New

होम -> सियासत

 |  6-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 21 अप्रिल, 2018 12:17 PM
आईचौक
आईचौक
  @iChowk
  • Total Shares

अखिलेश यादव 26 अप्रैल को मायावती से लिये लोन की पहली किस्त तो चुका देंगे, ये तय है. 26 को उत्तर प्रदेश विधान परिषद की 13 सीटों के लिए चुनाव होने हैं.

दरअसल, अखिलेश यादव राज्य सभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर की हार का प्रायश्चित करने जा रहे हैं. बीएसपी चीफ मायावती द्वारा गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों में मदद के बदले अखिलेश यादव ने विधान परिषद की अपनी ही सीट कुर्बान कर दी है. समझौते के तहत अंबेडकर अब बीएसपी की ओर से विधान परिषद का चुनाव लड़ेंगे.

साथ ही, अखिलेश यादव ने अपनी पुरानी कन्नौज लोक सभा सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा की है. फिलहाल अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव कन्नौज से सांसद हैं. जो सीधे सीधे नजर आ रहा है इसके राजनीतिक मायने भी यही हैं या कुछ और?

दिल्ली दरबार

अखिलेश यादव कहीं केंद्र में दिलचस्पी के चलते राहुल गांधी को नापसंद तो नहीं कर रहे?

ये सवाल आईचौक पर ही पूछा गया था - और अब अखिलेश यादव ने इसका जवाब भी 'हां' में दे दिया है. 2019 में अखिलेश यादव ने डिंपल की कन्नौज सीट से चुनाव लड़ने का ऐलान किया है.

dimple, akhileshडिंपल के हवाले होगा लखनऊ...

जिस वक्त अखिलेश यादव ने डिंपल के चुनाव न लड़ने की बात कही थी, तब से लेकर अब तक राजनीतिक परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं. कांग्रेस से भी समाजवादी पार्टी की सार्वजनिक दूरी अब पहले जैसी नहीं रही. अगर गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार वापस ले लिये होते तो शायद और बेहतर स्थिति होती.

जिस कन्नौज सीट पर सवार होकर अखिलेश यादव 2019 में दिल्ली का सफर तय करने वाले हैं उसका एक कांग्रेस कनेक्शन भी है. दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकीं शीला दीक्षित 1984 में इसी सीट से लोक सभा पहुंची थीं. 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन होने से पहले तक यूपी में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार भी रहीं.

कन्नौज सीट अखिलेश यादव को इतनी प्यारी होने की कई वजहें हैं. यही वो सीट है जो पिता से उन्हें तोहफे में मिली थी और फिर राज बब्बर से हार चुकीं डिंपल को उन्होंने गिफ्ट किया था. बदले हालात में अखिलेश एक बार फिर कन्नौज का रुख कर रहे हैं. अखिलेश 12 साल तक कन्नौज से सांसद रहे हैं और 2012 में मुख्यमंत्री बन जाने के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. तभी से डिंपल ने इसे पूरे जतन से संभाल कर रखा हुआ है.

लखनऊ की सियासत

जिस हिसाब से बीजेपी यूपी की सात वीआईपी सीटों पर झपट्टा मार कर टूट पड़ रही है - अखिलेश के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि कन्नौज सीट कम से कम हाथ से न जाने दें. 2014 में जब समाजवादी पार्टी के पास परिवार की पांच सीटें आईं तभी चर्चा रही कि आखिर ऐसा कैसे हुआ कि बाकी सब हार गये और पूरा परिवार जीत गया. 2019 में बीजेपी मुलायम परिवार की पांचों सीटों के साथ साथ गांधी परिवार की अमेठी और बरेली भी हथियाना चाह रही है.

राजनीतिक हालात बताते हैं कि लखनऊ में अखिलेश यादव के बने रहने का बहुत ज्यादा मतलब नहीं रह गया है. अखिलेश के कन्नौज सीट से चुनाव लड़ कर दिल्ली पहुंचने की कोशिश में मौके भी हैं और मजबूरी भी.

1. दिल्ली में मुलायम सिंह यादव की राजनीति अब बस इतनी ही बची लगती है कि विपक्ष के संसद बायकॉट की स्थिति में परिवार के सदस्यों के साथ सदन में खामोश होकर बैठे रहें. अखिलेश यादव के साथ प्लस प्वाइंट है कि उन्हें मुलायम सिंह की तरह केंद्र सरकार पर सीबीआई के नाम पर धमकाने का आरोप लगाने की नौबत नहीं आने वाली. समाजवादी पार्टी में मुलायम से सारी ताकत छीन चुके अखिलेश यादव अब दिल्ली में उन्हें रिप्लेस कर केंद्र की राजनीति का नये सिरे से अनुभव ले सकते हैं. अखिलेश के लिए ये एक महत्वपूर्ण मौका है.

2. समाजवादी पार्टी सत्ता से भले ही बेदखल हो गयी हो, लेकिन शिवपाल यादव का खतरा पार्टी पर पहले की ही तरह मंडरा रहा है. चाचा भतीजे के बीच समझौते की स्थिति में कई बार एक केंद्र में और दूसरा राज्य में जैसे फॉर्मूले बीच बचाव करने वाले सुझाते रहे हैं. बड़ी ही मजबूरी की बात अलग है वरना अखिलेश अगर केंद्र की राजनीति में शिफ्ट होने का फैसला करते हैं तो लखनऊ की जिम्मेदारी आसानी से डिंपल के हवाले कर सकते हैं. जब खुद दिल्ली में रहेंगे तो शिवपाल को कोई मौका मिलने से रहा.

3. अखिलेश यादव के सामने मौकों के साथ साथ मजबूरी भी है - गठबंधन की मजबूरी. यूपी में अब चुनाव 2022 में होने हैं. आम चुनाव के बाद कम से कम तीन साल का मौका रहेगा. ऐसे में दिल्ली रह कर लखनऊ की भी तैयारी में अखिलेश के सामने शायद ही मुश्किल आये.

mayawatiअगर मायावती कुर्सी पर बैठीं तो?

सबसे बड़ी बात है कि अगर समाजवादी पार्टी और बीएसपी के गठबंधन के बाद अखिलेश खुद मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में नहीं होते लखनऊ रह कर भी क्या करेंगे? अगर हालात साथ दिये तो इस्तीफा देकर कभी भी कुर्सी संभाल सकते हैं. विधानसभा का चुनाव लड़ने की भी जरूरत नहीं. आवश्यकता पड़ी तो कोई विधान परिषद सदस्य सीट खाली कर देगा. जब बीजेपी नेताओं के समाजवादी पार्टी वाले ऐसा कर सकते हैं तो अखिलेश तो अपने ही हैं.

मायावती अगर मजबूत होकर उभरीं तो समाजवादी पार्टी सपोर्ट करेगी - मुख्यमंत्री तो मायावती ही बनेंगी. अगर छह छह महीने या ढाई ढाई साल जैसा कोई समझौता न हुआ तो. फिर अखिलेश यादव के लखनऊ में बने रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता.

2012 का चुनाव हारने के बाद मायावती ने दिल्ली शिफ्ट होने का फैसला किया - और 2014 के नतीजे आने के बाद फिर से लखनऊ में सक्रिय होने का. अखिलेश यादव के पास भी कुछ ऐसा ही मौका है. काफी हद तक मायावती की ही तरह अखिलेश यादव भी लखनऊ और दिल्ली में सामन्जस्य स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं - यही अखिलेश की मजबूरी भी है और राजनीति में बड़ा मौका भी. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से मुलायम सिंह की विदाई के बाद केंद्रीय राजनीति से भी उनका पत्ता साफ ही समझा जाना चाहिये.

इन्हें भी पढ़ें :

हाथी के दांत जैसा ही है 2019 के लिए अखिलेश-मायावती गठबंधन

माया-अखिलेश के गैर-बीजेपी मोर्चे में कांग्रेस की भी कोई जगह है या नहीं

मायावती का फिर से जीरो पर आउट हो जाना उनके लिए आखिरी अलर्ट है

लेखक

आईचौक आईचौक @ichowk

इंडिया टुडे ग्रुप का ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय