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Coronavirus Lockdown का सोलहवां दिन और मृत्यु का उत्सव

    • अंकिता जैन
    • Updated: 09 अप्रिल, 2020 07:44 PM
  • 09 अप्रिल, 2020 07:44 PM
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लॉकडाउन (Lock down) को 16 दिन बीत चुके हैं. मीडिया में कोरोना वायरस (Coronavirus) की ख़बरें लगातार चल रही हैं. जिस तरह पूरी दुनिया से एक के बाद एक मौत की ख़बरें आ रही हैं वो कई मायनों में विचलित करने वाली हैं.

मेरे प्रिय,

विविधताओं से भरे मेरे देश में मृत्यु को भी उत्सव की तरह मनाया जाता है. देखा जाए तो मृत्यु उत्सव ही तो है. आदिवासी-भील ढोल-नगाड़ों के साथ मृत्यु उत्सव मानते थे. शायद इसका कारण यह हो कि वे इस धरती पर आने के बाद उसे नुक्सान पहुंचाए बिना, यहां से कुछ लिए बिना जीवन जीकर चले गए. किन्तु आज मृत्यु को अभिशाप की तरह देखा जाता है. शायद इसलिए कि आज सुविधाभोगी हम धरती पर आकर इससे सब कुछ लेकर जाते हैं, इसे कुछ देकर नहीं जाते. इसे भोगकर चले जाते हैं. फिर भी, आज भी कई बार जनाज़ों के साथ बैंड-बाजे वाले दिखते हैं. कहते हैं ऐसा उन लोगों के साथ किया जाता है जो एक लम्बी और स्वस्थ उम्र जीकर गए हों. जिन्होंने नाती-पोतों से भरा पूरा परिवार देखा हो. इसके विपरीत जिन्होंने कम उम्र में ही जीवन से मृत्यु तक का सफ़र तय कर लिया हो, उनके लिए छाती पीटकर शोक मनाया जाता है. कहते हैं अंतिम समय में यदि गति बिगड़ जाए तो मरने वाले की आत्मा को शांति नहीं मिलती.

जिस तरह एक के बाद एक मौत की ख़बरें कोरोना के कारण आ रही हैं वो विचलित करने वाली हैं

सोचती हूं उन हज़ारों लोगों की आत्मा अब कहां जाएगी जो मरने से पहले अंतिम बार अपने परिजन को देख भी नहीं पाए. जिन्होंने मूंद लीं आंखें अपने प्रेमी, पति, पत्नी, बच्चे या साथी को देखे बिना. कितनी तड़प और कसक रही होगी उनके मन में कि छोड़ रहे होंगे संसार, तड़प रहे होंगे एक महामारी की पीड़ा से, उखड़ रही होंगी सांसें और ऐसे...

मेरे प्रिय,

विविधताओं से भरे मेरे देश में मृत्यु को भी उत्सव की तरह मनाया जाता है. देखा जाए तो मृत्यु उत्सव ही तो है. आदिवासी-भील ढोल-नगाड़ों के साथ मृत्यु उत्सव मानते थे. शायद इसका कारण यह हो कि वे इस धरती पर आने के बाद उसे नुक्सान पहुंचाए बिना, यहां से कुछ लिए बिना जीवन जीकर चले गए. किन्तु आज मृत्यु को अभिशाप की तरह देखा जाता है. शायद इसलिए कि आज सुविधाभोगी हम धरती पर आकर इससे सब कुछ लेकर जाते हैं, इसे कुछ देकर नहीं जाते. इसे भोगकर चले जाते हैं. फिर भी, आज भी कई बार जनाज़ों के साथ बैंड-बाजे वाले दिखते हैं. कहते हैं ऐसा उन लोगों के साथ किया जाता है जो एक लम्बी और स्वस्थ उम्र जीकर गए हों. जिन्होंने नाती-पोतों से भरा पूरा परिवार देखा हो. इसके विपरीत जिन्होंने कम उम्र में ही जीवन से मृत्यु तक का सफ़र तय कर लिया हो, उनके लिए छाती पीटकर शोक मनाया जाता है. कहते हैं अंतिम समय में यदि गति बिगड़ जाए तो मरने वाले की आत्मा को शांति नहीं मिलती.

जिस तरह एक के बाद एक मौत की ख़बरें कोरोना के कारण आ रही हैं वो विचलित करने वाली हैं

सोचती हूं उन हज़ारों लोगों की आत्मा अब कहां जाएगी जो मरने से पहले अंतिम बार अपने परिजन को देख भी नहीं पाए. जिन्होंने मूंद लीं आंखें अपने प्रेमी, पति, पत्नी, बच्चे या साथी को देखे बिना. कितनी तड़प और कसक रही होगी उनके मन में कि छोड़ रहे होंगे संसार, तड़प रहे होंगे एक महामारी की पीड़ा से, उखड़ रही होंगी सांसें और ऐसे में वे चाहते होंगे एक बार, अंतिम बार अपने प्रियजन को देखना.

और वे प्रियजन, वे कितने कष्ट और पीड़ा में समय बिता रहे होंगे कि दिल के करीब रहने वाले अपने सबसे प्रिय व्यक्ति की अंतिम समय में सेवा भी ना कर पाए हों. जिन्होंने खाई होंगे कसमें साथ जीने की, साथ मरने की वे इस कदर बिछड़े कि आखरी बार छू भी नहीं पाए. वह बच्चा, और वह मां किस दर्द से गुज़री होगी जो मरने से पहले अपने बेटे को सीने से लगाकर रो ही ना पाई हो. उसे दुलार ही ना पाई, पुचकार ही ना पाई हो.

इससे भी ज़्यादा कष्टप्रद तो यह होगा जब मरने वाले को उसकी अपनी ज़मीन पर जगह भी ना मिले. इटली में जब मरने वालों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई तो लाशें ताबूतों में भरकर दूसरे शहरों में भेजी जाने लगीं. इस काम को अंजाम देने सेना बुलानी पड़ी. उस फौज़ के जवान कितना असहाय महसूस कर रहे होंगे जो ट्रकों में भरकर लोगों को बचाने नहीं बल्कि ताबूतों के ढेर को अलग-अलग शहरों में दफनाने जा रहे होंगे.

कुछ दिन पहले जब मैंने इटली की यह ख़बर पढ़ी थी कि कोरोना से मरे एक व्यक्ति की लाश को उसके परिजनों ने लेने से इनकार कर दिया. उस दिन मन कसक कर रह गया. एक लम्बी सांस जैसे कहीं अटक गई और जब निकली तो आह बनकर. कितना कष्टप्रद रहा होगा अपने परिजन को छोड़ देना. क्या वे संवेदनशील नहीं थे जिन्होंने छोड़ा? या वे व्यावहारिक थे कि जो मर चुका उसके मोह में जो जीवित हैं उनकी ज़िन्दगी को क्यों मुश्किल में डाला जाए. संभवतः यह संसार उन्हें स्वार्थी कहे.

एक पल को मैंने भी यही सोचा था. और तब मुझे लगा कि मेरे देश में जहां मृत्यु भी उत्सव है, जहां सद्गति के लिए ना जाने क्या-क्या अनुष्ठान किए जाते हैं, जहां मृत्यु के बाद भी वर्षों तक उनके नाम पर भोज होता है वहां ऐसा नहीं होगा. वहां के लोगों की संवेदना इस पिद्दी से विषाणु के आगे नहीं हारेगी. मेरे देश के परिजन मृतक का अंतिम-संस्कार अवश्य करेंगे, बिना छुए ही सही किन्तु करेंगे अवश्य.

लेकिन मैं ग़लत साबित हुई जब मैंने पढ़ी इसी देश की एक ख़बर जहां पंजाब में एक व्यक्ति की कोरोना से मृत्यु के बाद उसके परिजन अंतिम संस्कार के लिए उसकी लाश लेने आगे नहीं आए. तब प्रशासन ने उसका क्रिया-करम किया.मैं हैरत में सोचती रही कि मृत्यु पर छाती पीटकर शोकाकुल होने वाला यह समाज भी क्या ऐसा कर सकता है?

खैर, अब ऐसा हो तो गया है. किसी का 'है' से 'था' हो जाना दुखदायी होता है. किन्तु वह यदि किसी महामारी की चपेट में आकर मरा हो तो यह दुःख अपने साथ एक टीस भी छोड़ जाता है. अंतिम समय में ना मिल पाने की टीस.

इस वक़्त ने और इन घटनाओं ने मुझे यह सिखा दिया है कि जीवन में जितना समय मिले अपने-अपनों के साथ शिकवे-शिक़ायतों को भुलाकर बिता लेना चाहिए. वरना कौन जाने, कब किसी आपदा की चपेट में आकर मेरा यह क्षणभंगुर शरीर चिता के लिए भी पंक्ति में खड़ा हो, और परिजनों को आख़री समय में देखना भी नसीब ना हो. सुनो, तुम मृत्यु से पहले मुझसे मिल अवश्य लेना.

तुम्हारी

प्रेमिका

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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