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Updated: 27 नवम्बर, 2022 03:40 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मैनपुरी उपचुनाव का उत्तर प्रदेश की राजनीति पर प्रभाव पड़ना तो पक्का लग रहा है - लेकिन ये अभी ये साफ नहीं है कि ये प्रभाव स्थायी असर डालने वाला है या अस्थायी? मतलब, जो कुछ चल रहा है वो महज मौसमी कवायद तो नहीं है?

यूपी चुनाव 2022 से ठीक पहले अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) खुद चल कर शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) के घर पहुंचे थे. जाहिर है ऐसे किसी के घर कोई जाता है तो अपने घर आने का न्योता भी देता है. ये तो चाचा और भतीजे के बीच की ही बातें थी.

शिवपाल यादव मान भी गये. रूठने मनाने जैसा मामला देर तक चला हो ऐसा भी नहीं लगा. जब टीवी पर शिवपाल यादव के इंटरव्यू आये तो कई बातें समझ में आयीं. शुरू शुरू में तो वो बताते रहे कि सिर्फ साथ चुनाव लड़ना तय हुआ है, बाकी चीजें वक्त के साथ मिल बैठ कर तय की जाएंगी.

बातों बातों में शिवपाल यादव ये भी बता देते रहे कि कम से कम कितनी सीटों पर बात बन सकती है. जब सीटों का बंटवारा हुआ तो शिवपाल यादव बस मन मसोस कर रह गये. अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव को वो सीट दी थी, जिसे जीतने के लिए उनको किसी भी अखिलेश यादव या समाजवादी पार्टी के सिंबल की कतई जरूरत नहीं थी.

शिवपाल यादव को उनके गढ़ से ही विधानसभा पहुंचा कर अखिलेश यादव ने समाजवादी गठबंधन की एक सीट तो बढ़ा ली, लेकिन उसके आगे फिर फुल स्टॉप लगा दिया. पहले तो घर बुलाया और जब पहुंचे तो बाहरी लोगों की तरह हदें दिखा दी.

शिवपाल यादव को तब तो ऐसा ही लगा होगा जैसे अखिलेश यादव ने घर बुलाकर बाहर के बरामदे में बैठने को बोल दिया हो. और वो भी खुद नहीं बल्कि किसी और को भेज कर. शिवपाल यादव ने कोशिशें भी की, लेकिन परिवार ने चुप्पी साध ली - और पार्टी ने सामने नो-एंट्री का बोर्ड लगा दिया.

पहले तो चाचा ने भतीजे को याद भी दिलाने भी कोशिश की कि वो भी उसी घर के रहने वाले हैं. अड्रेस प्रूफ के तौर पर ये भी समझाने की कोशिश की कि चुनाव तो वो समाजवादी पार्टी के सिंबल पर लड़े थे, लेकिन अखिलेश यादव ने सुनना तो दूर अपने आदमियों से कहलवा दिया कि बाहरी लोगों के लिए अलग से इंतजाम किया गया है - जहां ओम प्रकाश राजभर और पल्लवी पटेल होंगी, शिवपाल यादव की भी जगह वहीं है.

शिवपाल यादव समझ गये. देर से ही सही, समझ गये कि धोखा ही नहीं बड़ा धोखा हुआ है - और फिर जो जो मन में आया करते गये. हाथ पांव भी खूब मारे ताकि अखिलेश यादव को सबक सिखा सकें, लेकिन वैसा रिस्पॉन्स नहीं मिला जैसा अपर्णा यादव को मिला. मिलता भी कैसे भला, अपर्णा यादव ने चुनाव से पहले ही कदम बढ़ा दिये थे. हो सकता है शिवपाल यादव को भी यूपी में सत्ता बदलने की उम्मीद हो गयी हो - और नतीजे आने के बाद मोलभाव का इंतजार कर रहे हों.

बिछड़े हुए साथियों को जोड़ बटोर कर अखिलेश यादव ने लड़ाई तो अच्छी लड़ी, लेकिन बहुमत से बहुत दूर रह गये. फिर दिल्ली को छोड़ लखनऊ में डेरा डालने का फैसला किया, लेकिन तभी आजमगढ़ और रामपुर दोनों ही हाथ से निकल गये - और अब मैनपुरी पर बन आयी है. उसी मैनपुरी लोक सभा की करहल विधानसभा सीट से अखिलेश यादव विधायक भी हैं.

डिंपल यादव (Dimple Yadav) के चुनाव लड़ने की चर्चाएं तो आजमगढ़ उपचुनाव के दौरान भी रहीं, लेकिन अखिलेश यादव ने चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को किस्मत आजमाने के लिए भेज दिया. चाहते तो धर्मेंद्र यादव को मैनपुरी लाकर भरपाई भी कर सकते थे या फिर वहीं से सांसद रहे तेज प्रताप यादव को भी आजमा सकते थे - लेकिन अपनी तरफ से डिंपल यादव के रूप में ब्रह्मास्त्र उतार दिया.

shivpal yadav, akhilesh yadav, dimple yadavअखिलेश यादव की तरफ से किये जा रहे कर्मों में कोई कमी तो नहीं लगती - फर्क बस ये है कि फल की इच्छा पहले से ही प्रबल है.

हो सकता है डिंपल यादव को मैनपुरी उपचुनाव में उम्मीदवार बनाने के पीछे शिवपाल यादव भी एक फैक्टर रहे हों. लगा हो, बाकियों के नाम पर भले ही शिवपाल यादव मुंह मोड़ लें, लेकिन डिंपल यादव का मुलायम सिंह यादव की बहू होना ज्यादा असर डाल सकता है.

ये असर तो नजर भी आ रहा है. ये शिवपाल यादव ही बता रहे हैं कि डिंपल यादव के कहने पर ही वो परिवार के साथ लौटे हैं - लेकिन क्या शिवपाल यादव के सामने एक बार फिर 'यूज एंड थ्रो' जैसा खतरा नहीं मंडरा रहा है?

ये परिवार चुनाव बाद भी साथ रहेगा क्या?

मैनपुरी में अखिलेश यादव ने तो डेरा ही डाल रखा है, शिवपाल यादव भी अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं, 'जब हमारे घर की बहू चुनाव मैदान में लड़ रही है, तो हम एक हो गये हैं... हमने अखिलेश यादव से कह भी दिया है एक ही रहेंगे.'

ये सुन कर अखिलेश यादव के मन में तो एक ही शब्द आया होगा - 'ईंशाअल्लाह!'

लेकिन ये भावना मैनपुरी उपचुनाव तक ही बनी रहनेवाली है या आगे भी रहेगी, ऐसे विचार तो शिवपाल यादव के मन भी आते ही होंगे. खास कर यूपी चुनाव के नतीजे आने के बाद जो घटनाक्रम उनके साथ होते रहे, उसके बाद मन में ऐसे ख्याल आना स्वाभाविक भी है.

ये तो सबको पता है कि कैसे मैनपुरी उपचुनाव में चाचा का समर्थन हासिल करने के लिए अखिलेश यादव फिर से वैसे ही शिवपाल यादव के घर गये थे. और कुछ देर बाद डिंपल यादव भी पहुंच गयी थीं - और फिर नये सिरे से परिवार एक साथ मैनपुरी के मैदान में उतर चुका है. मुलाकात की तस्वीरें अखिलेश यादव ने भी शेयर की थी, और शिवपाल यादव ने भी - लेकिन पिछली बार से इस बार अलग अंदाज देखने को मिला.

मुलाकात और उससे पहले का किस्सा चुनाव प्रचार के दौरान शिवपाल यादव खुद सुना रहे हैं, जोर इस बात पर रहता है कि परिवार साथ है - और कोशिश ये भी समझाने की होती है कि आगे भी साथ रहेगा.

शिवपाल यादव बताते हैं, 'बहू डिंपल ने टेलीफोन किया था... चाचा हम चुनाव लड़ेंगे... आ जाओ... एक साथ रहना है... हमने भी कह दिया, तुम गवाह रहना हमारी... अगर अखिलेश गड़बड़ करें तो हमारे साथ ही रहना है.'

चाचा अपनी तरफ से सबको समझाने की कोशिश करते हैं कि सब ठीक हो गया है. परिवार साथ हो गया है. बहू ने प्रॉमिस किया है, अखिलेश यादव अब कुछ गड़बड़ नहीं करेंगे. बात बहू की है, इसलिए भरोसा होगा कि आगे भतीजे ने कुछ गड़बड़ किया तो बहू संभाल लेगी.

चुनाव प्रचार के दौरान शिवपाल यादव डिंपल की उम्मीदवारी को यादव परिवार की प्रतिष्ठा से जोड़ कर पेश कर रहे हैं, 'हम लोग अब एक दो चुनाव और लड़ेंगे, फिर तो लड़के ही लड़ेंगे... हमारी प्रतिष्ठा का सवाल है... नेताजी के न रहने पर हमारी प्रतिष्ठा का चुनाव है, इसलिए हाथ जोड़कर विनती है... सभी लोग आज से लग जाना... ज्यादा से ज्यादा वोट देकर डिंपल को जिताना है.'

न शिष्य न चेला, रघुराज शाक्य सिर्फ बीजेपी के उम्मीदवार हैं: बीजेपी का टिकट मिलने के बाद डिंपल यादव के खिलाफ चुनाव लड़ रहे रघुराज सिंह शाक्य ने शिवपाल यादव को ही अपना राजनीतिक गुरु बताया था - लेकिन शिवपाल यादव उनके दावे को खारिज करने की कोशिश कर रहे हैं.

शिवपाल यादव इलाके के लोगों से कहते हैं, 'बहू के खिलाफ रघुराज सिंह चुनाव लड़ रहे हैं... वो अपनेआप को हमारा शिष्य बताते हैं... तुम शिष्य तो नहीं ही हो, चेला भी नहीं हो... ऐसे छोड़कर चेला भी नहीं जाता... हमने रघुराज को सांसद बनाया और नौकरी भी लगवाई थी... हमको ही धोखा दिया, बिना बताये भाजपा में चले गये.'

रघुराज सिंह शाक्य के बारे में आगे बताते हैं, 'जब रघुराज को टेलीफोन किया कि कहां हो तो बताया कि हम अपना टेस्ट करवाने के लिए गये हैं... तबीयत खराब है. हमने कहा कि हम डॉक्टर को फोन किये दे रहे हैं... लोहिया अस्पताल में मेरे परिचित अच्छे डॉक्टर हैं... मैंने फोन भी किया तो पता लगा कि वो अस्पताल नहीं गये थे. फिर दूसरे दिन भारतीय जनता पार्टी में पहुंच गये.'

न शिष्य न चेला, रघुराज शाक्य सिर्फ बीजेपी के उम्मीदवार हैं: एक बार फिर शिवपाल यादव शिद्दत से चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं. उनकी बातों से लगता है, अब वो अगली पीढ़ी के बारे में सोच रहे हैं.

ये बोल कर कि अब तो बच्चे ही चुनाव लड़ेंगे, शिवपाल यादव ने भविष्य की तरफ इशारा किया है. जाहिर है बेटे आदित्य यादव की ही फिक्र होगी. पहले वाली समाजवादी पार्टी होती तो कोई बात ही न होती. अब जबकि अपने लिए संघर्ष करना पड़ रहा हो, बेटे की फिक्र तो ज्यादा ही होगी. और कुछ हो न हो, जसवंत नगर सीट से कोशिश तो पूरी ही होगी.

अभी जिस तरह का माहौल है, निश्चित तौर पर शिवपाल यादव को ये उम्मीद तो होगी ही कि अखिलेश यादव उनको न सही, आदित्य यादव को तो परिवार का हिस्सा मान ही लें. बशर्ते, ऐसी ही बातें अखिलेश यादव के मन में भी हों.

मायावती भी परदे के पीछे कुछ कर रही हैं क्या?

मैनपुरी उपचुनाव में मायावती ने आजमगढ़ से अलग स्टैंड लिया है. वहां बीएसपी का कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं है. न ही कांग्रेस ने ही मैनपुरी से किसी को टिकट दिया है. ऐसे में मैनपुरी के मैदान में सिर्फ समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच ही मुकाबला हो रहा है. वैसे एक कैंडिडेट NOTA भी तो हर सीट पर रहता ही है.

बीजेपी ने अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के रिश्ते पर कटाक्ष किया है, और मिसाल के तौर उसी में मायावती को भी जोड़ दिया है. बीजेपी नेता सिद्धार्थनाथ सिंह कहते हैं, 'जहां तक चाचा शिवपाल यादव के पैर छूने की बात है... ये पैर छूना भी चुनाव तक ही है... पहले बुआ का साथ लेकर भी चुनाव मैदान में अखिलेश यादव आये थे. चुनाव के दौरान बुआ के भी पैर छू रहे थे, लेकिन चुनाव खत्म हुआ तो, बुआ कहां है और भतीजा कहां है? सबको पता है.

बीजेपी नेता का दावा है कि चुनाव खत्म होने के बाद शिवपाल यादव का भी मायावती जैसा ही हाल होगा, 'चुनाव खत्म होने के बाद चाचा कहां होंगे और अखिलेश यादव कहां पर होंगे?'

जाहिर है अखिलेश यादव को भी बीजेपी नेता की टिप्पणी जरूर सुनायी दी होगी. फिर से शिवपाल यादव के साथ पहले जैसा व्यवहार नहीं करेंगे - लेकिन अगर ऐसा हुआ तो यही मान कर चलना होगा कि खानदानी विरासत को वो राजनीति के ओरिजिनल फॉर्म में ही आगे बढ़ा रहे हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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