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Updated: 30 जुलाई, 2015 03:56 PM
सुरेश कुमार
सुरेश कुमार
  @sureshkumaronline
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''अब तो बीच सड़क पर DJ Sound लगाकर फूहड़ गानों का कार्यक्रम चल रहा है. पुलिस बेबस खड़ी है. उनमें भी अपनी बेबसी पर खीझ है. उन्हें ऊपर से आदेश है कि इस बंद को सफल बनाना है. ये ऊपर वाले यानी वे लोग जिनकी ज़िम्मेदारी होती है ऐसी घटनाओँ को रोकने की. मीडिया चाहे जो आकलन कर ले बिहार में लालू अपनी ज़मीन पूरी तरह खो चुके हैं. नीतीश ने उनके साथ जाकर अपनी संभावनाओं की बत्ती लगा ली है.'' -फेसबुक पर शशि सिंह

बिहार की एक सच्चाई यह भी है. पटना को हाजीपुर से जोड़ने वाले गांधी सेतु पर गाडि़यों का जाम लगना आम बात है. अगर बंद है तो पूरा बिहार बंद है. राजधानी से कोई कनेक्शन नहीं. सड़क मार्ग बंद. कभी जंगल राज की उपाधि देने वाले नीतीश कुमार आज लालू प्रसाद के संग मंच साझा कर रहे हैं. साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं. नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, यह भी पहले से ही तय कर दिया गया है. दरअसल ये दोनों नेता एक दूसरे की राजनीतिक जमीन बचाने में जुटे हुए हैं.

क्यों अलग हुए थे नीतीश

नीतीश कुमार का यह काफी पुराना शगल रहा है. नीतीश कभी लालू प्रसाद का विरोध कर अलग नहीं हुए. इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटना होगा. वह दौर था 1990 का, जब लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर राजनीति की दशा, दिशा और भाषा सब कुछ तय कर रहे थे. मंडल और मंदिर के बीच लालू प्रसाद यादव बिहार की राजनीति में सबसे पसंदीदा चेहरा बनकर सामने आए थे. मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद मंडल-विरोधी आंदोलनों ने पिछड़ों को बिहार में एकजुट कर दिया था. हालांकि, बाद के वर्षों में लालू प्रसाद की राजनीति यादवों के उत्थान के प्रतीक के रूप में नजर आने लगी थी. इसका असर दूसरी जातियों पर भी हुआ. अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल वैसी जातियां जो पहले से अपने व्यवसाय या कृषि‍ कार्यों के कारण समृद्ध थीं अपने आप को उपेक्षित महसूस करने लगीं. नीतीश कुमार ने इसी का फायदा उठाया और अपने लिए एक अलग जमीन तैयार करने में जुट गए.

1995 में हुए विधानसभा चुनाव से पहले जनता दल से अलग होकर नीतीश कुमार अन्य पिछड़ा वर्ग में पनप रहे अवि‍श्वास को अपने पक्ष में गोलबंद करने की कोशिश में लग गए. यह मंडल राजनीति का एक नया पक्ष था. नीतीश ने अपने साथ पिछड़ी जातियों के ऊपरी तबके को एकजुट करने का प्रयास शुरू कर दिया. यहीं से नीतीश की पहचान लालू से अलग होने लगी. वे पिछड़ी जातियों के ऊंचे तबकों का नेतृत्व करने लगे थे. हालांकि, 1995 के विधानसभा चुनाव में इसका कोई खास असर नहीं दिखा. इसके पीछे मूल कारण ऊंची जातियों के वोट का कांग्रेस और बीजेपी में बंट जाना था. 1995 के चुनाव के बाद यह लगभग साफ हो गया था कि बिहार में कांग्रेस लालू प्रसाद को चुनौती नहीं दे सकती. ऐसे में ऊंची जातियों का एक बड़ा तबका नीतीश की समता पार्टी और बीजेपी के साथ हो गया. इसका परिणाम 1996 के लोकसभा चुनाव में दिखा जब समता पार्टी और बीजेपी गठबंधन को 59 फीसदी वोट हासिल हुआ.

बिहार में नीतीश की दोस्ती यहीं से बीजेपी के साथ मजबूत हुई. बीजेपी को भी बिहार में नीतीश कुमार के रूप में एक सहयोगी मिल गया था जो लालू को कड़ी टक्कर दे सकता था. इसकी आजमाइश 2000 और फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में ही हो गई थी. नीतीश कुमार बिहार में लालू के जंगल राज के विरोधी होने से ज्यादा अपनी पहचान खो जाने की चिंता से ग्रस्त थे. उनकी उपज भी उसी राजनीति से हुई थी जिससे लालू प्रसाद निकल कर आए थे. हालांकि, नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद की बनाई जमीन में विकास का नारा जोड़ उसे अपने तरीके से इस्तेमाल किया. अक्टूबर, 2005 के चुनाव में नीतीश कुमार बीजेपी के साथ मिल कर मैदान में उतरे जिसमें उन्हें सफलता मिली और वे बिहार के मुख्यमंत्री बने.

2010 के चुनाव ने नीतीश को और मजबूत बना दिया. एनडीए गठबंधन में उनका कद ऊंचा दिखने लगा. वे उम्मीद लगा बैठे कि अगर केंद्र में गठबंधन की सरकार बनी तो उन्हें उम्मीदवार बनाया जा सकता है. लेकिन ना तो ऐसा होना था और ना ही हुआ. एनडीए की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को अपना उम्मीदवार बनाया और नीतीश अपनी पार्टी के साथ गठबंधन से अलग हो गए. यहां भी सांप्रदायिकता से नीतीश कुमार का कोई लेना देना नहीं था. वे सिर्फ अपने लिए गठबंधन से अलग हुए थे. लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत हुई. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और इधर नीतीश कुमार ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. मकसद था जो कहा वो किया की तर्ज पर लोगों की सहानुभूति हासिल करना.

नीतीश कुमार ने अपनी जगह जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद पर बैठाया. इस संदेश के साथ कि नीतीश कुमार बिहार में महादलित का एक नया वर्ग ही तैयार नहीं कर सकते बल्क‍ि उस वर्ग से आने वाले व्यक्त‍ि को मुख्यमंत्री भी बना सकते हैं. कुछ समय बीता होगा कि नीतीश कुमार अपनी छवि पर जीतन राम मांझी का चेहरा हावी होता महसूस करने लगे. अंतत: मांझी को पद से हटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और फिर से बिहार के मुख्यमंत्री बन गए.

क्यों साथ आए नीतीश-लालू

नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव एक ही परिवार के दो भाई की तरह हैं. दोनों को अपनी विरासत बचानी है. आरजेडी अपनी राजनीतिक जमीन बचाने की कोशिश कर रहा है ताकि उसके 'युवराजों' अर्थात् लालू प्रसाद के दोनों बेटे राजनीति के लिए परिपक्व हो जाएं. अगर आरजेडी में कोई भी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लायक होता तो नीतीश कुमार कभी भी आरजेडी से समझौता नहीं करते. दूसरा, अगर नीतीश कुमार को अपने पुराने वोट बैंक अर्थात् कोइरी, कुर्मी, अन्य पिछड़ा वर्ग का ऊंचा तबका, कुछ अगड़ी जाति के लोग और दलित वर्ग का एक तबका के बिखरने का डर नहीं होता तो शायद नीतीश कुमार खुद पर दांव लगाते और अकेल दम पर मैदान में उतरते. अभी तो हालत ऐसी है कि दोनों के दोनों राजनीतिक मझधार में फंसे हुए हैं जहां एक दूसरे का तिनका बनना मजबूरी भी है और काफी हद तक मौकापरस्ती भी.

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लेखक

सुरेश कुमार सुरेश कुमार @sureshkumaronline

लेखक आज तक वेबसाइट के एडिटर हैं.

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