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Updated: 22 जून, 2018 09:08 PM
आईचौक
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साल भर में बहुत कुछ बदल गया. जिन बातों का यूपी विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा प्रभाव रहा वे बेअसर हो गयी हैं. जो फैक्टर 2017 की चुनावी राजनीति में निष्प्रभावी दिखे 2018 के कैराना चुनाव में सबसे असरदार साबित हुए.

यूपी के दलितों और मुस्लिम वोटर की भूमिका एक साल के अंतर में ही काफी बदली दिखी है. मायावती ने 2017 में दलितों और मुस्लिम वोटों के गठजोड़ के लिए जान लड़ा दी - और पूरी तरह फेल रहीं. गोरखपुर से कैराना पहुंचते पहुंचते वही दलित-मुस्लिम गठजोड़ बहुत कारगर दिखने लगा है.

ये सिर्फ यूपी, बिहार या किसी राज्य विशेष तक सीमित नहीं है, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसकी बड़ी भूमिका देखने को मिल रही है.

आखिर क्या वजह है कि रामविलास पासवान बीजेपी को दलित और मुस्लिम विरोधी छवि से बाहर आने की सलाह दे रहे हैं, बीजेपी को संघ की ओर से भी ऐसी ही सलाह मिली है.

paswan, nitishबीजेपी को पासवान और नीतीश से एक जैसी सलाह

क्या कारण है कि नीतीश कुमार किसी भी कीमत पर सांप्रदायिकता से समझौता न करने की बात जोर शोर से कर रहे हैं?

पासवान खुद दलित हैं और उनकी लोक जनशक्ति पार्टी की मुसलमानों में भी अच्छी पैठ है. नीतीश कुमार तो दलितों से भी महादलित का अनुशीलन कर चुके हैं और जोकीहाट की हार ने मुस्लिम वोट बैंक की अहमियत फिर से समझा दी है.

ये वही दलित-मुस्लिम फैक्टर है जो मायावती को 2017 के चुनाव में ले डूबा. पासवान और नीतीश भी भयाक्रांत हैं - और सच तो ये है कि केंद्र और देश के ज्यादातर राज्यों में सत्ता पर काबिज बीजेपी और कांग्रेस का हाल भी कुछ अलग नहीं है. सभी को समझ आ चुका है कि 2019 ही नहीं, उससे पहले के विधानसभा चुनावों में भी दलित-मुस्लिम फैक्टर बहुत बड़ी चुनौती होगी.

और तो और खुद सोनिया गांधी भी कह चुकी हैं - "हम मंदिर जाने का प्रचार नहीं करते... लेकिन कांग्रेस को बीजेपी मुस्लिम पार्टी की तरह पेश करती है."

कैराना तो चुनावी मॉडल है

कैराना उपचुनाव सिर्फ बीजेपी और एकजुट विपक्ष के बीच हार जीत की प्रतियोगिता का नमूना भर नहीं रहा. दरअसल, कैराना हालिया चुनावी राजनीति की असली तस्वीर पेश करता है. यहां तक कि दलित और मुस्लिम वोटर के रुझान के हिसाब से भी देखें तो भी.

kairana votersकैराना तो चुनावी शोध-प्रबंध है

यूपी के 2017 चुनाव के बाद विपक्षी खेमे में कई नेता दलील दे रहे थे कि अगर समाजवादी गठबंधन में कांग्रेस के साथ मायावती की बीएसपी भी शुमार होती तो नतीजे बिलकुल उल्टा हो सकते थे. गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना के नतीजे ने भी इस थ्योरी को पास कर दिया और अब तो इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिये.

कैराना में 18 फीसदी दलित आबादी है और 33 फीसदी मुस्लिम. उपचुनाव में ये दोनों ही वोट बीजेपी को नहीं मिले और सहानुभूति बटोरने की उम्मीद के साथ चुनाव मैदान में उतरीं बीजेपी की मृगांका सिंह एक बार फिर हार गयीं. कैराना विधानसभा सीट पर भी वो हार गयी थीं.

जो थ्योरी यूपी को लेकर दी जा रही थी, तकरीबन वैसी ही कर्नाटक को लेकर भी चर्चित रही. कांग्रेस और जेडीएस कर्नाटक चुनाव दुश्मन की तरह लड़े, लेकिन नतीजे आने के बाद बीजेपी को रोकने के लिए हाथ मिला लिये. अगर दोनों साथ चुनाव लड़े होते तो?

कर्नाटक की आबादी में दलितों का हिस्सा 16.2 फीसदी है, जबकि मुसलमानों की 12.9 फीसदी. कर्नाटक चुनाव के दौरान ही एससी-एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर आया था. राहुल गांधी ने पहल की और फिर पूरे देश में विरोध शुरू हो गया. यहां तक कि एनडीए के भीतर भी विद्रोह की नौबत देखी गयी. कांग्रेस को भले ही ज्यादा फायदा न मिल सका लेकिन बीजेपी का नुकसान तो हुआ ही. आखिर बीजेपी कुछ ही सीटों से ही तो चूक गयी. दलितों और मुसलमानों की इस सोशल इंजीनियरिंग से इतर एक खास तबका भी है जिसे दलित मुसलमान कहा जाता है. एक अनुमान के मुताबिक देश में 10 करोड़ दलित मुसलमान हैं, जबकि मुसलमानों की कुल आबादी 14 करोड़ है.

2018 विधानसभा चुनावों के हिसाब से

कांग्रेस का पूरा जोर इन दिनों दलितों को बीजेपी के खिलाफ भड़काने पर है. रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला को लेकर कांग्रेस और बीजेपी की किचकिच काबिले गौर है. कांग्रेस का ये शोर शराबा 2019 के लिए नहीं बल्कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों को लेकर है जो इस साल के आखिर में होने वाले हैं.

कांग्रेस को लगता है कि कुछ अपने बूते और कुछ मायावती की मदद से दलित वोट पक्ष में पोल हो गये तो तीनों राज्यों में सत्ता पर काबिज बीजेपी को शिकस्त दी जा सकती है.

rahul gandhiदलितों के दुखः दर्द के साथी!

ऐसा बिलकुल नहीं है कि जिसे दलित वोट देंगे मुस्लिम भी अपनेआप उधर ही खिंचे चले जाएंगे. ऐसा होता तो मायावती को ये दिन नहीं देखने पड़ते. असल बात ये है कि दलितों के सपोर्ट के चलते मुसलमानों का रुझान भी बढ़ सकता है. वो स्थानीय उम्मीदवार के हिसाब से वोट देने की बजाये पार्टी देख कर भी वोट दे सकते हैं.

वैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दलितों के मुकाबले मुस्लिम आबादी काफी कम है. राजस्थान में दलित 17.2 फीसदी तो मुस्लिम 9.1 फीसदी हैं. मध्य प्रदेश में दलित 15.2 फीसदी जबकि मुसलमान 6.6 फीसदी हैं. इसी तरह छत्तीसगढ़ में 11.6 फीसदी दलित, लेकिन महज 2.0 फीसदी मुस्लिम आबादी है.

यूपी में पिछड़ गयी कांग्रेस इसी साल तीन राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए मायावती की पार्टी बीएसपी के साथ गठजोड़ की कोशिश में है. कांग्रेस का ध्यान कर्नाटक में बीएसपी को एक सीट मिल जाने और कैराना के नतीजे के बाद गया है. यूपी में मायवती को गठबंधन से परहेज बीएसपी के अस्तित्व को लेकर रहता है, दूसरे राज्यों में उतनी मुश्किल नहीं होने वाली.

2019 के आम चुनाव के हिसाब से

दलित और मुस्लिम वोट बैंक के हिसाब से सोचें तो बीजेपी और कांग्रेस दोनों को एक जैसा ही फायदा और नुकसान हो रहा है. जिस तरह बीजेपी को दलितों की चिंता है, उसी तरह कांग्रेस को मुस्लिम वोट बैंक की. बीजेपी चाहती है कि दलित वोट बैंक उसके पास ही रहे और कांग्रेस चाहती है कि दलित वोट में हिस्सेदारी के साथ ही एकमुश्त मुस्लिम वोट सिर्फ उसी के खाते में दर्ज हो. एक जमाना रहा जब दलित वोट भी कांग्रेस के ही हुआ करते थे. एक दौर ऐसा आया जब मायावती और थोड़ा थोड़ा दूसरे दलित नेताओं ने दलित वोटों पर कब्जा जमाकर कांग्रेस को किनारे कर दिया. अभी दलित समुदाय कुछ कुछ भटकाव के दौर से गुजर रहा है. उसे मायावती जैसे नेताओं में यकीन नहीं रहा. इसीलिए बीजेपी को भी थोड़ा बहुत आजमा रहा है. कांग्रेस पर अभी तक उसे फिर से भरोसा नहीं हो पाया है, लेकिन लुभा खूब रहा है.

बीजेपी पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जो आरोप उसके विरोधी लगाते हैं उसके पीछे ठोस तर्क भी है. बीजेपी चाहती है कि हिंदू मुसलमानों के खिलाफ एकजुट हों और उसे वोट दें. मुश्किल ये है कि मुस्लिमों के खिलाफ हिंदुओं की एक खास आबादी एकजुट तो हो जाती है, लेकिन पूरी की पूरी नहीं.

एक दलित नेता, रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने के बाद भी बीजेपी कभी रोहित वेमुला के चलते तो कभी ऊना उत्पीड़न तो कभी सुल्तानपुर हिंसा की चपेट में आती रहती है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बीजेपी को साफ शब्दों में चेता दिया है कि जैसे भी संभव हो सरकार अपनी दलित विरोधी छवि से जल्द से जल्द उबर जाये. संघ को डर है कि एंटी-दलित छवि बीजेपी को 2019 में भारी नुकसान पहुंचा सकती है.

modi, kovind, shahकाम नहीं आ रहा बीजेपी का दलित दाव...

तमाम उपायों के साथ साथ बीजेपी चुनावों में स्थानीय समीकरणों को देखते हुए सेफगार्ड और काउंटर के उपाय खोजती रही है. मिसाल के तौर पर यूपी चुनाव को देखें तो बीजेपी ने सवर्णों के अलावा गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित पर फोकस किया. ये सभी मिलकर 55-60 फीसदी हो जाते हैं. यूपी की कामयाबी के बाद बीजेपी इसे दूसरे राज्यों में भी स्थानीयता के हिसाब से रणनीति तैयार कर आगे बढ़ती है.

यूपी में 21.1 फीसदी दलित तो 19.3 फीसदी मुसलमान हैं, जबकि बिहार में 15.7 फीसदी दलित और 16.9 फीसदी मुसलमान हैं. कर्नाटक में चूक गयी बीजेपी की नजर ओडिशा और पश्चिम बंगाल पर है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इसे बाखूबी समझ रही हैं और यही वजह है कि बीजेपी के साथ साथ कांग्रेस पर भी जोरदार हमले बोले जा रही हैं.

पश्चिम बंगाल में दलितों और मुस्लिमों की आबादी लगभग बराबर है - 23 फीसदी दलित और 27 फीसदी मुस्लिम. ममता भी बीजेपी और कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल स्टाइल में समझा रही हैं - सब के सब मिले हुए हैं जी!

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