2023 01:55 PM
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कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा पर निकले राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को लेकर ये तो पक्का हो गया है कि कश्मीर में वो झंडा फहराएंगे, लेकिन कांग्रेस की तरफ से ये भी साफ कर दिया गया है कि ये सब लाल चौक पर नहीं होगा. कांग्रेस की तरफ से लाल चौक पर झंडा फहराने को आरएसएस का एजेंडा (RSS Agenda) बताया गया है.

लाल चौक पर झंडा फहराने को आतंकवाद के खिलाफ देश के लिए मजबूत इरादे के प्रदर्शन के तौर पर लिया जाता है. और लाल चौक मिशन वाली सूची में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज से लेकर अनुराग ठाकुर तक का नाम दर्ज है - और सबसे बड़ी वजह यही है कि राहुल गांधी लाल चौक पर झंडा फहराने से परहेज कर रहे हैं.

वैसे भी राहुल गांधी की नजर से देखें तो जिस संघ और बीजेपी के खिलाफ वो भारत जोड़ो यात्रा निकाल रहे हैं, वो काम करने का क्या मतलब है जो उनके राजनीतिक विरोधी कर चुके हों या आने वाले दिनों में करने वाले हों - लेकिन इस मामले में राहुल गांधी का कन्फ्यूजन भी समझ में नहीं आता.

लाल चौक पर झंडा फहराने के मामले में भी राहुल गांधी का रवैया सॉफ्ट हिंदुत्व जैसा ही है. या फिर महंगाई को लेकर आयोजित रैली में हिंदुत्व और हिंदुत्ववादी का फर्क बताने के लिए लेक्चर देने जैसा भी समझ सकते हैं.

कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा (Bharat Jodo Yatra) लेकर निकले राहुल गांधी ने दिल्ली में कुछ दिनों का ब्रेक लिया था और तभी लाल किले के पास एक रैली भी की थी. रैली ऐसी जगह आयोजित की गयी थी, की जब वो भाषण दे रहे हों तो बैकग्राउंड में लाल किला नजर आये.

ये कुछ कुछ वैसा ही फील देने वाला रहा, जैसे देश के प्रधानमंत्री हर साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हैं. क्या राहुल गांधी को लाल किले के पास से भाषण दिलाने के पीछे कांग्रेस के रणनीतिकारों को अपने नेता को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बराबर खड़ा करने की कोशिश रही - ताकि लोग राहुल गांधी में प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत महसूस कर सकें.

आम लोगों के साथ साथ विपक्ष भी ये समझ ले कि 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस ही विपक्ष का नेतृत्व भी करेगी और राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे. और ये बात तो राहुल गांधी ने खुद ही कंफर्म भी कर दी, प्रेस कांफ्रेंस में ये बताकर कि समाजवादी पार्टी या किसी और क्षेत्रीय दल के वश की ये बात नहीं है. आखिरकार नीतीश कुमार को भी कहना पड़ा कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होने से उनको कोई दिक्कत नहीं है.

राहुल गांधी का दिल्ली में लाल किले के पास खड़े होकर भाषण देना और भारत जोड़ो यात्रा के तहत कश्मीर पहुंच कर लाल चौक के पास झंडा फहराने का कार्यक्रम बनाना, ये सब क्या है? ये सब तो स्टॉकहोम सिंड्रोम ही लक्षण माने जाएंगे. आखिर ऐसा कैसे होता है कि आप जिसका खुलेआम लगातार विरोध कर रहे हैं, हरकतें भी बिलकुल उसके जैसी ही करने लगें?

पिछली मोदी सरकार के खिलाफ संसद में लाये गये अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी ने पूरी भड़ास निकाल कर रख दी थी. फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास पहुंचे और गले भी मिले, लेकिन जब अपनी सीट पर आकर बैठे तो आंख भी मार दिये थे.

जब प्रधानमंत्री मोदी की बारी आयी तो जाहिर है पहला रिएक्शन तात्कालिक वाकये पर ही होता. मोदी ने तब कहा था, मेरी सीट तक पहुंचने की इतनी बेचैनी क्यों है? फिलहाल जिस तरीके से झंडा फहराने को लेकर लाल चौक का जिक्र छिड़ा है, संसद की वो घटना बरबस याद आ जाती है.

तब भी राहुल गांधी नफरत के खिलाफ प्यार बांटने की बातें ही कर रहे थे. और अब भी वो वैसी ही बातें कर रहे हैं. भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही मोहब्बत की दुकान खोले जाने का जिक्र शुरू हुआ है - अगर आरएसएस के एजेंडे से वाकई परहेज है तो उस राह पर जाने की जरूरत ही क्या है?

लाल चौक के करीब भी - और दूरी भी?

राहुल गांधी ने तो बस इतना ही कहा था कि श्रीनगर पहुंच कर वो झंडा लहराएंगे, लेकिन एक दिन उनके ही एक करीबी कांग्रेस नेता ने लाल चौक पर झंडा फहराने की बात बोल दी. और बाद में जब राहुल गांधी के लाल चौक पर झंडा फहराने की चर्चा जोर पकड़ने लगी तो कांग्रेस की तरफ से सफाई देनी पड़ी - राहुल गांधी लाल चौक पर झंडा नहीं फहराएंगे, क्योंकि वो एजेंडा कांग्रेस का नहीं, आरएसएस का है.

rahul gandhiकभी आर कभी पार... होठों पे तकरार!

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही राहुल गांधी का भाषण चल रहा था, '... मैं आपको बता रहा हूं, देखो... ये बात समझ लो, ये जो तिरंगा है न... ये श्रीनगर में जाके हम इसको लहराएंगे... कोई नहीं रोक पाएगा... कोई तूफान कोई आंधी, कुछ नहीं रोक पाएगा... ये झंडा... ये तिरंगा वहां पे जाकर लहराएगा...'

अपने भाषण के बीच ही राहुल गांधी एक कार्यकर्ता को स्टेज पर झंडा लाने को कहते हैं. जैसे ही तिरंगा को स्टेज की तरफ ले जाया जाता है, भीड़ नारा लगाने लगती है - "भारत माता की जय!" ये नारा भी तो उसी संघ और बीजेपी खेमे में ज्यादा लोकप्रिय है जिसके खिलाफ राहुल गांधी कन्याकुमारी से भारत को जोड़ते जोड़ते कश्मीर पहुंच चुके हैं. ये नारा अब अरविंद केजरीवाल भी लगाने लगे हैं. हालांकि, ममता बनर्जी को कभी 'भारत माती की जय' पर न तो 'जय श्रीराम' की तरह रिएक्ट करते देखा गया है, न ही नीतीश कुमार की तरह चुपचाप मुस्कुराते ही नजर आयी हैं. कांग्रेस में तो हमेशा 'जय हिंद' ही चलता है. कुछ चीजें हैं जो जुड़वा बच्चों की तरह आपस में जुड़ी होती हैं. तिरंगा और भारत माता की जय भी वैसा ही फील देता है.

जनवरी, 2023 के शुरू में ही, पंजाब कांग्रेस के नेता रवनीत सिंह बिट्टू बता रहे थे, 'राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से अपनी यात्रा शुरू की है... और 30 जनवरी को लाल चौक पर तिरंगा फहराएंगे.' बिट्टू ने ये दावा भी किया कि देश में बदलाव आना पक्का है. आगे बोले, 'मुझे यकीन है... अगले साल से बीजेपी देश में कहीं दिखायी नहीं देगी.'

हफ्ता भर बीता तो लोग मान कर चलने लगे कि राहुल गांधी लाल चौक पर ही झंडा फहराने जा रहे हैं. जाहिर है, कांग्रेस के भीतर भी विचार विमर्श हुआ होगा. लगा होगा ये तो गलत मैसेज जाने लगा है. फिर जम्मू कश्मीर की कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल को मीडिया के सामने भेजा गया. मीडिया के पूछने पर रजनी पाटिल ने अपडेट दिया, 'हम लाल चौक पर तिरंगा फहराने के आरएसएस के एजेंडे में यनीन नहीं करते हैं... जहां वो पहले ही झंडा फहरा चुका है.'

और फिर रजनी पाटिल ने ही साफ किया कि राहुल गांधी मौलाना आजाद रोड पर बने जम्मू-कश्मीर कांग्रेस कमेटी के दफ्तर में झंडा फहराएंगे - ध्यान देने वाली बात बस इतनी ही है कि ये जगह लाल चौक से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर है. ये भी बताया गया है कि भारत जोड़ो यात्रा के समापन का मुख्य समारोह श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर में आयोजित किया जाएगा.

ये ठीक है कि राहुल गांधी ने भी ये नहीं कहा था कि वो श्रीनगर के लाल चौक पर ही झंडा फहराएंगे. बीती बातों को याद करें तो जम्मू कश्मीर के लाल चौक पर जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला की रैली से लेकर झंडा फहराने और ऐसा करने के लिए लाल चौक तक पहुंचने के प्रयासों से जुड़े कई वाकये हैं. एक वाकया 1992 का भी है, जिसे आतंकवाद के चरम पर होने के दौर के तौर पर याद किया जाता है. तब डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे. उस वक्त तमिलनाडु के कन्याकुमारी से जम्मू कश्मीर के लाल चौक तक बीजेपी की तरफ से जो एकता यात्रा निकाली गयी थी, मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसके संयोजक बनाये गये थे - बहुत भीड़ तो नहीं जुट सकी थी, लेकिन जोशी और मोदी 26 जनवरी, 1992 को लाल चौक पर तिरंगा फहराने में सफल रहे.

अब सवाल ये है कि राहुल गांधी को झंडा फहराने को लेकर इतना जोशीला भाषण देने की जरूरत क्या थी? ये कहने की क्या जरूरत थी कि कोई नहीं रोक सकता. भला कांग्रेस दफ्तर में राहुल गांधी को झंडा फहराने से कोई क्यों रोकेगा? आंधी या तूफान भी क्यों रोकेगा? जब शरद पवार की चुनावी रैली की तरह राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में बारिश में भीगते हुए भाषण दे सकते हैं, तो आंधी और तूफान में कांग्रेस के दफ्तर में झंडा क्यों नहीं फहरा सकते? लेकिन स्टेज बनाकर या ढोल नगाड़े वाले अंदाज में शोर मचाने की जरूरत ही क्या थी?

मोदी का हर घर तिरंगा अभियान और राहुल गांधी की टिप्पणी: पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर घर तिरंगा अभियान चलाया था. प्रधानमंत्री मोदी ने पहले से ही घोषणा कर दी थी कि देश के 24 करोड़ घरों में 13-15 अगस्त, 2022 के बीच तिरंगा फहराया जाएगा. ये अभियान देश की आजादी के 75 साल पूरे होने पर मनाये जा रहे अमृत महोत्सव के तहत चलाया गया था.

राहुल गांधी कर्नाटक दौरे पर थे और वहीं से ट्विटर पर लिखा था, 'इतिहास गवाह है... हर घर तिरंगा मुहिम चलाने वाले, उस देशद्रोही संगठन से निकले हैं, जिन्होंने 52 साल तक तिरंगा नहीं फहराया... आजादी की लड़ाई से... ये कांग्रेस पार्टी को तब भी नहीं रोक पाये - और आज भी नहीं रोक पाएंगे.'

जिस तरह अपने घोषित विरोध के तहत राहुल गांधी संघ और बीजेपी के एजेंडे के आस पास मंडराने लगते हैं, ऐसा लगता है जैसे वो भी ऐसी तैसी डेमोक्रेसी बैंड की पैरोडी मन ही मन गुनगुना रहे हों. वरुण ग्रोवर और संजय राजौरा की लिखी पैरोडी को आवाज दी है राहुल राम ने. पैरोडी की पंक्तियां हैं - "मेरे सामने वाली सरहद पे, कहते हैं दुश्मन रहता है. पर गौर से देखा जब उसको, वो तो मेरे जैसा दिखता है."

मोहब्बत की दुकान में कन्फ्यूजन क्यों

2022 में हुए यूपी चुनाव और हिमाचल प्रदेश चुनाव के नतीजे बिलकुल अलग रहे, लेकिन ऐसा जरूर लगा कि कांग्रेस की तरफ से विकल्प की बात की जा रही हो. ये बताने की कोशिश हो कि बीजेपी की जगह कांग्रेस सत्ता में आयी तो लोगों को क्या अलग मिलेगा. न्याय स्कीम तो नहीं, लेकिन कर्जमाफी का कांग्रेस का दांव भी 2018 के छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश चुनाव में भी महसूस किया गया था - नतीजे कमजोर चीजों को भी असरदार बना देते हैं.

लेकिन बाकी मामलों में कांग्रेस की तरफ से साफ तौर पर वैसा कुछ नहीं समझ में आता है, जैसा अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम की तरफ से समझाने की कोशिश होती है. भले ही उसमें लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरों से नोटों को मजबूत बनाने का धीरेंद्र शास्त्री के हनुमान चालीस के चमत्कार जैसे दावे लगते हों - लेकिन मुफ्त ही सही, शिक्षा-स्वास्थ्य और बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं लोगों को सहज तौर पर आकर्षित करती हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा ही नहीं, ये तो राहुल गांधी भी मान ही चुके हैं कि वो नरेंद्र मोदी जैसा भाषण नहीं दे सकते. भाषण देना की कला का अपना प्रभाव तो होता ही है, नेता की लोकप्रियता उसे और भी प्रभावी बना देती है. ऐसे में राहुल गांधी और मोदी की बातों के असर का फासला भी काफी बढ़ जाता है.

राहुल गांधी जिस तरीके से संघ और बीजेपी का विरोध कर रहे हैं, मौजूदा राजनीतिक हालात में बहुत ही कम फर्क नहीं पड़ता. बेशक भारत जोड़ो यात्रा को राहुल गांधी के राजनीतिक विरोधी भी नजरअंदाज नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन वो वोटर की भीड़ नहीं है - और न ही उसे हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों से जोड़ कर कांग्रेस को उत्साहित होने, या गुजरात के चलते निराश होने की जरूरत है. सबकी परिस्थितियां बिलकुल अलग हैं.

आखिर क्या वजह है कि जिस बात का विरोध मोदी करते हैं उसका ज्यादा असर देखने को मिलता है, और जिस चीज के खिलाफ राहुल गांधी स्टैंड लेते हैं उसका वैसा प्रभाव देखने को नहीं मिलता?

अगर ये बात राहुल गांधी और उनके सलाहकार ठीक से समझ लें तो काफी परेशानियां दूर हो सकती हैं. राहुल गांधी के तात्कालिक विरोध का तरीका मुखालफत में दीवार से सिर टकराने जैसा ही लगता है - लिहाजा, किसी अलग तरीके से विरोध जताने की कोशिश होनी चाहिये.

ऐसा विरोध होना चाहिये कि लोग राहुल गांधी के राजनीतिक दुश्मन का डबल स्टैंडर्ड देख सकें और समझें भी. महंगाई के खिलाफ कांग्रेस नेताओं के काले कपड़ों में प्रदर्शन को प्रधानमंत्री मोदी काला जादू बता रहे थे - और हाल ही में, बीजेपी के विधायक अरविंद केजरीवाल सरकार के विरोध में काले कपड़ों में ही विरोध जता रहे थे. दोनों का असर भी एक जैसा ही रहा. जो स्थिति कांग्रेस की संसद में है, करीब करीब वैसी ही हालत बीजेपी की दिल्ली विधानसभा में है.

राहुल गांधी की राजनीति में मोहब्बत की बातें होने लगी हैं, और यही वजह है कि फिराक गोरखपुरी याद आ जाते हैं, "तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो, तुम को देखें कि तुम से बात करें!"

मोहब्बत को लेकर मन की बात तो राहुल गांधी खुद ही जानें. राजनीति को लेकर जो भाव राहुल गांधी बीच बीच में प्रकट करते रहे हैं, फिराक गोरखपुरी जैसा ही लगता है. राजनीति से मुखातिब भी है, करीब भी हैं - लेकिन समझ में नहीं आता कि करें तो क्या करें, और तभी राजनीति में मोहब्बत की बातें चलने लगती हैं. मोहब्बत की दुकान खोलने की.

एक तरफ राजनीति है, दूसरी तरफ रोमांस है. राहुल गांधी राजनीति के साथ भी कुछ कुछ रोमांटिक फीलिंग ही जताते रहे हैं. कुछ कुछ प्रेम की ही तरह. प्रेम में हासिल कुछ नहीं होता, फिर भी प्रेम होता है. प्रेम में होना ही काफी होता है. बस मुखातिब होना. बस थोड़ा करीब होना - और फिर देखने या बात करने की जरूरत नहीं बचती है.

राहुल गांधी का राजनीति के साथ भी मोहब्बत में होने जैसा ही रिश्ता लगता है - लाल किले से लेकर लाल चौक तक, राहुल गांधी के मुखातिब और राजनीति के करीब होने का फसाना ऐसा ही तो है.

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