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Updated: 03 फरवरी, 2017 05:21 PM
शिवानन्द द्विवेदी
शिवानन्द द्विवेदी
  @shiva.sahar
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए सपा-कांग्रेस गठबंधन ने अपना घोषणा पत्र तो भाजपा ने अपना संकल्प पत्र जनता के बीच रख दिया है. बहुजन समाज पार्टी ने बिना किसी घोषणा पत्र के चुनाव में उतरने का फैसला किया है. पिछले कुछ कालखंडों में घोषणा पत्रों को लेकर आम जनता के मन में एक स्वाभाविक धारणा विकसित हुई है कि यह चुनावी वायदों का एक ऐसा कागजी दस्तावेज होता है जो राजनीतिक दलों द्वारा कभी पूरा नहीं किया जाता. इस धारणा के विकसित होने के पीछे लंबे समय तक सत्ता में रहे राजनीतिक दलों की घोषणा पत्रों के प्रति जवाबदेही का न होना, एक बड़ा कारण है. चाहे केंद्र में लंबे समय तक कांग्रेस की सरकार रही हो अथवा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की सरकार रही हो, घोषणा पत्रों के प्रति जवाबदेही का अभाव देखा गया है.

इंदिरा गांधी कहती थीं ‘गरीबी हटाओ’, लेकिन गरीबी आज भी कायम है. जबकि उनके बाद भी कांग्रेस का शासन लंबे समय तक रहा है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी तो आज भी गरीबों और गरीबी की रट लगाते रहते हैं. ऐसे में बड़ा सवाल राहुल गांधी से ही है कि क्या गरीबी को न हटा पाने में अपनी पिछली सरकारों की असफलताओं और खोखले घोषणा पत्रों को वे आज जवाबदेही के साथ स्वीकार करने का साहस रखते हैं ?  उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार पिछले पांच साल से है. इसके पहले 2007 से 2012 बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी और उसके पूर्व 2003 से 2007 तक समाजवादी पार्टी की सरकार थी. अर्थात, उत्तर प्रदेश की जनता पिछले पन्द्रह वर्षों से सपा और बसपा द्वारा किए जा रहे वायदों के मकड़जाल में उलझी नजर आ रही है.

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अगर 2012 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी द्वारा उत्तर प्रदेश की जनता के बीच रखे गए घोषणा पत्र का आज पांच साल बाद मूल्यांकन करें तो ऐसा लगता है मानो समाजवादी पार्टी ने लगभग 2012 के घोषणा पत्र को ही एकबार फिर 2017 के चुनाव में रख दिया हो. इसका आशय यह निकलता है कि समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार प्रदेश की जनता से किए अपने पिछले वादों को पूरा कर पाने में असफल रही है.

पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने दसवीं के छात्रों को टेबलेट और बारहवीं के छात्रों को लेपटॉप देने का वादा किया था. इस वादे को पूरी तरह से जमीन पर उतारने में अखिलेश यादव की सरकार विफल रही है. चूंकि दसवीं के छात्रों को टेबलेट देने का काम शुरू भी नहीं हुआ और इसे सरकार ने ठण्डे बस्ते में डाल दिया था. वहीं लेपटॉप का वादा चुनाव जीतने के बाद एक साल तक तो चला उसके बाद ठप हो गया. इसका लाभ भी महज एक सत्र के कुछ छात्रों को तो मिला, लेकिन उसमे भी भारी गड़बड़ियों और भेद-भाव की बात सामने आई. शेष वर्षों के छात्र आज भी उस वादे से महरूम हैं.

akhilesh-lappy_020317022102.jpgअखिलेश यादव ने सपा के घोषणा पत्र में लैपटॉप के वादे को एकबार फिर दोहराया है

ऐसे में सवाल उठता है कि जिस योजना को अपनी पिछली सरकार में अखिलेश यादव पूरा नहीं कर पाए, उसी योजना को दुबारा घोषणा पत्र में किस आधार पर जगह दे रहे हैं ? राजनीति में ट्रैक रिकॉर्ड काफी मायने रखता है और ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर ही  सरकारों और राजनेताओं का मूल्यांकन किया जाता है. अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी सरकार का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड वादों को पूरा कर पाने के मामले में बेहद निराशाजनक नजर आता है. सुधार की दृष्टि से भ्रष्टाचार, अपराध, महिलाओं के साथ हिंसा, उत्तर प्रदेश की कृषि विकास की बदहाल स्थिति, व्यापार में सुगमता की रैंकिंग में गिरावट आदि के मानकों पर अखिलेश यादव की सरकार अपनी घोषणाओं के अनुरूप काम कर पाने में असफल नजर आती है. शायद यही वजह है कि वर्तमान के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव अकेले चुनाव मैदान में जाने को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाए और उन्होंने उत्तर प्रदेश में बेहद कमजोर हो चुकी कांग्रेस को 105 सीटें देकर समझौता किया.

दरअसल चुनाव नजदीक आते-आते अखिलेश का खुद पर विश्वास डगमगा रहा था और कांग्रेस के पास कुछ खोने के लिए कुछ बचा नहीं था, लिहाजा मजबूरी के इस गठबंधन में दोनों ने एक दूसरे को कंधा देने की साझ बनाई. वरना तीन महीने पहले तक 27साल यूपी बेहाल का नारा लगाने वाले कांग्रेसी उपाध्यक्ष राहुल गांधी “यूपी को ये साथ पसंद है’ क्यों कह रहे होते ? राजनीति की साधारण समझ रखने वाला भी इस बात को समझ सकता है कि यहाँ मामला यूपी की पसंद-नापसंद का नहीं बल्कि अपनी असफलताओं से डरकर एक-दूसरे की आड़ लेकर बचने का है.

भारतीय राजनीति में यह अवसर पता नहीं पहले कभी आया है कि नहीं लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि सभी मिलजुलकर, एका बनाकर एक ऐसे राजनीति दल को उत्तर प्रदेश में हराने की बात कर रहे हैं जो पिछले पंद्रह वर्षों से प्रदेश की सत्ता में ही नहीं है. तुलनात्मक रूप से देखें तो भाजपा को प्रदेश में सत्ता में रहने का कम अवसर मिला है और पिछले पंद्रह वर्षों में तो बिलकुल भी नहीं मिला है. लिहाजा प्रदेश को लेकर जवाबदेही उनकी है जिन्होंने प्रदेश में सत्ता चलाई है. भाजपा ने भी उत्तर प्रदेश की जनता के सामने अपना संकल्प पत्र रखा है. इस संकल्प पत्र में अन्त्योदय की अवधारणा को केंद्र में रखा गया है. कतार के अंतिम व्यक्ति की बेहतरी के लिए भाजपा ने नौ संकल्पों को तरजीह दी है. जिसमे कृषि विकास, भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त शासन, युवाओं को रोजगार, शिक्षा की गुणवत्ता, गरीबी से मुक्ति, बुनियादी विकास, उद्योग एवं व्यापार, नारी सम्मान और स्वास्थ्य को प्रमुखता से जगह दी गयी है. प्रथम दृष्टया अगर संकल्प पत्र के नाम से जारी घोषणाओं के इस दस्तावेज को देखें तो यह वायदों का पिटारा तो लगता है लेकिन इसमें अतिरेक नहीं नजर आता है.

भाजपा द्वारा इस संकल्प पत्र को जारी करने के बाद अखिलेश यादव ने कहा कि भाजपा ने हमारी कॉपी की है. शायद उन्होंने मुफ्त लेपटॉप के सन्दर्भ में यह बात कही हो, क्योंकि भाजपा ने भी अपने संकल्प पत्र में मुफ्त लेपटॉप और इंटरनेट देने की बात कही है. दरअसल महत्वपूर्ण यह नहीं है कि दो अलग-अलग दलों द्वारा की गयी घोषणाओं में समानता क्या है. महत्वपूर्ण यह है कि घोषणाओं को अमली जामा पहनाने में ट्रेक रिकॉर्ड किसका ठीक है. चूंकि लेपटॉप और टेबलेट वाले वादे पर ही अगर देखें तो अखिलेश यादव की सरकार असफल साबित हो चुकी है. अगर भाजपा लेपटॉप को सही ढंग से छात्रों को दे पाने में कामयाब होती है तो इस बात पर बहस निरर्थक है कि किसके घोषणा पत्र से किसने क्या लिया.

नरेंद्र मोदी अपने ट्रैक रिकॉर्ड के लिए जाने जाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि केंद्र की सत्ता में होते हुए भी नीति आयोग एवं अन्य माध्यमों से उन्होंने सभी राज्यों के अधिकारों की चिंता की है. चाहें प्रदेश में एम्स की स्थापना का प्रश्न हो अथवा किसानों को सॉइल हेल्थ कार्ड, फसल बीमा योजना आदि देने की बात हो अथवा गरीब एवं हाशिये के लोगों को उज्ज्वला देने की बात हो, उन्होंने अपनी कार्य प्रणाली को साबित किया है. ऐसे में यदि कोई वादा भाजपा ने किया है तो उस वादे के लिए भाजपा की सरकार आने पर वह जवाबदेह होगी. लेकिन अभी समय भाजपा ने अमुक वादा क्यों किया, यह पूछने का नहीं बल्कि उन लोगों से सवाल पूछने का है जो पिछले पंद्रह वर्षों से उत्तर प्रदेश में सत्ता चला रहे हैं. अभी सवाल अखिलेश यादव से पूछा जाना चाहिए. अभी सवाल बसपा से पूछा जाना चाहिए और सपा से कंधा मिला चुके कांग्रेस से पूछा जाना चाहिए.

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लेखक

शिवानन्द द्विवेदी शिवानन्द द्विवेदी @shiva.sahar

लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं.

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