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Updated: 28 जनवरी, 2022 11:39 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिम उत्तर प्रदेश को लेकर चार बड़े सवाल अभी भी लोगों की दिलचस्पी में हैं. 1) क्या जाट जयंत चौधरी के साथ खड़े होंगे. 2) क्या जयंत चौधरी जाटों का वोट सपा को ट्रांसफर करवा पाएंगे. 3) क्या भाजपा को भी जाटों का वोट मिलेगा और 3) सबसे बड़ा सवाल कि क्या मुसलमान भाजपा को हराने के लिए सिर्फ सपा के साथ ही जा रहा है या उसके पास कोई और ठोस विकल्प है. असल में देखा जाए तो इन्हीं चार सवालों में पश्चिम के सियासी तिलिस्म की कुंजी छिपी है और हालिया राजनीतिक गतिविधियों में सवालों के असर और भविष्य के जवाब की झलक मिलती है.

इसमें कोई शक नहीं कि 2014, 2017 और 2019 में भाजपा को जीत दिलाने वाले जाट मौजूदा वक्त सबसे बड़ा 'सेंटर टाकिंग पॉइंट' हैं. आज की तारीख में भाजपा की वापसी के लिए उसे जाटों के एक बड़े हिस्से की सख्त दरकार है. और इसके लिए भाजपा ने अपने इतिहास के सबसे बड़े चुनावी रणनीतिकार को सीधे मोर्चे पर लगाया है. लगभग आख़िरी वक्त में आए अमित शाह को आज की तारीख में पश्चिम में गलियों की ख़ाक तक छाननी पड़ रही है.

यह साफ हो चुका है कि पश्चिम में अब तक भाजपा के खिलाफ विपक्ष हावी था और जातीय-धार्मिक समीकरण के लिहाज से अखिलेश यादव के नेतृत्व में उनका गठबंधन बहुत आगे भी नजर आने लगा था. लेकिन जैसे-जैसे पहले और दूसरे चरण के मतदान की तारीखें नजदीक आ रही हैं- तस्वीर बदलती दिख रही है. शाह के आने के बाद उनके हथकंडे काम करने लगे हैं. शह-मात के खेल में उन्हें उस्ताद माना जाता है और इसकी बानगी में आगे बढ़े उनके मोहरों को देखा जा सकता है.

amit_akhilesh_650_012822092231.jpgअमित शाह अखिलेश यादव.

क्या अमित शाह ने पश्चिम में चुनाव को यूटर्न दे दिया है?

अमित शाह भलीभांति जानते हैं कि जाटों का सबसे बड़ा हिस्सा इस वक्त जयंत चौधरी के पीछे खड़ा है. यही वजह है कि उन्होंने दिल्ली में जाट नेताओं के साथ एक बड़ी बैठक में सीधे जयंत चौधरी उनके दादा चौधरी चरण सिंह के बहाने जाटों से भावुक अपील की. कहने का मतलब यह कि उन्होंने जाटों की नाराजगी को "घर का झगड़ा" करार दिया और कहा कि नाराजगी है तो हमसे झगड़ा करिए. हम बात करने को तैयार हैं. किसी और के (सपा और मुसलमान) पास जाने की क्या जरूरत है? जैसे शाह परिवार के मुखिया के नाते कह रहे हैं- "मैं हूं ना." उनके कहने का असर बाद की बात है लेकिन.

कुल मिलाकर अमित शाह संकेतों में जाटों को लेकर भाजपा की ओर से गलतियां स्वीकार कर रहे हैं. और इसके तहत उन्होंने एक ऐसा मोहरा आगे बढ़ा दिया है जो कई महीनों से चर्चा में रहा और इसके दोतरफा असर हैं. अमित शाह की यह अपील असल में पश्चिम की राजनीति में बहुत बड़ा टर्निंग पॉइंट माना जा सकता है. अखिलेश को इसका अंदाजा होगा. पश्चिम में कई राउंड की सक्रियता के बाद शाह का बयान उस वक्त आया है जब प्राय: सभी दलों के उम्मीदवारों के नाम उजागर हो चुके हैं. लिस्ट आने के बाद स्थानीय समीकरण में भी थोड़ा बहुत फेरबदल दिखा है. अब निर्णायक लड़ाई के लिए मोर्चेबंदी और मुद्दे बन रहे हैं. रही बात घोषणापत्र की तो वह पत्रकारों के की चीजें हैं. व्यापक मतदाता भला इसपर ध्यान देकर कब वोट करता दिखा है.

मुस्लिम गोलबंदी क्यों पश्चिम में भाजपा विरोध को कुंद कर रही है? जाटों को लेकर शाह के बयान के बाद चीजों का विश्लेषण करें तो अब तक पश्चिम की सियासी गणित में एकतरफा जीत की ओर बढ़ता दिख रहा अखिलेश का गठबंधन, चुनौतियों में फंसता दिख रहा है. राजनीतिक चक्रव्यूह में. इसकी वजहें हैं. पहला- चुनाव की घोषणा के बाद सबसे ज्यादा धार्मिक ध्रुवीकरण मुसलामनों के बीच दिखा. यहां तक कि मुस्लिम बुद्धिजीवी भी भाजपा को हराने के लिए सपा के पक्ष में माहौल बनाते देखें जा सकते हैं. यूपी की राजनीति से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं रखने वाले मुस्लिम नेताओं ने भी अपने समुदाय से भाजपा को रोकने की अपील की. महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं का बयान अखिलेश को फायदा पहुंचाने की बजाय मुश्किल खड़ा कर रहा है.

दूसरा- कई मुस्लिम कट्टरपंथी नेताओं ने भी खुलेआम अखिलेश को सपोर्ट किया. जबकि ओवैसी के प्रति संवेदना रखने के बावजूद ज्यादातर मुसलमान सिर्फ़ भाजपा को रोकने के लिए सपा के पक्ष में खड़े होने की दरकार बता रहा है. तीसरा- जाट ही नहीं पश्चिम में बहुतायत हिंदुओं का किसान समुदाय भाजपा से नाराजगी दिखा रहा था. मुसलमानों ने जिस तरह से भाजपा के खिलाफ लामबंदी दिखाई है कि उसकी प्रतिक्रया में नाराज हिंदुओं के वोट भाजपा के साथ वापस आने के संकेत देने लगे हैं. भाजपा इसे भुनाने के लिए सपा के मुस्लिम उम्मीदवारों के चेहरे को बार बार दोहरा रही है.

अमित शाह ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं, अखिलेश के पास इसकी काट नहीं

जाट भले नाराज हो, लेकिन यह सच्चाई भी है कि भाजपा के पास अभी भी जाटों का ठीकठाक आधार जुड़ा हुआ है. भले ही वह पार्टी के मजबूत जाट नेताओं की वजह से हो. चुनाव की घोषणा से पहले ही कई जाट नेता जमीन पर महीनों से काम कर रहे हैं. जिन विधानसभा सीटों में संगीत सोम जैसे ताकतवर उम्मीदवार हैं वहां जाटों की नाराजगी का कोई मायने नजर नहीं आ रहा. एक बात साफ़ है- अमित शाह के बयान का तीर एक साथ दो दो निशाने भेद रहा है. वे जाट मतों के बंटवारे को लेकर लकीर खींच रहे हैं. उनके बयान का एक मकसद- जाटों को रालोद के साथ जाने, मगर सपा के साथ नहीं जाने देने को लेकर है तो दूसरा- मुसलमानों को कन्फ्यूज भी कर रहे हैं. उनका ऑफर जिस तरह आया है वह रालोद को मिलने वाले मुसलमान मतों को सशंकित कर सकता है. शाह का बयान और जाटों को लेकर उनकी हालिया कोशिश साफ़ साफ़ इशारा कर रही हैं कि यह राजनीतिक रूप से कितना महत्वपूर्ण है.

वैसे भी जाट लगातार आरोप लगाते आए हैं कि सपा सरकार में दंगों के दौरान अखिलेश सरकार मुसलमानों के साथ खड़ी रही. सपा को लेकर जाटों में नाराजगी है. किसान आंदोलन को छोड़ दिया जाए तो जाट दूसरे मुद्दों की वजह से भाजपा से सिम्पैथी रखते पाए जाते हैं. अभी भी जाट, मुसलमान पक्षधरता की वजह से सपा को शक की निगाहों से ही देखते हैं. अगर जाटों का वोट ट्रांसफर नहीं होता तो सीधा सीधा मतलब है कि सपा को नुकसान पहुंचेगा. दूसरा- चुनाव बाद लगातार जयंत चौधरी समेत तमाम छोटे दलों के पाला बदलने की चर्चा शुरू है. गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा ने जिस तरह चुनाव बाद सरकारें बनाई हैं- वह भी इसे बल प्रदान करता दिखरहा है. पश्चिम में मुसलमान पहले से ही जयंत चौधरी को लेकर आशंकित हैं जो भाजपा के साथ रह चुके हैं. हो सकता है कि मुस्लिम मतों के फ्रंट पर रालोद को भी वैसा ही नुकसान उठाना पड़े जैसा जाट मतों के फ्रंट पर सपा को हो सकता है.

निर्णायक दौर में शाह ने जो मोहरा आगे बढ़ाया है सपा उसकी संवेदनशीलता को समझती है. शायद यही वजह है कि उसने जाटों में नाराजगी ना पनपे इसके लिए कई मुस्लिम बहुल सीटों पर भी (खासकर मुजफ्फरनगर में) मुस्लिम उम्मीदवार उतारने से परहेज किया. इसे पश्चिम की सियासी जमीन पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बहुसंख्यकों की राजनीति का दबाव भी मान सकते हैं. यानी पश्चिम में जो राजनीतिक चक्रव्यूह दिख रहा है अभी भी उसपर सबसे तगड़ा नियंत्रण भाजपा का ही माना जा सकता है. अब सवाल है कि जहां जाट सपा को वोट नहीं करेंगे और जहां मुसलमान रालोद के साथ नहीं जाएंगे, उनके आगे क्या राजनीतिक विकल्प होंगे और फिर तस्वीर किस तरह बनेगी?

बसपा के लिए दो चीजें बन चुकी हैं लाइफलाइन

जाटों के पास भाजपा और बसपा के रूप में दो विकल्प हो सकते हैं. हालांकि खूब मुस्लिम उम्मीदवार उतारने वाली बसपा की बजाय भाजपा ही जाटों का ठिकाना बने इसकी संभावना ज्यादा है. जहां तक मुसलमान मतों की बात है उसके सामने बसपा और ओवैसी के रूप में दो विकल्प हैं. वैसे इस बात का अभी ध्यान रखना चाहिए कि पश्चिम में सपा के टिकट पर अबकी बार कम मात्रा में मुस्लिम चेहरे उतारे गए हैं. सपा के लिए यह उलटा साबित हो सकता है. ये दो चीजें बसपा के लिए लाइफलाइन साबित हो सकती हैं. दरअसल, बसपा ने पहले दो चरणों के लिए बड़े पैमाने पर मुस्लिम चेहरों को मैदान में उतारा है. बसपा ने जातीय समीकरण भी साधने की कोशिश की है. टिकट वितरण के बाद की गणित में बसपा, सपा के मुकाबले ज्यादा बीस है.

कुछ वक्त पहले तक मुसलमान सपा के साथ एकतरफा था, मगर मुस्लिम चेहरों की अनदेखी और भाजपा से आए कुछ पुराने हिंदूवादी नेताओं की वजह से अब बिदक भी रहा है. सार्वजनिक रूप से उसकी नाराजगी सामने है. यह भी कि जाटव और मुसलमानों की आबादी पश्चिम में कई सीटों पर भाजपा के मुकाबले स्पष्ट और सीधी जीत का भी फ़ॉर्मूला है. यह वो फ़ॉर्मूला है जो फरवरी के पहले हफ्ते तक मुसलमानों को सबसे ज्यादा आकर्षित कर सकता है. मुसलमान अगर बसपा के साथ जा रहा है तो जाहिर सी बात है कि पश्चिम में सबसे ज्यादा नुकसान सपा को उठाना पड़ सकता है. पहले के मुकाबले भाजपा को भी नुकसान हो रहा है मगर इतना बड़ा नहीं जितनी विपक्ष को उम्मीद थी. जयंत चौधरी, मायावती जरूर बड़ा फायदा पाते दिख रही हैं. पक्ष विपक्ष में जिस तरह शोर है- पश्चिम में कांग्रेस के लिए ज्यादा कुछ नजर नहीं आ रहा.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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