• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
समाज

उत्तराखंड में मनुष्य को सजा देकर प्रकृति ने अपना उधार चुकता किया है!

    • मशाहिद अब्बास
    • Updated: 08 फरवरी, 2021 12:58 PM
  • 08 फरवरी, 2021 12:58 PM
offline
उत्तराखंड में एक बार फिर सैलाब आया है, इस बार भी आपदा कहकर ज़िम्मेदारियों से भागा जा रहा है. पहाड़ फिर से दर्द झेल रहा है, 2013 की झलक 2021 में दिखाई दे रही है. सबकुछ वैसा नहीं है ये शुक्र है लेकिन जो है उससे बचा जा सकता है. बड़ा सवाल ये भी है कि आपदा आने के बाद नींद से जागना कहां तक जायज है?

उत्तराखंड में इन दिनों पर्यटकों का हुजूम रहता है. देश ही नहीं विदेश से भी लोग प्राकृतिक खूबसूरती का दर्शन करने उत्तराखंड आते हैं. नवंबर से लेकर मार्च के महीने तक पर्यटक बड़ी संख्या में उत्तराखंड पहुंचते हैं. बर्फबारी का आनंद लेते हैं और अपनी ज़िंदगी की खूबसूरत यादें बनाते हैं. उत्तराखंड में इनदिनों मौसम सुहाना होता है प्रकृति अपने सबसे खूबसूरत स्वरुप में होती है. आज उसी उत्तराखंड की चर्चा फिर हो रही है. कारण बनी है वो आपदा जिसने बता दिया कि नेचर को हलके में लेकर हम एक बड़ी भूल को अंजाम दे रहे हैं. एक भयानक सी तस्वीर ,हमारे सामने है, ऐसा लग रहा है कि प्रकृति एक ही पल में सबकुछ मिटा देने पर उतारू हो गई है. उत्तराखंड के चमोली जिले के तपोवन क्षेत्र में स्थित ऋषिगंगा नदी में ग्लेशियर का टूट जाना और उसके बाद पानी का सैलाब आ जाना, इस घटना को हम और आप आपदा कहकर मुंह फेर सकते हैं लेकिन सच्चाई यही है कि कोई भी प्राकृतिक आपदा स्वंय से नहीं आती है, हम और आप जब प्रकृति के साथ खेल करते हैं तो प्रकृति भी एक दिन हमारे साथ खेल कर जाती है.

इस घटना के बाद कई जगह बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई है, बांध टूट चुके हैं और पास ही में बन रहे एनटीपीसी कंपनी के प्रोजेक्ट का तहस नहस हो गया है. इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे करीब 200 लोगों की जान खतरे में हैं वह सभी इस बहाव में बह चुके हैं. अबतक 3-4 लोगों का शव ही बरामद हो सका है. गंगा नदी जहां जहां से होकर गुज़रती है सभी जिलों में अलर्ट घोषित कर दिया गया है. उत्तराखंड के कई गांवो को खाली करा लिया गया है और रेस्क्यू आपरेशन भी शुरू कर दिया गया है.

उत्तराखंड में जो त्रासदी हुई है वो दिल को दहलाकर रख देने वाली है

यह सारा मंज़र याद दिला रहा है साल 2013 को, साल 2013 का जून का महीना था जब 16-17...

उत्तराखंड में इन दिनों पर्यटकों का हुजूम रहता है. देश ही नहीं विदेश से भी लोग प्राकृतिक खूबसूरती का दर्शन करने उत्तराखंड आते हैं. नवंबर से लेकर मार्च के महीने तक पर्यटक बड़ी संख्या में उत्तराखंड पहुंचते हैं. बर्फबारी का आनंद लेते हैं और अपनी ज़िंदगी की खूबसूरत यादें बनाते हैं. उत्तराखंड में इनदिनों मौसम सुहाना होता है प्रकृति अपने सबसे खूबसूरत स्वरुप में होती है. आज उसी उत्तराखंड की चर्चा फिर हो रही है. कारण बनी है वो आपदा जिसने बता दिया कि नेचर को हलके में लेकर हम एक बड़ी भूल को अंजाम दे रहे हैं. एक भयानक सी तस्वीर ,हमारे सामने है, ऐसा लग रहा है कि प्रकृति एक ही पल में सबकुछ मिटा देने पर उतारू हो गई है. उत्तराखंड के चमोली जिले के तपोवन क्षेत्र में स्थित ऋषिगंगा नदी में ग्लेशियर का टूट जाना और उसके बाद पानी का सैलाब आ जाना, इस घटना को हम और आप आपदा कहकर मुंह फेर सकते हैं लेकिन सच्चाई यही है कि कोई भी प्राकृतिक आपदा स्वंय से नहीं आती है, हम और आप जब प्रकृति के साथ खेल करते हैं तो प्रकृति भी एक दिन हमारे साथ खेल कर जाती है.

इस घटना के बाद कई जगह बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई है, बांध टूट चुके हैं और पास ही में बन रहे एनटीपीसी कंपनी के प्रोजेक्ट का तहस नहस हो गया है. इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे करीब 200 लोगों की जान खतरे में हैं वह सभी इस बहाव में बह चुके हैं. अबतक 3-4 लोगों का शव ही बरामद हो सका है. गंगा नदी जहां जहां से होकर गुज़रती है सभी जिलों में अलर्ट घोषित कर दिया गया है. उत्तराखंड के कई गांवो को खाली करा लिया गया है और रेस्क्यू आपरेशन भी शुरू कर दिया गया है.

उत्तराखंड में जो त्रासदी हुई है वो दिल को दहलाकर रख देने वाली है

यह सारा मंज़र याद दिला रहा है साल 2013 को, साल 2013 का जून का महीना था जब 16-17 तारीख को बादल फटा, ग्लेशियर टूटा और सबकुछ पानी पानी हो गया. तबाही और चीख पुकार के बीच लगभग 10 हज़ार से अधिक लोग मारे गए. 4 हज़ार गांव शहर से कट गए. नेशनल हाईवे से लेकर राज्यमार्ग तक सब तहस नहस हो गए. पुल बह गए गांव के गांव बह गए और आज सात साल बाद फिर से कुदरत ने उत्तराखंड में कहर दिखाया है.

सवाल ये है कि क्या इस हादसे को प्राकृतिक आपदा कहकर खामोश हो जाना ठीक है या फिर इसके पीछे की गलतियों से सबक लेना. एक बहुत बड़े पत्रकार और लेखक हैं लक्ष्मी प्रसाद पंत, उन्होंने साल 2004 में एक अखबार के लिए स्टोरी कवर करते हुए लिखा था और बताया था कि 'अब केदारनाथ खतरे में, बम की तरह फटेगा चौराबाड़ी ग्लेशियर.'

इस खबर को छापने के बाद लक्ष्मी खुद घिर गए, तत्कालीन विजय बहुगुणा सरकार से लेकर खुद उनके संस्थान के लोग तक उऩके खिलाफ आ गए. इस खबर को छापे जाने से नाराज़ होकर इनपर दबाव बनाया गया कि यह खबर के लिए माफी मांग लें लेकिन ऐसा नहीं हुआ, वक्त बीत गया औऱ 7 साल के बाद वही हुआ जो बड़े पत्रकार ने अपनी स्टोरी में लिखा था. उत्तराखंड में भीषण त्रासदी हुयी, बादल फट गए, बांध टूट गए और सबकुछ तेज़ी के साथ खत्म हो रहा था.

हज़ारों की मौत हो गई, सैकड़ों का तो अबतक भी कोई अता पता नहीं है. सवाल उठता है कि आखिर जब एक पत्रकार को ऐसी घटनाओं की आशंका रहती है तो राज्य के मुखिया को जब ऐसी सूचनाएं हासिल होती हैं तो वह क्या करता है. क्या वर्ष 2004 में जारी हुयी रिपोर्ट से सबक नहीं सीखा जा सकता था. वर्ष 2004 में ही इस बात का अनुमान लगाया जा सकता था कि केदारनाथ में ऐसी त्रासदी आ सकती है, लेकिन उस चुनौती से लोहा लेने की तैयारी करने के बजाय उस रिपोर्ट को ही बेबुनियाद करार दे दिया गया था.

सिर्फ सात साल बाद ही वह रिपोर्ट सच साबित हुयी, तो फिर सवाल होना चाहिए न कि उन 10 हज़ार से अधिक मौत का ज़िम्मेदार आखिर था कौन. क्या उन हज़ारों की मौत को बस आपदा का नाम देकर अपनी ज़िम्मेदारी से कन्नी काट लेना सही था. छोड़िये कल की बातें, आज की घटना की बात करते हैं. साल 2019 में एक रिसर्च हुई और उस रिपोर्ट में दावा किया गया कि रिसर्च की रिपोर्ट में बताया गया कि 21 वीं सदी यानी की मौजूदा समय में हिमालय के ग्लेशियरों की पिघलने की रफ्तार पहले के 25 साल के मुकाबले दोगुनी हो चुकी है.

पहाड़ों से सटे ग्लेशियरों पर बर्फ की परत पिघल रही है. जब भी तापमान बढ़ता है तो ग्लेशियर को नुकसान पहुंचता है. पानी की कमी से ग्लेशियर तबाह हो जाता है और तबाही मचा देता है. जैसा की आज उत्तराखंड के चमोली में हुआ है. वैज्ञानिकों का कहना है कि अगले कुछ दशक में हम और ग्लेशियर खो देंगें और फिर इन ग्लेशियर से पैदा होने वाले बिजली, पानी से करोड़ों लोगों को फायदा मिलना बंद हो जाएगा.

यानी की ग्लेशियर से और भी नुकसान उठाने को तैयार रहना पड़ सकता है. भारत में ग्लैशियर के पिघलने से अधिक नुकसान होता है, क्योंकि यहां पर पहले से ही नदीयों की लंबाई और चौड़ाई को कम रखा गया है. ऊपर से नदियों के रास्तों पर ही बांध का निर्माण किया गया है. ऐसे में ग्लेशियर के पिघलने से नदीयों में पानी अधिक मात्रा में पहुंच जाता है. और फिर इस बहाव से नदीयों के किनारे बसे गांवों पर खतरा मंडराता रहता है.

ग्लेशियर को बचाया जाना बेहद ज़रूरी है क्योंकि इससे करोड़ों लोगों की जीविका निर्भर है. ग्लेशियर को बचाकर रखने के लिए दुबई और हांगकांग जैसे देशों ने काम करना भी शुरू कर दिया है हालांकि यह बेहद महंगा प्रोजेक्ट है लेकिन ग्लेशियर को बचाकर रखना भी ज़रूरी है.

ये भी पढ़ें -

नाबालिग की सहमति एक ग्रे एरिया: बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक नई बहस को आयाम दिए हैं!

खेती को उत्तम कहने वाला किसान अब नौकरी की लाइन में क्यों लगा है?

Valentine week Rose day: गुलाब के साथ बात प्रेम में चुभने वाले कांटों की  

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    आम आदमी क्लीनिक: मेडिकल टेस्ट से लेकर जरूरी दवाएं, सबकुछ फ्री, गांवों पर खास फोकस
  • offline
    पंजाब में आम आदमी क्लीनिक: 2 करोड़ लोग उठा चुके मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा का फायदा
  • offline
    CM भगवंत मान की SSF ने सड़क हादसों में ला दी 45 फीसदी की कमी
  • offline
    CM भगवंत मान की पहल पर 35 साल बाद इस गांव में पहुंचा नहर का पानी, झूम उठे किसान
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲