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Uttarakhand flood: ग्लेशियरों के संकेतों को न भांपने का ख़ामियाज़ा

    • रमेश ठाकुर
    • Updated: 09 फरवरी, 2021 01:42 PM
  • 09 फरवरी, 2021 01:42 PM
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तपोवन में मचा कोहराम हमारी हठधर्मिता और नकारेपन का नतीजा है. केदारनाथ हादसे के बाद भी हमने कोई सबक नहीं सीखा. अब भी अगर हम सतर्क नहीं हुए, तो कुछ अंतराल के बाद अगली तबाही झेलने के लिए फिर से तैयार रहना चाहिए. कुदरत ने दूसरी बार अपने रुद्र रूप से हमें परिचय कराया.

कालांतर में कही गई बात कि विकास के साथ विनाश भी आता है, उत्तराखंड में दूसरे दौर की आपदा के बाद सिद्ध हो गया है. पर्यावरण से संबंधित कुछ बातों को शायद हम नकारते चल रहे हैं. दशक भर पहले वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने हुकूमतों को मुफ्त में सलाह दी थी जिसे तत्कालीन केंद्र सरकार ने दरकिनार कर दिया है. सलाह के मुताबिक समूचे हिमालयीय क्षेत्र में ग्लेशियरों पर अध्ययन की जरूरत बताई थी. इसके अलावा ग्लेशियरों पर मुकम्मल अध्ययन के लिए सन् 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी भी बनाई थी. बावजूद इसके हमने पनबिजली योजना, बांध-बैराज आदि बनाने का लालच नहीं त्यागा. तपोवन में मचा कोहराम उसी हठधर्मी और नकारेपन का नतीजा है. केदारनाथ हादसे के बाद भी हमने कोई सबक नहीं सीखा. अब भी अगर हम सतर्क नहीं हुए, तो कुछ अंतराल के बाद अगली तबाही झेलने के लिए फिर से तैयार रहना चाहिए. कुदरत ने दूसरी बार अपने रुद्र रूप से हमें परिचय कराया. संकेत साफ हैं कि मानव जाति को जितना संभलना है संभल ले, भविष्य में कभी भी कुछ भी हो सकता है. रविवार को सुबह से लेकर ढलती दोपहरी तक उत्तराखंड का ऋषिवास कहे जाने वाला तपोवन पूरी तरह से गुलजार था, लेकिन भगरथी के प्रकोप ने क्षण भर में रौंद कर उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया. ज्ञान, विज्ञान, सरकारी सिस्टम व स्थानीय लोग मूक दर्शक बनकर देखते रह गए.

उत्तराखंड में आई आपदा के बाद सेना और एनडीआरएफ अपने मिशन ,में जुट गए हैं

तपोभूमि उत्तरकाशी में विनाश की यह दूसरी किस्त है. सरकारी स्तर पर विनाश के कारणों को खोजना शुरू कर दिया है. वजहों को खोजने भी चाहिए? लेकिन निवारण ढूढ़ना उतना आसान नहीं दिखता? आपदा का कारण प्रथम दृष्ट्या ग्लेशियर का टूटना बताया गया है. हो भी सकता है ऐसा ही हुआ हो. क्योंकि पूर्व में हिमालय में भी ऐसी घटनाएं सामने आई...

कालांतर में कही गई बात कि विकास के साथ विनाश भी आता है, उत्तराखंड में दूसरे दौर की आपदा के बाद सिद्ध हो गया है. पर्यावरण से संबंधित कुछ बातों को शायद हम नकारते चल रहे हैं. दशक भर पहले वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने हुकूमतों को मुफ्त में सलाह दी थी जिसे तत्कालीन केंद्र सरकार ने दरकिनार कर दिया है. सलाह के मुताबिक समूचे हिमालयीय क्षेत्र में ग्लेशियरों पर अध्ययन की जरूरत बताई थी. इसके अलावा ग्लेशियरों पर मुकम्मल अध्ययन के लिए सन् 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी भी बनाई थी. बावजूद इसके हमने पनबिजली योजना, बांध-बैराज आदि बनाने का लालच नहीं त्यागा. तपोवन में मचा कोहराम उसी हठधर्मी और नकारेपन का नतीजा है. केदारनाथ हादसे के बाद भी हमने कोई सबक नहीं सीखा. अब भी अगर हम सतर्क नहीं हुए, तो कुछ अंतराल के बाद अगली तबाही झेलने के लिए फिर से तैयार रहना चाहिए. कुदरत ने दूसरी बार अपने रुद्र रूप से हमें परिचय कराया. संकेत साफ हैं कि मानव जाति को जितना संभलना है संभल ले, भविष्य में कभी भी कुछ भी हो सकता है. रविवार को सुबह से लेकर ढलती दोपहरी तक उत्तराखंड का ऋषिवास कहे जाने वाला तपोवन पूरी तरह से गुलजार था, लेकिन भगरथी के प्रकोप ने क्षण भर में रौंद कर उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया. ज्ञान, विज्ञान, सरकारी सिस्टम व स्थानीय लोग मूक दर्शक बनकर देखते रह गए.

उत्तराखंड में आई आपदा के बाद सेना और एनडीआरएफ अपने मिशन ,में जुट गए हैं

तपोभूमि उत्तरकाशी में विनाश की यह दूसरी किस्त है. सरकारी स्तर पर विनाश के कारणों को खोजना शुरू कर दिया है. वजहों को खोजने भी चाहिए? लेकिन निवारण ढूढ़ना उतना आसान नहीं दिखता? आपदा का कारण प्रथम दृष्ट्या ग्लेशियर का टूटना बताया गया है. हो भी सकता है ऐसा ही हुआ हो. क्योंकि पूर्व में हिमालय में भी ऐसी घटनाएं सामने आई थी. जब वहां ग्लेशियरों के फटने से बड़ा सैलाब उमड़ा. ग्लेशियर की जांच के लिए दिल्ली से वैज्ञानिकों बड़ा दल केंद्र सरकार ने रवाना किया है.

ये दल वास्तविक रूप से तबाही की वजहों को खोजेगा और पता लगाएगा कि भविष्य में अगर ऐसी घटना घटे तो कैसे बचाया जाए. वैसे देखें तो घटना के कुछ कारण और मानवीय हिमाकते सामने हैं, प्राकृतिक का वहां खुले आम दोहन किया जा रहा है. पहाड़ों को चीरकर तपोवन विष्णुगाड प्रोजेक्ट, ऋषिगंगा हाइड्रोप्रोजेक्ट, बिजली मेगावाट के अलावा कई प्रोजेक्ट्स वहां संचालित हैं. फिलहाल सभी परियोजनाएं विनाशकारी तबाही में नेस्तनाबूद हो गई हैं. सिर्फ निशान ही बचे हैं. प्रोजेक्ट्स में कार्यरत कर्मचारी-मजदूर पत्तों की तरह पानी के तेज बहाव में पता नहीं कहां-कहां बह गए हैं.

तस्वीरों में साफ दिख रहा है, बहाव की जद में जो भी सामने आ रहा है वो बहता ही चला जा रहा है. ग़ौरतलब है तपोवन में जितने भी मौजूदा वक्त में प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं उनका पर्यावरणविदों ने विरोध भी किया है. सिर्फ तपोवन में ही नहीं, बल्कि समूचे उत्तराखंड में जितने भी प्रोजेक्ट चल रहे हैं उनका भी विरोध किया था.लेकिन सब बेअसर साबित हुए. उत्तराखंड देवोत्थान है, देवों की भूमि कही जाती है. लेकिन उनके आशियानों को उजाड़ने में मानवीय हरकतें युद्ध स्तर पर लगी हैं.

बड़े-बड़े गगनचुंबी पहाड़ों को आधुनिक मशीनों से तहस नहस किया जा रहा है. विरोध होता है, पर असर नहीं होता. मानव सुविधाओं के लिए परियोजनाओं को संचालित किया जाना भी जरूरी है, पर कुदरत को नुकसान पहुंचाकर नहीं? कालांतर के काल खंड में इस बात का संदर्भ है कि जब-जब मानव ने कुदरती वस्तुओं को कोई नुकसान पहुंचाया, उसका ख़ामियाज़ा समूची मानव जाति को भुगतना पड़ा.

याद आता है, अगस्त 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एक एक्सपर्ट बाडी का गठन किया था जिसमें कोर्ट ने कहा था कि धौल गंगा घाटी में प्रस्तावित बिजली परियोजना पर रोक लगाई जाए. क्योंकि वह क्षेत्र पैराग्लेशियल जोन में आता है. वहां तबाही के संकेत पहले से थे. ग्लेशियर अपने स्थान से काफी पीछे खिसक चुके हैं. जो जगह ग्लेशियरों ने छोड़ी थी, वहां बोल्डरयुक्त मलबे के बड़े-बड़े पहाड़ खड़े हो गए थे, जो कभी भी तबाही कारण बन सकते थे.

उन पहाड़ों ने तबाही की तारीख सात फरवरी मुकर्रर कर रखी थी जिसका किसी को भनक तक नहीं हुई. हां, इतना जरूर पता था उन पहाड़ों का पानी के रूप में बहना निश्चित था. इस बावत पर्यावरणविद प्रोफ़ेसर रवि चोपड़ा ने सुप्रीम कोर्ट में शिकायत भी की थी. उनकी शिकायत को गंभीरता से लेते हुए अपनी बनाई कमेटी में उन्हें सदस्य भी बनाया था. उस समय उन्होंने जो सुझाव दिए, उनपर कांग्रेस की हुक़ूमत ने अमल नहीं किया.

केंद्र की मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में जब उमा भारती मंत्री थी, तो उन्होंने भी उन पनबिजली योजनाओं का विरोध किया था. बाक़ायदा इसकी रिपोर्ट भी दी थी. लेकिन सरकार को काम रोकना उतना आसान नहीं थी, तब तक सत्तर फीसदी परियोजना पूरी हो चुकी थी. परियोजना सन् 2000 से संचालित थी. इसलिए पर्यावरणविद प्रोफ़ेसर रवि चोपड़ा और तत्कालीन मंत्री उमा भारती के विरोधों का भी कोई असर नहीं हुआ? परियोजना का काम बदस्तूर जारी रहा.

वैज्ञानिक रिपोर्ट ने भी केंद्र व राज्य की हुक़ूमत को आगाह किया था. विज्ञानियों और पर्यावरणविदों की सजगता को अगर गंभीरता से लिया होता तो शायद आज हमें इस प्रलय से सामना नहीं करना पड़ता. ये परियोजना अबकी नहीं, कांग्रेस सरकार के वक्त शुरू हुई थी. वैसे, कायदा तो यही बनता था कि सरकारों को संभावित खतरों के लिए तैयार रहना चाहिए था और किसी भी तरह की वैज्ञानिक संस्तुतियों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए था. लेकिन ऐसा किया गया.

खैर, जो हुआ उसकी भरपाई तो नहीं की जा सकती है, पर भविष्य में ऐसी आपदाओं से कैसे निपटा जाए उसके लिए हमें सक्रिय होना होगा. हाथ पर हाथ रखे रहने की प्रवृति को छोड़कर हमें चैकन्ना रहना होगा. घटना की जांच के लिए केंद्र सरकार से भेजी गई वैज्ञानिक टीम की रिपोर्ट को गंभीरता से लेना होगा. ये तय है कि पहाड़ी क्षेत्र में सामान्य क्षेत्रों के मुकाबले खतरे ज्यादा रहते हैं.

उच्च हिमालीय क्षेत्र व संवेदनशील स्थानों के प्रति हमारी हुकूमतों को अलग से कार्य योजनाएं बनानी चाहिए. याद आता है जब केदारनाथ हादसा हुआ था, उस समय भी वैज्ञानिकों ने चैराबाड़ी ग्लेशियर के एवलांच के प्रति सावधान किया था, लेकिन हमने उस सावधानिक को भी नहीं माना. ग्लेशियर अपनी जगहों से काफी पीछे हट चुके हैं. आगे भी ऐसे हादसों के संकेत मिले हैं. संभावित खतरों से बचने की चुनौती हमारे समक्ष आगे भी रहेगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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