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Updated: 05 अप्रिल, 2018 08:45 PM
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एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किये जाने के नाम पर भारत बंद के दौरान पूरा देश हिंसा की चपेट में रहा. अब 14 अप्रैल को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की 127वीं जयंती पर पूरा देश गुलजार रहने वाला है. पहले दलितों के नाम पर ऐसा हंगामा करो कि दर्जन भर लोग हिंसा की भेंट चढ़ जायें, फिर 12वें दिन दलितों के वोट के लिए जश्न मनाओ. ये दलित वोट बैंक को भुनाने की कोशिश में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.

मालूम हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छत्तीसगढ़ में दलितों और आदिवासियों के साथ अंबेडकर का जन्म दिन मनाएंगे, तो वाम दल संविधान बचाओ दिवस के तौर पर सेलीब्रेट करेंगे. कांग्रेस की ओर से भी अंबेडकर जयंती पहले से भी जोरदार तरीके से मनाने की तैयारी है.

बड़ा बदलाव देखने को मिलने वाला है समाजवादी पार्टी के कार्यक्रम में - जब यूपी में 90 जगह अंबेडकर जयंती के कार्यक्रम होंगे. अंबेडकर जयंती को लेकर बीएसपी भी जोरदार तैयारी कर रही है.

लखनऊ में अखिलेश का कार्यक्रम

2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती शासन में बने अंबेडकर पार्क समाजवादी पार्टी के निशाने पर रहे. बीएसपी की हार के बाद अंबेडकर पार्कों के भविष्य पर सवाल उठने लगे थे, लेकिन कुर्सी संभालने के बाद अखिलेश यादव ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया. हालांकि, 2017 के चुनाव में पार्कों में बने पत्थर के हाथियों को लेकर बीएसपी और उसकी नेता मायावती का खूब मजाक उड़ाया था. अब तो बात, विचार और हालात सब कुछ बदल चुका है.

akhilesh yadav'अंबेडकरवाद बबुआ धीरे धीरे आई...'

अब तक 14 अप्रैल को समाजवादी पार्टी अंबेडकर की मूर्ति पर फूल माला चढ़ाकर रस्म अदायगी किया करती रही, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. इस बार अखिलेश यादव खुद हजरतगंज में अंबेडकर की मूर्ति पर माल्यार्पण करेंगे और पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं को अंबेडकर के बारे में अपनी सोच में आये बदलाव साझा करेंगे.

उत्तर प्रदेश में 90 जगहों पर अंबेडकर जयंती पर समाजवादी पार्टी के कार्यक्रम होंगे. कार्यक्रम में अंबेडकर पर बनी एक शॉर्ट फिल्म दिखायी जाएगी और उनकी बॉयोग्राफी बांटी जाएगी.

अखिलेश यादव को भी राज्य सभा चुनाव में बीएसपी को मदद नहीं कर पाने का मलाल जरूर होगा, उसी की भरपाई के लिए ही अखिलेश यादव ने अंबेडकर जयंती जोर शोर से मनाने का फैसला किया है. वैसे भी हर मौके पर मायावती को खुश करने की अखिलेश यादव पूरी कोशिश करते देखे जा सकते हैं.

विधान परिषद में भरपाई की कोशिश

2017 के विधानसभा चुनावों में भी अखिलेश यादव बीएसपी और मायावती का खूब मजाक उड़ाते थे - 'जो हाथी बैठा है वो बैठा हुआ है. जो खड़ा है वो रसों से खड़ा ही है. जो खड़ा है वो बैठता नहीं, जो बैठा है वो खड़ा नहीं होता. विकास कहां से होगा.'

जब राज्य सभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार की हार हुई तो मायावती ने अखिलेश में अनुभव की कमी बताया. बाद में अखिलेश यादव का बयान आया कि वो मायावती के अनुभव का फायदा भी उठाएंगे.

mayawatiअंबेडकर जयंती पर लौटेगी रौनक...

अखिलेश की तमाम कोशिशों के बावजूद मायावती को अब भी भरोसा नहीं हो पाया है कि समाजवादी पार्टी के वोट बीएसपी को मिल पाएंगे. माना जा रहा था कि फूलपुर और गोरखपुर बीएसपी की मदद से समाजवादी पार्टी के खाते में जाने के बाद मायावती कैराना सीट पर अपने उम्मीदवार उतारेंगी. लगता है राज्य सभा चुनाव में हार के बाद मायावती का मन बदल गया और उन्होंने अपने पुराने फॉर्मूले पर उपचुनावों से दूर रहने का फैसला किया.

इस बीच यूपी विधान परिषद की 13 सीटों के लिए भी चुनाव की घोषणा हो चुकी है. 26 अप्रैल को वोटिंग होगी और उसी दिन शाम पांच बजे के बाद वोटों की गिनती भी होगी. पांच मई, 2018 को अखिलेश यादव सहित 12 एमएलसी के कार्यकाल खत्म हो रहे हैं, जबकि एक सीट पहले से ही खाली है. विधान परिषद चुनाव में भी राज्य सभा की तरह ही लड़ाई दिलचस्प हो सकती है, ऐसा लगता है. यूपी में विधान सभा की 100 सीटें हैं और विधानसभा सदस्यों द्वारा 38 चुने जाते हैं. मौजूदा स्थिति में एक सीट के लिए 31 विधायकों के वोट चाहिये होंगे.

बीजेपी के लिए यूपी की 13 सीटों में से 10 पर जीत तय है और इसके बाद भी उसके पास 21 वोट बचेंगे. समाजवादी पार्टी और बीएसपी मिल कर दो सीटें जीत सकते हैं. अंतरात्मा के आधार पर वोट देने की बात और है, लेकिन आंकड़ों के हिसाब से दो सीटों के बाद भी नौ वोट बचेंगे. ऐसी स्थिति में बीजेपी और विपक्ष दोनों अपने अपने उम्मीदवार उतार देते हैं तो फिर से राज्य सभा चुनाव जैसी जंग देखने को मिल सकती है.

भविष्य में गठबंधन मजबूत बना रहे इसीलिए अखिलेश यादव इतने बड़े पैमाने पर पहली बार अंबेडकर जयंती मनाने जा रहे हैं, विधान परिषद चुनाव में राज्य सभा जैसी बात न हो जाये कि मायावती के सामने अनुभवहीनता साबित हो जाये, कोशिश पूरी होगी.

एक कार्यक्रम में शिवपाल यादव ने समाजवाद और लोहिया के विचारों को लेकर कहा था कि नयी पीढ़ी ठीक से नहीं जानती. चाचा की बातों पर कड़े ऐतराज के साथ अखिलेश यादव का दावा था कि वो सब कुछ जानते हैं लेकिन उनके लिए मुलायम के विचार ज्यादा मायने रखते हैं. ये अच्छा मौका होगा जब अखिलेश यादव समाजवाद और लोहिया के विचारों के साथ अंबेडकर वाद की स्थापना करते दिखेंगे. संभव है चुनावी राजनीति में नये दौर में अंबेडकर के सिद्धांत समाजवाद और लोहियावाद पर भारी नजर आयें. बीएसपी ने तो आजमा लिया है, अब अखिलेश की बारी है कि सोशल इंजीनियरिंग की नयी पैकेजिंग को कैसे लांच करते हैं - और उसके जरिये क्या हासिल कर पाते हैं. असली चुनौती तो बीएसपी उम्मीदवारों को समाजवादी पार्टी का वोट ट्रांसफर होना है.

समाजवादी पार्टी के बदलते मिजाज के बीच गोरख पांडेय की कविता में भी अखिलेश यादव के समर्थक रीमिक्स सुन सकते हैं - "अंबेडरकरवाद बबुआ धीरे धीरे आई, हाथी से आई..."

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