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Updated: 28 दिसम्बर, 2019 04:54 PM
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झारखंड के लोगों ने बीजेपी (BJP in Jharkhand) को सत्ता से बेदखल करके पार्टी को बड़ा मौका दिया है. जनादेश के हिसाब से बनता तो यही है कि बीजेपी अच्छे, सक्रिय और सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाये. साथ ही, हार के कारणों (Tribal Leadership) पर आत्ममंथन करे और नये सिरे से तैयारियों में जुट जाये.

लोगों ने बीजेपी को इतनी ही सीटें बख्शी हैं कि वो विपक्षी राजनीति से आगे की भूमिका के बारे में न ही सोचे तो बेहतर है - और हेमंत सोरेन के महागठबंधन को इतना दे डाला है कि किसी कुदृष्टि का भी कोई असर न हो.

ऐसे में, अभी तो यही लगता है कि बीजेपी के सामने पूरे पांच साल इंतजार के अलावा कोई और उपाय बचा भी नहीं है.

रघुवर दास का क्या होगा?

झारखंड में बीजेपी की सिर्फ चुनावी हार ही नहीं हुई है, सूबे के सारे राजनीतिक समीकरण ही एक झटके में गड़बड़ हो गये हैं. गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री का बीजेपी नेतृत्व का प्रयोग तो फेल हुआ ही, पांच साल तक रघुवर दास (Raghubar Das) के रवैये से पार्टी का अंदरूनी झगड़ा इतना बढ़ गया कि उसकी भी कीमत चुकानी पड़ी.

कहने को तो रघुवर दास कह ही रहे हैं कि जयचंदों के कारण बीजेपी को झारखंड की सत्ता से बाहर होना पड़ा. फिर तो सवाल ये भी उठता है कि अगर ऐसा हुआ भी तो ये पैदा ही क्यों हुए?

बीजेपी नेतृत्व के लिए फिलहाल ये भी चुनौतीपूर्ण हो गया है कि वो राज्य बीजेपी की कमान किसे सौंपे? विपक्ष का नेता किसे बनाया जाये? स्वाभाविक तौर पर तो रघुवर दास का ही हक बनता है, लेकिन लगता नहीं बीजेपी ऐसा करने का फिर से जोखिम उठाएगी?

वैसे भी पिछले एक साल में बीजेपी ने जिन पांच राज्यों में सत्ता गंवाई है उनमें सिर्फ महाराष्ट्र अपवाद है जहां पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस नेता प्रतिपक्ष हैं. राजस्थान और मध्य प्रदेश में तो पूर्व मुख्यमंत्रियों को राज्य में ही नहीं रहने देने का इरादा अमित शाह ने दिखा दिया था, छत्तीसगढ़ में भी रमन सिंह की जगह धर्म लाल कौशिक को विधानसभा में बीजेपी का नेता बनाया गया. ठीक वैसे ही राजस्थान में अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी गुलाबचंद कटारिया और मध्य प्रदेश में गोपाल भार्गव नेता प्रतिपक्ष बने.

ये पॉलिसी तो यही बता रही है कि रघुवर दास के विपक्ष के नेता होने की बहुत ही कम संभावना है. वैसे भी देवेंद्र फडणवीस और रघुवर दास के प्रदर्शन में काफी फर्क है. देवेंद्र फडणवीस गठबंधन के साथ चुनाव लड़े और बहुमत भी हासिल किया, लेकिन रघुवर दास ने तो न गठबंधन कायम रखा और न ही बहुमत के करीब ही पहुंच सके.

अगर बीजेपी बहुमत के करीब पहुंची होती तो महागठबंधन का नंबर भी कम होता और कुछ भी होने वाली स्थिति बन पाती. रघुवर दास तो वैसे भी कर्नाटक के बीएस येदियुरप्पा या देवेंद्र फडणवीस जैसे तेज तर्रार नहीं हैं जो ऑपरेशन कमल जैसे खेल खेल पाते. हालांकि, अगर सीटें ज्यादा जीत लेते तो बीजेपी के पास अब भी झारखंड में अर्जुन मुंडा जैसे नेता हैं जो येदियुरप्पा और फडणवीस की तुलना में बीस ही पड़ेंगे. फिलहाल तो वो केंद्रीय कैबिनेट में ही बने हुए हैं और वैसे भी राज्य में सक्रिय होने का फिलहाल तो कोई खास मतलब भी नहीं है.

amit shah, raghubar dasक्या रघुवर दास के साथ भी वैसा ही सलूक होगा जैसा वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के साथ हुआ?

ऑपरेशन कमल का स्कोप भी तब बनता जब निर्दलीय विधायक ज्यादा होते. आरजेडी 7 में से सिर्फ एक सीट चतरा जीत पायी है. चतरा से आरजेडी विधायक सत्यानंद पहले बीजेपी में ही थे और मंत्री भी रहे हैं. हेमंत सोरेन के लालू प्रसाद से आशीर्वाद लेने के बाद ये भी साफ है कि वो मंत्री बन रहे हैं. इसी तरह एक से तीन विधायक बाकी पार्टियों के हैं और दो निर्दलीय. फिर तो कुछ नहीं होने वाला है.

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव के दौरान झारखंड के लोगों से दो बातें कही थी. लोगों ने एक बात तो मान ली, लेकिन एक में अपने मन वाली कर दी. अमित शाह ने लोगों से स्पष्ट जनादेश और बीजेपी को वोट देने की अपील की थी. लोगों ने जनादेश तो स्पष्ट दिया, लेकिन वोट बीजेपी की जगह JMM के नेतृत्व वाले गठबंधन को दे दिया.

आदिवासी नेतृत्व को तरजीह

झारखंड में जो कुछ भी 'हुआ तो हुआ' अब अमित शाह के लिए बड़ा चैलेंज राज्य बीजेपी का अध्यक्ष और विधानसभा में पार्टी का नेता चुनना है. अब तक बीजेपी अध्यक्ष रहे लक्ष्मण गिलुआ अपनी भी सीट नहीं बचा पाये और फिर अध्यक्ष पद से भी इस्तीफा दे दिया है.

ये दोनों पद भले न सही, लेकिन एक पद पर बीजेपी किसी आदिवासी नेता को भी बिठाना चाहेगी. फिलहाल अध्यक्ष पद को लेकर भी कई नाम रेस में चल रहे हैं. एक नाम आदित्य साहू का भी है. आदित्य साहू के साथ मुश्किल ये है कि जितने समर्थक नहीं उतने उनके विरोधी हैं क्योंकि वो रघुवर दास के करीबी बताये जाते हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद रघुवर दास ने आदित्य साहू को काफी प्रमोट किया - और अब उन्हें उसी का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.

अध्यक्ष पद के लिए एक और भी नाम मार्केट में घूम रहा है - नीलकंठ मुंडा. नीलकंठ मुंडा बीजेपी कद्दावर आदिवासी नेता करिया मुंडा के भतीजे हैं. नीलकंठ मुंडा की पैरवी सीपी सिंह जैसे नेता भी कर रहे हैं. सीपी सिंह जब अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री थे तो विधानसभा के स्पीकर हुआ करते थे.

अगर बीजेपी नेतृत्व विधानसभा में हेमंत सोरेन से रोजाना दो-दो हाथ करने के लिए कोई आतिवासी नेता को चुनता है तो प्रदेश अध्यक्ष का पद किसी और भी मिल सकता है. ऐसे नेताओं में रवींद्र राय भी एक नाम हो सकते हैं.

रघुवर दास ने सरयू राय की तरह कोडरमा से रवींद्र राय का भी टिकट काट दिया था. 2014 में रवींद्र राय ही प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष रहे जब आम चुनाव में बीजेपी को 14 में से 12 लोक सभा सीटें तो मिली ही, विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को बहुमत मिला और फिर रघुवर दास मुख्यमंत्री बने. रघुवर दास के सीएम बन जाने के बाद रवींद्र राय किनारे लगा दिेये गये थे. सरयू राय ने तो निर्दल ही रघुवर दास को शिकस्त दे दी है. मुमकिन है रवींद्र राय के भी अच्छे दिन आने वाले हों.

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