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Coronavirus Lockdown सत्रहवां दिन, और देश के रक्षक

    • अंकिता जैन
    • Updated: 11 अप्रिल, 2020 11:09 AM
  • 11 अप्रिल, 2020 11:09 AM
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कोरोनावायरस लॉकडाउन (Coronavirus Lock down) को 17 दिन बाद अचानक ही उन लोगों जैसे डॉक्टर, पैरा मेडिकल स्टाफ और पुलिस वालों का भी ध्यान आ रहा है जो अपनी जान जोखिम में डालकर कोरोना वायरस के इस दौर में लगातार देश की सेवा कर रहे हैं.

मेरे प्रिय,

अब लॉकडाउन के अंतिम चार दिन बचे हैं. कभी सोचा नहीं था कि जीवन में ऐसा भी वक़्त आएगा जब एक-एक दिन गिनकर काटना. जब एक-एक दिन यह सोचते हुए काटना पड़ेगा कि हे भगवान आज कुछ राहत की ख़बर मिले. दादी-नानी ने विश्व युद्ध के दिन देखे थे. वे बताती थीं कि कैसे हर दिन क्या, हर लम्हा काटना कठिन होता था. फिर भी, ऐसे में भी हम जी रहे होते हैं. आगे बढ़ रहे होते हैं. खा-पी-सो रहे होते हैं. प्रेम कर रहे होते हैं. क्योंकि हम यह जानते हैं कि हम सुरक्षित रहें इसके लिए कुछ लोग अपना जीवन दाव पर लगाए हुए हैं. अब तक मन में यह भावना सैनिकों के लिए थी. मैं जब भी किसी सैनिक के बारे में सोचती यही ख़याल आते कि कैसे होते हैं वे लोग जो ये जानते हुए भी ऐसा पेशा चुनते हैं जिसमें मौत आ सकती है. जिसमें कफ़न पहनना पड़ सकता है.

हमें तो यदि कोई बस इतना बता दे कि फलां रास्ते पर ख़तरा है तो हम जीवन बचाने की खातिर, डर से रास्ता ही बदल लेते हैं. दुश्मन तो छोड़ो हम तो तेज़ आंधी से भी इतना भयभीत हो जाते हैं कि एक थपेड़ा पड़ने के बाद चंद दिन घर में ही बिता दें. किन्तु सैनिक, वह किस मिट्टी का बना होता है? क्या उसकी देह अलग गढ़कर भेजता है ईश्वर? नहीं, देह नहीं मन अलग मिट्टी से गढ़ा होता है.

तभी तो वे ये फ़ैसला कर सकने में सक्षम होते हैं, अपने इरादे इतने मजबूत कर पाने में सक्षम होते हैं कि हंसते -खेलते परिवार के साथ ज़िन्दगी बिताने की जगह वे सीमा पर खड़े होकर दुश्मन से दो-चार होना चुन पाते हैं. इन दिनों जब सम्पूर्ण विश्व महामारी से जूझ रहा है ऐसे में मुझे डॉक्टर्स भी इन्ही सैनिकों से जान पड़ते हैं.

लॉक डाउन का ये वक़्त ऐसा समय है जिसके लिए हमें जितना हो सके देश के रक्षकों को धन्यवाद कहना चाहिए

कुछ दिन पहले तक मेरे देश के लोग...

मेरे प्रिय,

अब लॉकडाउन के अंतिम चार दिन बचे हैं. कभी सोचा नहीं था कि जीवन में ऐसा भी वक़्त आएगा जब एक-एक दिन गिनकर काटना. जब एक-एक दिन यह सोचते हुए काटना पड़ेगा कि हे भगवान आज कुछ राहत की ख़बर मिले. दादी-नानी ने विश्व युद्ध के दिन देखे थे. वे बताती थीं कि कैसे हर दिन क्या, हर लम्हा काटना कठिन होता था. फिर भी, ऐसे में भी हम जी रहे होते हैं. आगे बढ़ रहे होते हैं. खा-पी-सो रहे होते हैं. प्रेम कर रहे होते हैं. क्योंकि हम यह जानते हैं कि हम सुरक्षित रहें इसके लिए कुछ लोग अपना जीवन दाव पर लगाए हुए हैं. अब तक मन में यह भावना सैनिकों के लिए थी. मैं जब भी किसी सैनिक के बारे में सोचती यही ख़याल आते कि कैसे होते हैं वे लोग जो ये जानते हुए भी ऐसा पेशा चुनते हैं जिसमें मौत आ सकती है. जिसमें कफ़न पहनना पड़ सकता है.

हमें तो यदि कोई बस इतना बता दे कि फलां रास्ते पर ख़तरा है तो हम जीवन बचाने की खातिर, डर से रास्ता ही बदल लेते हैं. दुश्मन तो छोड़ो हम तो तेज़ आंधी से भी इतना भयभीत हो जाते हैं कि एक थपेड़ा पड़ने के बाद चंद दिन घर में ही बिता दें. किन्तु सैनिक, वह किस मिट्टी का बना होता है? क्या उसकी देह अलग गढ़कर भेजता है ईश्वर? नहीं, देह नहीं मन अलग मिट्टी से गढ़ा होता है.

तभी तो वे ये फ़ैसला कर सकने में सक्षम होते हैं, अपने इरादे इतने मजबूत कर पाने में सक्षम होते हैं कि हंसते -खेलते परिवार के साथ ज़िन्दगी बिताने की जगह वे सीमा पर खड़े होकर दुश्मन से दो-चार होना चुन पाते हैं. इन दिनों जब सम्पूर्ण विश्व महामारी से जूझ रहा है ऐसे में मुझे डॉक्टर्स भी इन्ही सैनिकों से जान पड़ते हैं.

लॉक डाउन का ये वक़्त ऐसा समय है जिसके लिए हमें जितना हो सके देश के रक्षकों को धन्यवाद कहना चाहिए

कुछ दिन पहले तक मेरे देश के लोग डॉक्टर्स को लेकर एक अलग ही दुर्भावना से घिरने लगे थे. वह अलग दौर था जब वैध को जीवन-रक्षक माना जाता था. ऐसा नहीं है कि आज डॉक्टर्स लोगों की जान नहीं बचाते, किन्तु बड़े अस्पतालों के महंगे बिल्स, बिना वजह मरीज़ को ग़लत दवाई देकर बिल बढ़ाना, गरीब की दवाइयों के नाम पर लूटना, बड़ी फ़ीस जैसी कुछ घटनाओं ने लोगों के मन में यह धारणा बना दी थी कि 'आजकल के डॉक्टर्स तो बहुत लूटते हैं'.

मैं एक बार फिर लोगों को मामूली रोग के लिए घरों में उपचार करते देखने लगी थी. लोग डॉक्टर्स के पास जाने से बचना चाहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था, 'डॉक्टर्स के पास गए तो कोई बीमारी नहीं होगी तो डॉक्टर एक लगा देगा'. इस तरह की बातों ने लोगों के मन में डॉक्टर्स के प्रति एक नकारात्मक वातावरण बना दिया था.

किन्तु अब, अब लोगों की मानसिकता बदली है. कल मैंने देखा सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल होते हुए. यह उस डॉक्टर की दास्तान थी जिसने कोरोना के मरीज़ों का इलाज करते हुए अपनी जान दे दी. मैंने भी जब यह ख़बर पढ़ी तो यही ख़याल आया कि वाक़ई इस समय देश में सैनिक सिर्फ सीमा पर नहीं बल्कि अस्पतालों में भी लड़ रहे हैं.

इस बीमारी से लड़ता, जूझता हर वह डॉक्टर भी एक सैनिक है जो यह जानता है कि इलाज के दौरन यह बीमारी उसे चपेट में ले सकती है. उसकी जान भी जा सकती है. इटली के कई डॉक्टर्स अपनी जान गंवा चुके हैं. मेरे देश में भी कई डॉक्टर्स के साथ बदसलूकी की गई, उन्हें मारा गया, घरों से निकाला गया, वे अपने परिवारों से नहीं मिल पा रहे हैं, बच्चों को गोद में लेकर दुलार नहीं पा रहे हैं, साथी को गले नहीं लगा पा रहे हैं लेकिन फिर भी वे लड़ रहे हैं इस बीमारी से.

वे अपनी ज़िम्मेदारी से भागने की जगह कार में ही अपने दिन बिता दे रहे हैं, उसे ही अपना घर बना ले रहे हैं ताकि वे लोगों की सेवा भी कर सकें और अपने परिवार को बीमारी से बचा भी सकें. ऐसा सब नहीं कर पाते. सब नहीं बन पाते. अपने घर में सुरक्षित बैठी मैं इस समय पहली बार तुमसे मिलने की ख्वाहिश से पहले यह ख्वाहिश पाल रही हूं कि देश के जितने भी सैनिक हैं, डॉक्टर्स हैं वे सलामत रहें. उनके परिवारों से जब वे मिलें तो कफ़न में लिपटकर नहीं बल्कि बाहें फैलाकर गले लगाकर मिलें.

तुम्हारी

प्रेमिका

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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