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Updated: 13 जनवरी, 2019 11:16 AM
आशीष वशिष्ठ
आशीष वशिष्ठ
  @drashishv
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सपा-बसपा के आधिकारिक गठबंधन की घोषणा के बाद यूपी की राजनीति में तेजी से बदलाव दिखाई देंगे. सपा-बसपा ने बराबरी के सिद्धान्त पर चलते हुये कुल 80 में से 38-38 यानी 76 सीटें आपस में बांट ली हैं. शेष चार में से दो सीटे अन्य दलों व दो सीटें कांग्रेस के लिये छोड़ने का ऐलान किया है. जिन दो सीटों को सपा-बसपा गठबंधन ने छोड़ा है, क्या वह दो सीटें राष्ट्रीय लोक दल के हिस्से में जाएंगी. सवाल यह भी है कि क्या चौधरी अजित सिंह दो सीटों के फार्मूले पर मान जाएंगे? सवाल यह भी है कि क्या चौधरी अजित सिहं सपा-बसपा के गठबंधन की बजाय महागठबंधन में हिस्सेदारी व भागीदारी करेंगे. सवाल यह भी है कि क्या चौधरी अजित सिंह कांग्रेस का हाथ थामेंगे? महज दो लोकसभा सीटें देकर रालोद को अपने साथ रहने के लिए राजी करा पाना सपा-बसपा गठबंधन के लिए आसान नहीं होगा. रालोद गठबंधन में कम से कम छह सीटें चाहता है. ऐसा नहीं होने पर रालोद नेतृत्व दूसरे विकल्पों पर विचार कर सकता है. दूसरा विकल्प भविष्य में कांग्रेस और अन्य दलों के बनने वाला गठजोड़ हो सकता है.

सपा-बसपा गठबंधन की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में रालोद की गैरहाजिरी के बाद इस बात के कयास लगाये जा रहे हैं कि चौधरी अजित सिंह कांग्रेस से हाथ मिला सकते हैं. वे अलग बात है कि मीडिया द्वारा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ किसी भी गठबंधन के सवाल का जवाब देने की बजाय वो टाल गये. मायावती और अखिलेश यादव साझा प्रेस वार्ता के कार्यक्रम में रालोद को न्योता नहीं मिला. पिछले दिनों जयंत चौधरी ने अखिलेश यादव से मुलाकात की थी. सूत्रों के अनुसार, रालोद ने लोकसभा चुनाव में छह सीटों की मांग की है, यह सीटें है बागपत, मथुरा, मुजफ्फरनगर, हाथरस, अमरोहा और कैराना. जबकि सूत्रों के अनुसार महागठबंधन द्वारा दो से तीन सीटें देने की बात चल रही है. कैराना लोकसभा सीट तो रालोद के पास पहले ही है अब पांच सीटों की और मांग की गई है. महागठबंधन में रालोद शुरू से ही पश्चिमी यूपी की पांच सीटों पर दावा कर रहा है. बताया जाता है कि इनमें से कम से कम चार सीटें हर हाल में रालोद लेना चाहेगा. कैराना सीट पर हुए उपचुनाव में सपा ने रालोद को अपना प्रत्याशी देकर चुनाव लड़ाया और जीत हासिल हुई. माना जा रहा है कि यह सीट सपा के लिए छोड़ी जा सकती है.

ajit singhसपा-बसपा गठबंधन की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में रालोद की गैरहाजिरी कुछ और संकेत दे रही है

अजित सिंह व जयंत चौधरी पिता-पुत्र की जोड़ी सियासी हवा का रूख समझने में माहिर मानी जाती है. 2014 के लोकसभा चुनाव में जीरो पर क्लीन बोल्ड होने के बाद, 2017 के विधानसभा चुनाव में रालोद का प्रदर्शन बेहद फीका रहा. ऐसे में रालोद के सामने राजनीतिक वजूद बचाने और अपनी बची-खुची राजनीति बचाने का यह अंतिम बड़ा अवसर है. समय और राजनीति की नजाकत को समझते हुये इस बार पिता-पुत्र की जोड़ी फूंक-फूंककर कदम रख रही है. अजित सिंह प्रथम प्राथमिकता सपा-बसपा गठबंधन को देना चाहते हैं. मगर सीटों के बंटवारे के ऐलान के बाद सीटों की ‘पोजीशन टाइट’ होती दिख रही है. ऐसे में अजित सिंह के सामने कांग्रेस व अन्य दलों के गठबंधन में शामिल होने के अलावा बीजेपी गठबंधन में भी शामिल होने का रास्ता बचा है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी खोई राजनीतिक तलाश कर रहे रालोद को सपा-बसपा गठबंधन ने बड़ा झटका देने का काम किया है. ऐसे में रालोद के पास भाजपा या कांग्रेस के साथ जाने का विकल्प ही बचता है. रालोद और कांग्रेस की पुरानी दोस्ती है. 1996 के चुनाव में रालोद का विलय कांग्रेस में हो चुका है. यह दीगर है कि कुछ समय बाद चैधरी अजित हिंस ने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया. इसके बाद वो सियासी मुनाफे के लिये इधर से उधर पाला बदलने की राजनीति करते रहे. रालोद ने बीजेपी के साथ 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ा था. लेकिन 2012 आते-आते दोनों दलों में खटास आ गयी और 2012 का विधानसभा चुनाव रालोद ने कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा. 2014 के लोकसभा चुनाव में रालोद और कांग्रेस की दोस्ती बरकरार रही. वो अलग बात है कि कांग्रेस जहां महज दो सीटें जीत पायी वहीं रालोद अपना खाता ही नहीं खोल सकी. वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा में दोस्ती हो जाने से रालोद हाशिए पर पहुंच गया था. यह दोस्ती बिखरने का नुकसान दोनों दलों को हुआ. अभी हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और रालोद साथ रहे.

जाट लैण्ड की सबसे मजबूत राजनीतिक पार्टी जाने वाली आरएलडी के सितारे आज भले ही गर्दिश में हो, लेकिन उसकी राजनीति ताकत और समझ में कोई कमी नहीं आई है. सपा-बसपा ने सीटों का ऐलान करके आरएलडी पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का काम किया है. हो सकता है कि बात-मुलाकात के बाद सपा-बसपा और रालोद में सीटों के लिये सहमति बन जाए. सहमति ने बनने की सूरत में अजित सिंह भाजपा की बजाय कांग्रेस का हाथ थामना चाहेंगे. क्योंकि देश में बीजेपी के प्रति नाराजगी का भाव है. ऐसे में अजित सिंह ये कभी नहीं चाहेंगे कि बीजेपी के कर्मों का फल उन्हें भुगतना पड़े. अब यह देखना अहम होगा कि जाट लैण्ड की सबसे पुरानी और पंसदीदा पार्टी 2019 में किसके साथ खड़ी होगी. वर्तमान राजनीतिक हालात में एक बात तय है कि इस बार आरएलडी पश्चिम यूपी की राजनीति में अहम व निर्णायक भूमिका में होगी.

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आशीष वशिष्ठ आशीष वशिष्ठ @drashishv

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