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Coronavirus Lockdown: तेरह दिन और उम्मीद का दीया!

    • अंकिता जैन
    • Updated: 06 अप्रिल, 2020 10:39 PM
  • 06 अप्रिल, 2020 10:39 PM
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कोरोना वायरस लॉकडाउन (Coronavirus Lockdown) बीतने के 13 दिन बाद ख्याल आ रहा है कि घरों में कैद लोग जो उत्सव और उल्लास में जीने के आदी थे वे अचानक से कैद हो गए. अब वे हताशा और निराशा से भर रहे हैं. ऐसे में क्या पता उन्हें उम्मीद की रौशनी कुछ और वक़्त के लिए मुश्किल हालातों का सामना करने की शक्ति दे.

मेरे प्रिय,

जीवन में यदि उम्मीद का दिया टिमटिमाता रहे तो आदमी बड़े-से-बड़े पहाड़ भी तोड़ सकता है. उस दिन जब प्रधानमंत्री जी ने दीया जलाने का आह्वान किया तो उनका औचित्य भी यही था. एक महामारी जो अब देश में अपने पैर फैला रही है उससे लड़ने की उम्मीद बनी रहे. घरों में कैद लोग जो उत्सव और उल्लास में जीने के आदी थे वे अचानक से कैद हो गए. अब वे हताशा और निराशा से भर रहे हैं. ऐसे में क्या पता उन्हें उम्मीद की रौशनी कुछ और वक़्त के लिए मुश्किल हालातों का सामना करने की शक्ति दे दे. असल में उम्मीद सकारात्मकता का काम करती है. और सकारात्मकता तो मौत के मुँह में पड़े इंसान को भी वापस ले आती है. अब सोचो पूरे देश में एक साथ इतने लोग उम्मीद करेंगे, सकारात्मक होंगे, तो कितनी पोज़िटिव वाइब्स उन्हें इस कठिन वक़्त को गुज़ारने की ताक़त देंगी.

जानते हो इंतज़ार बहुत कठिन होता, किन्तु उसे आसान बनाती है उम्मीद. जैसे इंतज़ार के क्षणों में मेरी जिजीविषा है तुमसे मिलने की उम्मीद. अच्छा आज तुमसे मेरे-तुम्हारे बारे में बात नहीं करूंगी, बल्कि उम्मीद की कहानी सुनाउंगी. उस प्रेम की कहानी जिसने उम्मीद का दामन थामे पूरा जीवन ही बिता दिया.

उसके लिए प्रेम और उम्मीद ये दो शब्द भर नहीं थे. उसका जीवन थे. जिनके सहारे उसने काट लिए थे वे सारे वर्ष जिनमें झड़ती गई उसकी खुशियां और टूटते गए ख़्वाब पल-पल पतझड़ की तरह. क़रीब-क़रीब पैंतीस साल गुज़र चुके हैं उन्हें आख़री बार मिले हुए, या यूं कहूं कि बिछड़े हुए.

कोरोना वायरस के...

मेरे प्रिय,

जीवन में यदि उम्मीद का दिया टिमटिमाता रहे तो आदमी बड़े-से-बड़े पहाड़ भी तोड़ सकता है. उस दिन जब प्रधानमंत्री जी ने दीया जलाने का आह्वान किया तो उनका औचित्य भी यही था. एक महामारी जो अब देश में अपने पैर फैला रही है उससे लड़ने की उम्मीद बनी रहे. घरों में कैद लोग जो उत्सव और उल्लास में जीने के आदी थे वे अचानक से कैद हो गए. अब वे हताशा और निराशा से भर रहे हैं. ऐसे में क्या पता उन्हें उम्मीद की रौशनी कुछ और वक़्त के लिए मुश्किल हालातों का सामना करने की शक्ति दे दे. असल में उम्मीद सकारात्मकता का काम करती है. और सकारात्मकता तो मौत के मुँह में पड़े इंसान को भी वापस ले आती है. अब सोचो पूरे देश में एक साथ इतने लोग उम्मीद करेंगे, सकारात्मक होंगे, तो कितनी पोज़िटिव वाइब्स उन्हें इस कठिन वक़्त को गुज़ारने की ताक़त देंगी.

जानते हो इंतज़ार बहुत कठिन होता, किन्तु उसे आसान बनाती है उम्मीद. जैसे इंतज़ार के क्षणों में मेरी जिजीविषा है तुमसे मिलने की उम्मीद. अच्छा आज तुमसे मेरे-तुम्हारे बारे में बात नहीं करूंगी, बल्कि उम्मीद की कहानी सुनाउंगी. उस प्रेम की कहानी जिसने उम्मीद का दामन थामे पूरा जीवन ही बिता दिया.

उसके लिए प्रेम और उम्मीद ये दो शब्द भर नहीं थे. उसका जीवन थे. जिनके सहारे उसने काट लिए थे वे सारे वर्ष जिनमें झड़ती गई उसकी खुशियां और टूटते गए ख़्वाब पल-पल पतझड़ की तरह. क़रीब-क़रीब पैंतीस साल गुज़र चुके हैं उन्हें आख़री बार मिले हुए, या यूं कहूं कि बिछड़े हुए.

कोरोना वायरस के कारण अपने घर में बंद लोगों को उम्मीद है कि जल्द ही सब ठीक होगा

बहुत भीड़ थी उस दिन. हर बार की तरह. महाशिवरात्रि पर शहर के इस मनौती वाले शिव मंदिर में भीड़ होना तो लाज़मी है. वे दोनों भी मनौती मांगने आए थे. दो से तीन होने का सपना लिए कई वर्ष बीत चुके थे. ना जाने कितनी मज़ारों पर दुआ मांगी और कितने मंदिरों में दिए जलाए. उम्मीद थी कि आती ही ना थी. प्रेम की अटूट डोर में बंधे दोनों एक दूसरे को हौसला देते और कहते कि ईश्वर इतना भी निर्दयी नहीं हो सकता कि उनकी दुनिया में उनके प्रेम का अंश ना जगमगाए.

उसी उम्मीद में दिन उगता और उसी उम्मीद में रात डूब जाती. फिर किसी ने कहा कि मनौती वाले शिव मंदिर दीया जलाओ. वहां मांगी गई मन्नत कभी अधूरी नहीं रहती और बस दोनों पहुंच गए. मंदिर में दिया जलाया और बाहर निकले तो सामने के चबूतरे पर बैठकर दोनों ने साथ लाए खाने की पोटली से पूड़ी-सब्जी खाने बैठ गए.

पहला निवाला हलक से उतरा ही था कि भगदड़ मच गई. हल्ला होने लगा, लोग भागने लगे...'भागो... भागो' वे कुछ सुन पाते या समझ ही पाते इससे पहले भीड़ का एक बड़ा टुकड़ा आया और दोनों को अपने साथ मंदिर के एक किनारे से बह रही नदी की तरफ बहा ले गया. दोनों की जुड़ी हथेलियां भीड़ के आगे नहीं टिक पाईं और दोनों जुदा हो गए.

किसी ने आग लगने की अफ़वाह उड़ाई थी. एक अफ़वाह ने ना जाने कितनों की दुनिया में आग लगाई होगी. उन्हीं में से एक थे 'रूमी' साहब जो अपनी 'नेमत' से उस दिन बिछड़ गए. भीड़ जब ठंडी पड़ने लगी तो हर तरफ़ से कराह उठ रही थी. कुछ की कराह हमेशा के लिए ठंडी पड़ चुकी थी. रूमी ख़ुद को संभाले बेतहाशा अपनी नेमत को खोज रहा था. कुछ ज़िंदगियां भीड़ के पैरों तले आकर लाश बन चुकी थीं, और कुछ खून में सनी मदद को पुकार रही थीं.

हर एक चेहरे को रूमी टटोलता रहा लेकिन नेमत कहीं नहीं मिली। वक़्त गुज़रने लगा और रूमी नेमत को ढूंढता रहा. आज भी ढूंढता है. रूमी को अब भी उम्मीद है कि जिस नदी ने उसकी नेमत को निगल लिया वही उसे एक दिन वापस कर देगी. इसी उम्मीद में रूमी ने अपनी दुनिया इसी मंदिर में बसा ली. इसकी सेवा, सफ़ाई और चौकीदारी सब रूमी ही तो करता है. उसे आज भी प्रेम और उम्मीद ने जिलाए रखा है. वह आज भी मंदिर में हर रोज़ एक दिया जलाता है.

इनके नाम पर मत जाना। यह वाक़ई इसी दुनिया में संभव है कि कोई पैदा किसी मज़हब का तमगा लेकर भले हो जाए ईश्वर एक है का पाठ सीख सकता है, सदके में सर झुकाना हो या साष्टांग नमन करना हो दोनों कर सकता है. मैं भी इसी उम्मीद में एक और रात बिता दूंगी कि यह आपदा जल्द ही दूर हो जाएगी.

तुम्हारी

प्रेमिका

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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