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Updated: 09 अक्टूबर, 2019 01:39 PM
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दो साल बाद दिल्ली सरकार फिर से ऑड-ईवन फॉर्मूले पर लौट रही है. दिल्ली में ऑड-ईवन का नफा-नुकसान भी काफी हद तक एक बार पूरे देश में लागू हुए नोटबंदी की तरह ही रहस्यमय रहा है. नोटबंदी को लेकर मोदी सरकार के आगे के प्लान का तो अभी कोई अंदाजा नहीं है, लेकिन दिल्ली में 4 नवंबर से 15 नवंबर तक ये स्कीम लागू होगी ही, सरकारी ऐलान आम हो चुका है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 2017 में आखिरी बार ऑड-ईवन स्कीम लागू की थी - तब महिलाओं को इसमें छूट दी गयी थी. इस बार ये सब कैसा और कितना अलग होगा या बिलकुल वैसा ही रहेगा, अभी कुछ साफ नहीं है.

मोदी सरकार के नये ट्रैफिक नियमों को लेकर कदम कदम पर साथ चल रहे अरविंद केजरीवाल ने ये भी कहा है कि अपनी ओर से वो दिल्ली के लोगों की मुश्किल कम करने की पूरी कोशिश करेंगे - अब अगर ऑड-ईवन के हिसाब से गाड़ियां चलेंगी तो महीने भर की चालान की रकम तो वैसे भी कम हो जाएगी.

बाकी सब तो ठीक है, बिजली पानी का बिल, मोहल्ला क्लीनिक और हैपिनेस क्लास भी ठीक है - लेकिन मोदी सरकार 2.0 के प्रति केजरीवाल की सदाशयता और हद से ज्यादा विनम्रता सहज तौर पर तो समझ में नहीं ही आ रही है. आखिर पांच साल में ऐसा क्या हो गया है कि अरविंद केजरीवाल को भी डर लगने लगा है?

मोदी विरोध से तौबा क्यों?

हाल ही में बीजेपी के सीनियर नेता मुरली मनोहर जोशी ने देश के लिए एक निडर नेता की जरूरत बतायी थी. ऐसा नेता जो बगैर किसी संकोच में पड़े, सीधे सीधे देश के प्रधानमंत्री से सवाल पूछ सके. एक ऐसा नेता जिसे किसी तरह का भय और राजनीतिक परवाह न हो.

क्या मुरली मनोहर जोशी के बयान के पीछे केजरीवाल का 'मोदी विरोध' से यू टर्न लेना भी हो सकता है?

2013 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय स्तर पर उभार के साथ ही अरविंद केजरीवाल भी एक आंदोलनकारी राजनेता के तौर पर उभरे. हालांकि, तब उनका विरोध केंद्र में सत्ताधारी कांग्रेस से रहा. 2014 में जो सत्ता परिवर्तन हुआ उसके बाद केजरीवाल के विरोध का फोकल प्वाइंट पर मोदी सरकार और दिल्ली में एलजी नजीब जंग हो गये - और फिर कालांतर में कुर्सी पर व्यक्ति बदलने के बाद मौजूदा उप राज्यपाल अनिल बैजल.

2019 के आम चुनाव के बाद से ही अरविंद केजरीवाल के रूख में बहुद बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. ये वही अरविंद केजरीवाल हैं जो प्रधानमंत्री मोदो 'कायर' और 'मनोरोगी' बताया करते रहे - लेकिन ऐसा कौन सा चमत्कार हुआ है कि दिल्ली में एलजी भी वही हैं और मुख्यमंत्री भी वही हैं, फिर ऐसी खामोशी और इतना सन्नाटा क्यों लग रहा है?

क्या आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान की तरह केजरीवाल को कोई राजनीतिक ज्ञान प्राप्त हुआ है कि वो बात बात पर मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक व्यवहार छोड़ कर काम पर ध्यान देने लगे हैं. वाई-फाई, मोहल्ला क्लीनिक जैसे चुनावी वादे पूरे करने की कोशिश तो वो पहले भी कर सकते थे - लेकिन उनकी ज्यादातर ऊर्जा उप राज्यपाल से लड़ाई में जाया हुआ करती रही. एक बार तो वो सदल बल पहुंचे और एलजी के दफ्तर में ही धरने पर बैठ गये थे. लोक सभा के चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली में कांग्रेस के साथ गठबंधन की भरपूर कोशिश में लगी थी, लेकिन आखिर में राहुल गांधी पर ठीकरा फोड़ कर आप नेता अकेले चुनाव में जुट गये. नतीजे आये तो मालूम हुआ शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने आप को पीछे तीसरी पोजीशन पर धकेल दिया है. जाहिर है केजरीवाल को इससे बड़ा झटका लगा होगा.

kejriwal with modiकेजरीवाल की नजर में 'मनोरोगी' से महान कैसे बन गये PM मोदी?

लोक सभा का चुनाव केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के नाम पर लड़े थे. चुनाव क्या केजरीवाल ने तो राजनीति की शुरुआत ही लोकपाल बनाने को लेकर लड़ाई के साथ की - हैरानी की बात ये है कि अब न तो आप नेताओं के मुंह से लोकपाल सुनने को मिलता है और न ही आज कर दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा. मुमकिन है टीम केजरीवाल ने बीजेपी की झोली में दिल्ली की सातों सीटों का भर दिया जाना पूर्ण राज्य पर जनमत संग्रह की तरह स्वीकार कर लिया हो.

कहीं ऐसा तो नहीं कि केजरीवाल एंड कंपनी दिल्ली के नतीजे और देश भर में कांग्रेस की हार से सबक लेने का फैसला किया है?

राफेल डील को लेकर राहुल गांधी 2018 के विधानसभा और फिर 2019 के लोक सभा चुनाव के दौरान जहां भी जाते 'चौकीदार चोर है' के नारे लगाते और लोगों से भी लगवाते - लेकिन दांव उलटा पड़ गया. आम चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. चुनावों से पहले तो विपक्ष थोड़ा बहुत एकजुट भी नजर आता रहा, 23 मई के बाद तो जैसे बिखर कर औंधे मुंह जा गिरा. विपक्षी खेमे के लिए एक बड़ा नुकसान राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ना भी रहा जिसका खामियाजा कांग्रेस लगातार भुगत रही है और सोनिया गांधी के कमान हाथ में लेने के बावजूद कोई उज्ज्वल किरण दूर दूर तक दिखायी नहीं दे रही है.

क्या केजरीवाल को भी लगने लगा है मोदी विरोध उनके लिए भी दीवार से सिर टकराने जैसा हो सकता है. दीवार तो दिनों दिन मजबूत होती जा रही है, सिर तो सिर है क्या पता कब तक बर्दाश्त कर पाये?

कहीं विपक्ष की राजनीति में आये बदलाव का असर तो नहीं?

धारा 370 के खत्म होने का सीधा असर तो जम्मू-कश्मीर में हुआ है, लेकिन परोक्ष रूप से विपक्षी खेमे पर पूरा प्रभाव नजर आ रहा है. राज्य सभा में बहुमत में न होने के बावजूद मोदी-शाह की टीम ने जिस तरह पूरे विपक्ष को इशारों पर नचाया वो विपक्षी राजनीति के लिए सत्ता पक्ष का वर्चुअल हथौड़ा ही साबित हुआ. खुला विरोध करने वाली कांग्रेस को स्टैंड में संसोधन करना पड़ा. जेडीयू नेता तो कहने लगे कि अब जब कानून बन ही गया तो विरोध क्या करना.

वाकई खेल तो सारा मैंडेट का ही है. अगर संसद में बहुमत की ताकत के बूते जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बांट कर केंद्र शासित क्षेत्र घोषित किया जा सकता है तो क्या दिल्ली के साथ कुछ नहीं हो सकता? ऐसे में जब न तो किसी राजनीतिक विरोध का कोई मतलब है न विरोध का कोई असर है, राजनीतिक फायदे के लिए क्या दिल्ली को चंडीगढ़ या लद्दाख जैसा नहीं बनाया जा सकता. कहा तो यही जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर पर भी फैसला तात्कालिक और अस्थायी है - सिर्फ कुछ दिनों के लिए. ये बात अलग है कि कुछ दिनों की कोई सीमा तय नहीं है.

क्या अरविंद केजरीवाल को ऐसे भी किसी पॉलिटिकल एक्शन का डर सता रहा है?

या फिर दिल्ली के उपचुनावों, MCD चुनाव और लोक सभा में हार जैसा ख्याल हावी हो रहा है? 2015 के बाद से अरविंद केजरीवाल ले देकर बवाना उपचुनाव में ही ढंग की कामयाबी मिल पायी थी.

दिल्ली में बिजली और पानी के बिलों में लोगों को बड़ी राहत देने के बाद अरविंद केजरीवाल फिर से ODD-EVEN लेकर आ रहे हैं - सवाल है कि ये किसके लिए फायदेमंद है?

केजरीवाल ने दिल्ली में प्रदूषण पर काबू पाने के लिए 7 सूत्री कार्यक्रम तैयार किया है. नीतीश कुमार ने जेडीयू के चुनावी वादे पूरे करने के लिए सात निश्चय पर सख्ती से अमल किया था.

ऑड-ईवन स्कीम की घोषणा करते हुए अरविंद केजरीवाल ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा, 'सुझावों और चर्चा के आधार पर हमने सात सूत्री एक्शन प्लान बनाया है, जिसे हम पराली प्रदूषण एक्शन प्लान कह रहे हैं. 4 से 15 नवंबर तक दिल्ली में ऑड-इवन लागू किया जाएगा. ऑड-इवन पर हुए शोध से पता चलता है कि इससे 10 से 13 फीसदी प्रदूषण कम होता है."

लेकिन केजरीवाल के खिलाफ राजनीति करने वाले इस कदम में अलग चाल देखते हैं. दो साल मुख्यमंत्री रहे और दिल्ली के बड़े बीजेपी नेता रहे मदनलाल खुराना के बेटे हरीश खुराना को ऑड-ईवन के पीछे छिपे हुआ पब्लिसिटी का मंसूबा नजर आता है. दिल्ली बीजेपी के प्रवक्ता हरीश खुराना इसे केजरीवाल का नये तरीके का पब्लिसिटी स्टंट बता रहे हैं.

बीते वक्त में केजरीवाल विज्ञापनों पर बेतहाशा खर्च करने के लिए भी राजनीतिक विरोधियों के हमलों के शिकार रहे हैं - तो क्या वास्तव में ये कोई सुरक्षित प्रचार का तरीका है?

वैसे भी सोशल विज्ञापन काम के तो होते ही हैं. विरोधियों के लिए सीधे सीधे कुछ कहना मुश्किल होता है. कहने को तो सारी जानकारी जनहित में दे दी जाती है - लेकिन जानकारी देने वाले का चेहरा तो बार बार देखने को मिल ही जाता है. बार बार कोई चीज दिखे तो वो दर्शक के मन-मस्तिष्क पर छवि बना लेती है - जो फिर जल्दी मिटती भी नहीं है. हाल फिलहाल डेंगू को लेकर भी केजरीवाल के विज्ञापन लगातार चल रहे हैं.

नितिन गडकरी को निजी तौर पर अरविंद केजरीवाल वैसा ही नेता मानते हैं जैसा कभी विपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के बीजेपी में होने को लेकर कहा करता था - एक अच्छा नेता एक बुरी पार्टी में. गडकरी का केजरीवाल उस वाकये के लिए भी अहसान मानते हैं जब गडकरी ने आप नेता का एक सरकारी कार्यक्रम में मजाक उड़ा रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं को डपट कर चुप करा दिया था.

मुश्किल ये है कि नितित गडकरी भी दिल्ली में ऑड-ईवन के पक्ष में नहीं हैं. गडकरी का कहना है कि दिल्ली में प्रदूषण अभी काफी कम है. वो मानते हैं कि दिल्ली में जब से रिंग रोड बनी है, ईस्टर्न-वेस्टर्न पेरिफरल एक्सप्रेस-वे बने हैं, तब से प्रदूषण घटा है - अगले दो साल में दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने की केंद्र सरकार की योजना है.

सियासी साथियों का साथ छोड़ना भी केजरीवाल को निश्चित तौर पर डरा ही रहा होगा. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को आप से बाहर किया जाना और कुमार विश्वास जैसे साथी अगल रास्ता अख्तियार कर लेना, कई नेताओं के बीजेपी ज्वाइन कर लेना और अब अलका लांबा का भी आप को बॉय बोल देना - ये सब डराने के लिए कम हैं क्या? संसदीय सचिवों के मामले से लेकर दिल्ली में ऐसे कई मौके आये जब अलका लांबा भीड़ का नेतृत्व करती नजर आयीं. ये भी सही है कि राजीव गांधी को मिले भारत रत्न के मुद्दे पर दोनों में गर्मागर्म बहस भी हुई और अलका केजरीवाल की आंख की किरकिरी बन गयीं. फिर भी पार्टी का लगातार कमजोर होते जाना भी डराता तो है ही.

क्या केजरीवाल को ऐसा लगने लगा है कि मोदी विरोध का अभ्यास 2020 के विधानसभा चुनाव में भी आम चुनाव न साबित हो जाये?

निजी हमलों का खामियाजा तो दिल्ली में बीजेपी भी भुगत ही चुकी है. 2015 के चुनाव में बीजेपी की हार की बड़ी वजह किरन बेदी की पैराशूट एंट्री तो रही ही, केजरीवाल के गोत्र पर सवाल उठाना और फिर अखबारों में विज्ञापन दिया जाना भी लोगों को रास नहीं आया. वरना, आम चुनाव में प्रचंड मोदी लहर और उसके बाद के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की जीत पर ब्रेक क्यों लग गया? दिल्ली के ठीक बाद बिहार चुनाव में बीजेपी ने केजरीवाल के गोत्र पर सवाल उठाने वाले अंदाज में नीतीश कुमार के डीएनए पर ही सवाल खड़े कर दिये और हार कर खामियाजा भी लगातार दूसरी बार भुगत लिया.

क्या केजरीवाल का डर सिर्फ इतना ही है या फिर राजनीतिक अक्ल की दाढ़ निकल आयी है - राजनीतिक लड़ाइयां अपनी जगह हैं, जिम्मेदारी मिली है तो काम तो करना ही पड़ेगा.

वैसे भी केजरीवाल एक बार दिल्ली के लोगों से माफी मांग चुके हैं. बार बार माफी मांगने भर से 70 में से 67 सीटें नहीं मिला करतीं. निश्चित तौर पर केजरीवाल और उनके साथी अच्छी तरह जानते होंगे - तभी तो अरविंद केजरीवाल को भी विपक्ष के दूसरे नेताओं की तरह डर लगने लगा है. अब केजरीवाल को कांग्रेस नेतृत्व की तरह जेल का डर तो नहीं ही सता रहा होगा, लेकिन ममता बनर्जी की तरह साथियों को बचाना तो नामुमकिन लग ही रहा होगा. वैसे भी जब से बीजेपी अमित शाह केंद्र सरकार में पहुंचे हैं, बार बार एक ही संकेत दे रहे हैं - मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है. अगर अरविंद केजरीवाल को भी डर लगता है तो स्वाभाविक ही है.

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