शिवानंद तिवारी की नजर में बिहार का जातिगत गणित
विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार ही अगले मुख्यमन्त्री होंगे, यह घोषित करते समय लालूजी के मुंह से यह भी निकल गया था कि वे जहर पीने को तैयार हैं. पत्रकार उनसे जहर पीने वाली बात पर सफाई मांग रहे थे.
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विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार ही अगले मुख्यमन्त्री होंगे, यह घोषित करते समय लालूजी के मुंह से यह भी निकल गया था कि वे जहर पीने को तैयार हैं. समाचार चैनल वाले घेर-घेर कर उनसे जहर पीने वाली बात की सफाई मांग रहे थे. परेशान लालूजी, अपने ढंग से इधर-उधर से निकलने का प्रयास करते रहे. लेकिन बात तो मुंह से निकल चुकी थी. वह भी स्वतःस्फुर्त ढंग से. ऐसी प्रतिक्रिया जो तत्काल स्वतः निकलती है, उसमें बनावट या मिलावट की सम्भावना कम होती है.
लालूजी ने जहर पीने वाली जो बात कही थी, उसका निहितार्थ आज की राजनीति के सन्दर्भ में क्या है? सामाजिक चिंतक और साहित्यकार तुलसी राम जी आज की राजनीति का चारित्रिक विश्लेषण करते हुए कहते हैं - 'हमारे देश की जो राजनीतिक व्यवस्था है, वह धीरे-धीरे जातीय व्यवस्था में बदलती जा रही है. पहले पार्टियां सत्ता में आती थीं, अब जातियां सत्ता में आ रही हैं. पिछले कम से कम दो दशकों से जातीय सत्ता हावी होती जा रही है राजनीति में.'
मुझे लगता है कि तुलसी राम जी के इस विश्लेषण से शायद ही किसी को असहमति होगी. लम्बे समय से लोहियावादी राजनीति के एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में मैने राजनीति में आए इस बदलाव को काफी करीब से देखा है. जिसकी चर्चा तुलसी राम जी ने की है. लालूजी के पन्द्रह वर्षों के राज में बिहार में, यादवों का दबदबा तो कम से कम था ही. नीतीश कुमार के सत्तारोहण के बाद वह दबदबा तो नहीं रहा. बल्कि इसके विपरीत यादव समाज को लगता रहा है कि नीतीश कुमार की राजनीति का आधार ही यादव विरोध रहा है. यह अवधारणा सही है या गलत, इस पर सवाल उठाया जा सकता है. लेकिन यादव समाज में ऐसी अवधारणा बनी हुई है.
जिन नीतीश कुमार की वजह से उस सत्ता का पतन हुआ, जिसमें यादवों का दबदबा था, उस समाज के नेता के रूप में नीतीश को अगले मुख्यमन्त्री के रूप में कबूल कर लेना लालू यादव के लिए जहर पीना नहीं तो क्या अमृत पीना माना जाएगा? खैर, जहर पीना लालूजी की राजनीतिक मजबूरी हो सकती है. लेकिन यादव समाज के लिए ऐसी मजबूरी क्यों होगी! ठीक है कि लगभग पच्चीस वर्षों से बिहार का यादव समाज लालू के इशारे पर वोट डालता रहा है. एवज में उसका दबदबा कायम रहे, लालू इसका ख्याल रखते थे.
नीतीश के सत्ता में आने के साथ समीकरण बिलकुल बदल गया. लालू के समय के बेदखलों का नीतीश के राज में दखल हो गया. पिछले दस वर्षों से लालू बिहार की सत्ता से बाहर हैं. लेकिन यादव समाज इसके बावजूद लालूजी के पीछे उनके संघर्ष में खड़ा रहा है. आज लालूजी ने अचानक नीतीश कुमार से हाथ मिला लिया है, इसी वजह से अब यादव समाज भी सबकुछ भूलकर उनको पुनः मुख्यमन्त्री बनाने के लिए जान लगाने जा रहा है - यह मान लेना अपने आपको झूठी सांत्वना देने के समान होगा. वह किस खुशी में पुनः उसी को सत्ता में लाने के लिए अपना पसीना बहाएगा, जिसने उसको सत्ता से बेदखल किया था. लालू के लिए उसको मोह रहेगा. वह उनको एक दम छोड़ नहीं देगा. जहां वे जीतने वाले हैं, वहां जीता देगा. लेकिन लालूजी के कहने से वह नीतीश कुमार को भी जीताएगा, इस पर मुझे गंभीर संदेह है.
जातियों का भी अपना स्वार्थ होता है. वे भी अपना भला-बुरा देखती हैं. नेता जब तक उनके हित की रक्षा करने में समर्थ है, वह उसकी सेवा में एक पैर पर खड़ी रहती है. लेकिन जब उनका हित सधना बंद हो जाता है तो वह दूसरा दरवाजा खोजने लगती है. आखिर जीवन का व्यापार तो चलते रहना है. लालूजी के पहले रामलखन सिंह यादव बिहार में यादवों के सबसे ताकतवर नेता थे. उनके जीवन काल में ही यादव उनको छोड़ लालूजी के पीछे आ गए थे.
दूसरी ओर नीतीश कुमार के मतदाताओं का संकट भी कम नहीं है. लालू से अलग होने के बाद उनकी सम्पूर्ण राजनीति लालू विरोध पर ही टिकी रही है. लालू विरोध की अपनी राजनीति का समर्थन करने वाले मतदाताओं को नीतीश कैसे लालू समर्थक में तब्दील करेंगे, इसका उत्तर भी सहज नहीं है. लेकिन संकट यह था कि नीतीश के सामने लालू के अलावा कोई विकल्प नहीं था. क्योंकि लोकसभा चुनाव का नतीजा आगाह कर चुका था कि अकेले आप विधान सभा का चुनाव लड़ेंगे तो हवा हो जाएंगे. ऐसी हालत में नीतीश के लिए एकमात्र विकल्प लालू ही थे.
विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति लालूजी के समक्ष नहीं थी. लालूजी अगर साहस दिखाते तो जहर पीने की जरूरत नहीं पड़ती. उनके लिए जीतन राम मांझी सबसे बेहतर विकल्प थे. मांझी जी को मुख्यमन्त्री के रूप में सामने रखकर लालूजी चुनाव मैदान में अगर उतरते तो बिहार का चुनाव कांटे का हो जाता. बिहार के लगभग पन्द्रह प्रतिशत दलित फट से इस अभियान के पीछे गोलबंद हो जाते. यादव समाज को भी मांझीजी ज्यादा ग्राह्य होते. लेकिन लालूजी को मांझीजी से अलग करने का जबर्दस्त खेल खेला गया. नीतीश कुमार ने कांग्रेस से कहलवा दिया कि मुख्यमन्त्री के रूप में उसे सिर्फ नीतीश ही मंजूर हैं. इधर खबर चलाई गई कि लालू अपना मुकदमा खत्म कराने के लिए नरेन्द्र मोदी से सौदा कर रहे हैं. इन ताबड़तोड़ हमलों से लालू घबड़ा गए और जहर पीना उन्होंने कबूल कर लिया है.
इस चुनाव में यादव अगर उनसे बिखर गए तो भविष्य की राजनीति लालूजी के लिए अत्यंत कठिन हो जाएगी. नीतीश कुमार की भी कोई बेहतर हालत नहीं दिखाई दे रही है. लालूजी के मतदाताओं के समर्थन के बगैर वे कहीं टिकते नहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं. बिहार का चुनाव दोनों पक्ष के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. बीजेपी के लिए भी बिहार का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है. दिल्ली की हार के बाद हर हाल में वह बिहार में जीतना चाहेगी. धुआंधार ढंग से वह मैदान में उतर भी चुकी है. दूसरी ओर लालू और नीतीश की पार्टी के लोग अभी तक एक दफा भी साथ-साथ नहीं बैठ पाए हैं. दोनों अभी अलाप की ही स्थिति में हैं.
(जेडीयू के पूर्व सांसद शिवानंद तिवारी की फेसबुक वॉल से साभार. तिवारी बिहार के सक्रिय राजनेताओं में से एक हैं)

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