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योगी ताकत दिखाने पहुंचे, लेकिन नेता प्रतिपक्ष अखिलेश यादव का आजमगढ़ नहीं जाना क्या कहता है?
यूपी में आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट पर 23 जून को वोट डाला जाना है. भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी है. आजमगढ़ में योगी आदित्यनाथ ने निरहुआ के पक्ष में बड़ी सभा की. लेकिन अखिलेश यादव सपा उम्मीदवार के पक्ष में नहीं गए. क्या सपा नेता को इस बार आजमगढ़ से बेहतर नतीजे की उम्मीद नहीं है?
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यूपी विधानसभा में नेता विरोधी दल और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को लेकर उनके विरोधी लगातार आरोप लगाते आए हैं कि वे राजनीति को लेकर पूरी तरह से गंभीर नहीं हैं. राजकाज को लेकर उनका अप्रोच कैजुअल है. भाजपाई नेता तो उनके देर तक सोने, ऑफिस में नहीं बैठने आदि आदि आरोप भी मौका बेमौका दागते ही रहते हैं. कुछ समर्थक भी दबी जुबान स्वीकार करते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री कई बार अति आत्मअविश्वास में आ जाते हैं. मनमानी करते हैं और चीजों को गंभीरता से नहीं लेते हैं. विधानसभा चुनावों के बाद ऐसे ही आरोप शिवपाल यादव, केशव देव मौर्य के रूप में उनके सहयोगी नेता लगा चुके हैं. नेताओं ने इसे भाजपा से हार की प्रमुख वजह के रूप में भी गिनाते नजर आ चुके हैं.
2017 के मुकाबले 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने यूपी विधानसभा चुनाव में उल्लेखनीय सफलता हासिल की थी. नतीजों से पार्टी में एक उत्साह की लहर दिखी. अखिलेश ने जब विधानसभा में योगी आदित्यनाथ से मोर्चा लेने के लिए आजमगढ़ लोकसभा सीट छोड़ दी, तब भी यह बात और पुख्ता हो गई कि सपा नेता यूपी में हासिल बढ़त को साल 2024 के लोकसभा चुनाव तक बिल्कुल भी गंवाना नहीं चाहते. हालांकि राज्य में रामपुर और आजमगढ़ में हो रहे लोकसभा उपचुनाव को लेकर उनकी सक्रियता अलग कहानी बयान करती नजर आती है. उपचुनावों के जरिए भाजपा और सपा के रूप में दो परंपरागत प्रतिद्वन्द्वियों के बीच का अंतर भी समझा जा सकता है.
योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव.
रामपुर में जीत-हार का सारा दारोमदार आजम खान के हाथ में क्यों है?
रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीट पर 23 जून को वोट डाला जाना है. राजनीतिक लिहाज से दोनों सीटों के नतीजों का बड़ा असर हो सकता है. बावजूद अखिलेश अभी तक किसी भी सीट पर कैम्पेन के लिए नहीं पहुंचे हैं. मोदी-योगी लहर के बावजूद साल 2019 के चुनाव में सपा ने दोनों सीटों पर कब्जा जमाने में कामयाबी हासिल की थी. आजमगढ़ से खुद पूर्व मुख्यमंत्री सांसद बने थे जबकि रामपुर सीट को आजम खान ने जीता था. विधायक बनने के बाद दोनों नेताओं ने लोकसभा सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था. रामपुर में आजम ने भरोसेमंद आसिम रजा को मैदान में उतारा है. यादव बहुल आजमगढ़ में अखिलेश के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव मैदान में हैं.
रामपुर की कमान आजम के हाथ में है. वे रात दिन एक किए हुए हैं और किसी भी हाल में सीट पर कब्जा बरकरार रखना चाहते हैं. आजम के लिए चुनाव निजी प्रतिष्ठा का सवाल है. वे हर गली चौराहे नुक्कड़ पर जा रहे हैं और रामपुर की जनता से अपने पक्ष में मतदान की अपील कर रहे हैं. आजम को पता है कि रामपुर में उनका मुकाबला इस बार बहुत आसान नहीं है. एक तो यहां कांग्रेस और बसपा ने अपने उम्मीदवार नहीं दिए हैं. इस वजह से लड़ाई भाजपा बनाम सपा से कहीं ज्यादा हिंदू बनाम मुसलमान बन चुकी है. दूसरा- कभी उन्हीं का दाया हाथ रहे घनश्याम सिंह लोधी भाजपा की तरफ से मैदान में हैं. घनश्याम को आजम की ताकत और कमजोरियों का भरपूर ज्ञान है. रामपुर में अपने प्रत्याशी को भाजपा जबरदस्त सपोर्ट दे रही है. पार्टी के तमाम बड़े कार्यकर्ता वहां जाकर जनसंपर्क कर रहे हैं. सपा के सबसे बड़े पोस्टर बॉय अखिलेश यहां नजर नहीं आए.
आजमगढ़ की बात करें तो यहां सपा के सामने बसपा ने मुस्लिम उम्मीदवार के रूप में गुड्डू जमाली पर दांव लगाया है. भाजपा ने भोजपुरी सुपरस्टार दिनेश लाल यादव 'निरहुआ' पर भरोसा जताया है. भाजपा के तमाम बड़े नेता आजमगढ़ पहुंच कर कैम्पेन में शामिल हो रहे हैं. यहां तक कि योगी आदित्यनाथ भी लाव लश्कर लेकर आजमगढ़ में रैली करने पहुंचे. उन्होंने आजमगढ़ को आर्यमगढ़ बनाने के लिए निरहुआ को जिताने की भी अपील की. दूसरी तरफ धर्मेंद्र यादव के रूप में परिवार का उम्मीदवार होने के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री ने वहां कैम्पेन करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. सवाल है कि अखिलेश का दो बड़े उपचुनाव के लिए मैदान से बाहर रहने का क्या मतलब है? भाजपा की जी-तोड़ मेहनत के आगे एक सीधा सामान्य मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि सपा नेता शायद दोनों चुनाव को बहुत महत्वपूर्ण ही नहीं मान रहे हैं.
निरहुआ और धर्मेंद्र यादव.
कागज़ पर सपा मजबूत पर उपचुनाव में जमीन का समीकरण इस बार अलग क्यों है?
दूसरा मतलब यह भी निकलता है कि उन्हें शायद भरोसा हो कि दोनों सीटें उनके जाए बिना भी पार्टी आसानी से जीत ही लेगी. इसकी वजहें भी हैं. असल में रामपुर में करीब 50 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं. मुस्लिम वोट ट्रेंड और नुपुर शर्मा को लेकर मौजूदा विवाद के बाद मुस्लिम मत सपा के पक्ष में एकतरफा जा सकते हैं. अगर बड़ी सेंधमारी नहीं हुई तो कागजों पर सपा उम्मीदवार की दावेदारी फिलहाल भाजपा के मुकाबले बहुत मजबूत तो मान ही सकते हैं. आजमगढ़ में भी लगभग यही हाल है. यह सीट यादव बहुल है. भाजपा से सीधे लड़ाई में रहने वाले किसी एक विपक्षी उम्मीदवार के पक्ष में मुसलमान मतदाता एकमुश्त वोटिंग कर सकते हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो आजमगढ़ में भी नतीजों तक समीकरणों के लिहाज से सपा उम्मीदवार मुकाबले में नजर आ रहा है. लेकिन, आजमगढ़ में रूककर ठहराना पड़ेगा.
आजमगढ़ में भाजपा ने भी एक बड़े सेलिब्रिटी यादव चेहरे को मैदान में उतारा है. निरहुआ आजमगढ़ के लिए उतने नए नहीं हैं जितना कि धर्मेंद्र यादव हैं. आजमगढ़ के लिए धर्मेंद्र यादव, अखिलेश यादव और निरहुआ के चेहरे में फर्क है. 2019 में पराजय झेलने के बावाजूद निरहुआ निर्वाचन क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे हैं और इसी सक्रियता की वजह से पार्टी ने उनपर भरोसा भी जताया हो. इसमें कोई शक नहीं कि निरहुआ बड़े पैमाने पर यादव मतों में सेंधमारी करने में हर लिहाज से सक्षम हैं. पिछला चुनाव भी उन्होंने बढ़िया तरीके से लड़ा था. वैसे भी धर्मेंद्र यादव आजमगढ़ के लिए अखिलेश जैसा चेहरा भी नहीं हैं और कई मायनों में निरहुआ से कमजोर नजर आते हैं. शिवपाल यादव भी वहां कैम्पेन करने नहीं पहुंचे हैं. जबकि आजमगढ़ में अभी भी शिवपाल के भरोसेमंद कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है.
आजमगढ़ में बिगड़ चुकी है सपा की रणनीति, अखिलेश के नेतृत्व को बचाने की कोशिश
सपा को मुस्लिम मतों की आस है. पर सवाल यह भी है कि गुड्डू जमाली के रूप में ताकतवर मुस्लिम चेहरा होने की स्थिति में सपा को वोट क्यों ही मिलेगा? मौजूदा चुनाव की घोषणा से बहुत पहले गुड्डू जमकर प्रचार कर रहे हैं. बसपा चीफ मायावती ने उनकी उम्मीदवारी की घोषणा पहले ही कर दी थी. रामपुर का तो बहुत दावे से नहीं कहा जा सकता, मगर आजमगढ़ में भाजपा को उपचुनाव में 2019 के चुनाव की तुलना में बहुत मजबूत माना जाना चाहिए. यही वजह है कि योगी समेत भाजपा के तमाम बड़े नेता यहां प्रचार के लिए पहुंचे. पार्टी हर हाल में आजमगढ़ को जीतकर सपा का गढ़ ध्वस्त करना चाहती है. यह इस बात का भी संकेत है कि पार्टी को आजमगढ़ से बेहतर नतीजों की उम्मीद है. कहीं ऐसा तो नहीं कि अखिलेश को आजमगढ़ में सपा की हैसियत का अंदाजा लग चुका है. शायद उन्हें हार की आशंका हो और इसी वजह से उन्होंने खुद को उपचुनाव से दूर कर लिया हो.
अखिलेश के नेतृत्व को लगातार निशाना बनाया जा रहा है. यह उनकी रणनीति भी हो सकती है. स्वाभाविक रूप से अगर सपा आजमगढ़ में जीतती है तो जीत का श्रेय अखिलेश को ही मिलेगा. और रामपुर में आजम खान को. पूर्व मुख्यमंत्री कैम्पेन में उतरते हैं, बावजूद पार्टी प्रत्याशियों की हार होती है तो ठीकरा अखिलेश के माथे ही फूटने की आशंका है. रामपुर में अखिलेश के पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं है. आजमगढ़ में जरूर उनकी मौजूदगी से एक अंतर पैदा हो सकता था. वो नहीं गए. अखिलेश का नहीं जाना भी आजमगढ़ के यादव मतदाताओं का निरहुआ के प्रति आकर्षित होने की एक वजह बनता दिख रहा है. वैसे भी सांसद बनने के बाद आजमगढ़ में नहीं जाना, स्थानीय स्तर पर एक बड़ा मुद्दा बना रहा. उपचुनाव में भी पार्टी ने किसी स्थानीय यादव नेता पर भरोसा जताने की बजाए अपने ही परिवार के एक उम्मीदवार को भेज दिया और कैम्पेन करने के लिए भी नहीं आए.
आजमगढ़ का एक रुझान यह भी हो सकता है कि वहां सपा की बजाए भाजपा और बसपा में सीधी लड़ाई हो. और इस बात की पूरी संभावना बनी हुई है कि सपा नेता के नेतृत्व पर कोई सवाल ना उठे- इसीलिए उन्होंने खुद को चुनाव से दूर कर लिया है. वरना जब योगी के रूप में एक व्यस्त मुख्यमंत्री आजमगढ़ जा सकता है तो भला नेता प्रतिपक्ष के वहां नहीं जाने का कोई तुक नजर नहीं आता.