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Bulli Bai app डिजिटल रूप है दिलों में पनपी नफरत के चलते धर्मांधता का

    • सरिता निर्झरा
    • Updated: 06 जनवरी, 2022 10:07 PM
  • 06 जनवरी, 2022 10:03 PM
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2022 में हम किस विकासशील समाज की संरचना कर रहे हैं? बुल्ली बाई एप क्या राजनीतिक संरक्षण में बना है या सामाजिक दिवालियेपन की देन है या पितृसत्ता का ज़हर अपने सबसे घिनौने रूप में बाहर आया है? ये टेक सेवी ,युवा भारत की खतरनाक तस्वीर हैं.

कोरोना की दस्तक अब किवाड़ पीटने में बदल गई है. रैलियों का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा. राजनेता और राजनीति दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से गर्त में गिरते जा रहे हैं और टीवी मीडिया प्रधानमंत्री के सुरक्षा घेरे में षड़यंत्र के ज़रिये सेंध लगाने की खबर के साथ साथ जैकलीन फर्नांडीज़ की मां के हर्ट अटैक की खबर के बीच नुक्क्ड़ पर खेल दिखाते नट की तरह नाचते नज़र आ रहें हैं. ना ना, ये दिन भर की रिपोर्ट नहीं बस आपको बताने का तरीका है की जिस देश में मुद्दे बिना मुद्दे 'आज की बात' को 'नौ बजे तक' या फिर 'दस तक' 'पूछता है भारत' वहां 'बुल्ली बाई' जैसे घटिया, खतरनाक और शर्मिंदगी की हद को पार करती हुई खबर पर कोई खास चर्चा परिचर्चा नहीं हुई. ज़ाहिर सी बात है, वक़्त की रफ्तार तेज़ है और हमारी स्मरण शक्ति कमज़ोर, साथ ही रिफ्लेक्स धीमे हैं. इसलिए हम भूल जाते है की तकरीबन छह महीने पहले ही इसी वाहियात सोच से निकली थी एक वेबसाइट जहां मुसलमान औरतों को शर्मिंदा करने का यही तरीका अपनाया गया था. यहां साफ़ कर दूं की जिनकी तस्वीरें लगी वो या कोई भी औरत शर्मिंदा नहीं होगी.

बुल्ली बाई एप एक समाज के रूप में हमारे दिलों में छिपी नफरत को दर्शाती है

हां ऐसी सोच के मर्द हमारे पिता भाई पति बेटे कुछ भी हो सकते हैं. ये सोच कर शर्मिंदगी दुःख और घृणा ज़रूर होती है. तो जनाब जहां महिला सुरक्षा को धता बजाने की पुरानी रवायत हो. वहां ऐसा कुछ होना कोई ख़ास बड़ी खबर नहीं। वो भी तब जब एक बड़ा तबका समझता हो की ठीक ही तो है, 400 साल पहले आये मुगलों का बदला आज के चार बालिश्त ऊपर अपने पैसे से 'मैगी' न खा पाने की औकात वाले लेंगे.

ज़ाहिर बात है इसे साइबर क्राइम की तर्ज पर रफा दफ़ा कर दिए गया और कुल जमा छ महीने में वर्ज़न 2.0 आ गया रिफाइन एप के शक्ल में. तरीका वही पुराना खास धर्म मतलब...

कोरोना की दस्तक अब किवाड़ पीटने में बदल गई है. रैलियों का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा. राजनेता और राजनीति दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से गर्त में गिरते जा रहे हैं और टीवी मीडिया प्रधानमंत्री के सुरक्षा घेरे में षड़यंत्र के ज़रिये सेंध लगाने की खबर के साथ साथ जैकलीन फर्नांडीज़ की मां के हर्ट अटैक की खबर के बीच नुक्क्ड़ पर खेल दिखाते नट की तरह नाचते नज़र आ रहें हैं. ना ना, ये दिन भर की रिपोर्ट नहीं बस आपको बताने का तरीका है की जिस देश में मुद्दे बिना मुद्दे 'आज की बात' को 'नौ बजे तक' या फिर 'दस तक' 'पूछता है भारत' वहां 'बुल्ली बाई' जैसे घटिया, खतरनाक और शर्मिंदगी की हद को पार करती हुई खबर पर कोई खास चर्चा परिचर्चा नहीं हुई. ज़ाहिर सी बात है, वक़्त की रफ्तार तेज़ है और हमारी स्मरण शक्ति कमज़ोर, साथ ही रिफ्लेक्स धीमे हैं. इसलिए हम भूल जाते है की तकरीबन छह महीने पहले ही इसी वाहियात सोच से निकली थी एक वेबसाइट जहां मुसलमान औरतों को शर्मिंदा करने का यही तरीका अपनाया गया था. यहां साफ़ कर दूं की जिनकी तस्वीरें लगी वो या कोई भी औरत शर्मिंदा नहीं होगी.

बुल्ली बाई एप एक समाज के रूप में हमारे दिलों में छिपी नफरत को दर्शाती है

हां ऐसी सोच के मर्द हमारे पिता भाई पति बेटे कुछ भी हो सकते हैं. ये सोच कर शर्मिंदगी दुःख और घृणा ज़रूर होती है. तो जनाब जहां महिला सुरक्षा को धता बजाने की पुरानी रवायत हो. वहां ऐसा कुछ होना कोई ख़ास बड़ी खबर नहीं। वो भी तब जब एक बड़ा तबका समझता हो की ठीक ही तो है, 400 साल पहले आये मुगलों का बदला आज के चार बालिश्त ऊपर अपने पैसे से 'मैगी' न खा पाने की औकात वाले लेंगे.

ज़ाहिर बात है इसे साइबर क्राइम की तर्ज पर रफा दफ़ा कर दिए गया और कुल जमा छ महीने में वर्ज़न 2.0 आ गया रिफाइन एप के शक्ल में. तरीका वही पुराना खास धर्म मतलब मुस्लिम धर्म की औरतों को नीलामी पर लगा कर सैडिस्ट यानि की परपीडा के मज़े उठाना.

अब मुद्दा दो भागों में बांटा जा सकता है - एक जिसे कहने से घबराना लाज़मी है की नफरत की जो फसल आज ज़मीन से सर उठा कर बसंत बयार का इंतज़ार कर रही है उसे सालों से बड़े जतन से हम आप जैसे ही बो रहे हैं. उसमे फ़र्टिलाइज़र और कीटनाशक की तर्ज़ पर ज़हर उगलते है न्यूज़ के नट. तो ये नई नस्ल के 18 से बीस बरस वाले हर धर्म के बच्चे-ध्यान से पढियेगा 'हर धर्'- अपने अपने धर्म के ज़हरीले नशेड़ी बन चुके है.

नशेड़ियों से क़त्ल भी करवाया जाये तो वो कर जायेंगे. कश्मीर ने अपनी पीढ़ियां ऐसे ही नशे में खोयी है. और अब गली मोहल्लों में दिन रात व्हाट्सप्प, इंटरनेट से मद्धम आंच की ट्रेनिंग और मंचों पर खड़े ज़हर उगलते नेता इस पीढ़ी को भी अपने सत्ता के लालच में स्वाहा करने पर आमादा है.

दूसरा भाग है वो जिसे अमूमन देखना नहीं चाहते हम. सभ्य जो हो गए है.ऐसे सभ्य जो पोर्न देखेंगे पर सेक्स एजुकेशन के परहेज़ करेंगे और मेट्रो में 18 बरस की लड़की को छूते हुए निकलने में मर्दानगी समझेंगे. वो सभ्य जो औरत को- धर्म जाति उम्र रंग हर मानक के परे कवल भोग्य समझता है. भोग की वस्तु.

औरत को कमोडिटी के तौर पर पेश करती दुनिया में रेज़र से ले कर मर्दों की बनियान और टी वी फ्रिज से ले कर वाहन तक को किसी औरत की शक्ल के बिना बेचा नहीं जाता. बिलकुल जैसे शिकार के स्थान पर मांस का लोथड़ा रखा जाता है. वही मांस का लोथड़ा है औरत.अब आपके हिसाब से छ महीने पहले हुए अपराध को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गयी इसकी वजह क्या है ये गणना आप करें. बताना तो है नहीं किसी को तो चाहे तो खुद से सच बोल लीजियेगा.

बाकि बेंगलुरु और उत्तराखंड से 21 बरस का लड़का और 18 बरस की लड़की गिरफ्तार हो गए है. मामला पुलिस देख रही है और हम और आप मास्क लगा कर वीकेंड कर्फ्यू के हालातों में आने वाले चुनावों के मुद्दों पर गौर करें यही ठीक. फिर भी सोचूं तो इन सबसे परे एक नज़रिया और है जिसे सुनते ही सभ्यता के ठेकेदारों को आग लग जाती है.

औरत वस्तु मानी जाती है इसके भाषाई प्रमाण है. औरत के भर्ता होते है,भतार-पति-मालिक! सदियों से औरत ऐसी वस्तु रही है जिसे हासिल किया जा सके, जिसे जीता जा सके, जिसे दांव पर लगाया जा सके और जिसे बांटा जा सके. तो जब कभी प्रभुत्ता की बात होती है तो,दांव पर लगती है औरत. दंगो में दो गुटों में से, एक-दूसरे के गुट की औरतों के सम्मान के चीथड़े कर देना विजयी होने की निशानी होते हैं.

औरत अमूमन हक़ और इज़्ज़त के लायक नहीं होती, कभी नहीं रही. कुछ शताब्दियों पहले हक की मांग हुई तो उसे जातीयता के आधार पर बांटा गया. स्वर्ण को शिक्षा के अधिकार मिले किन्तु दलित को नहीं. यहां तक की सभ्य समाज में पूरे कपड़े पहन छाती ढंकने का अधिकार भी दलित औरत को बाद में मिला. मनुष्य रूप में पैदा होने के बाद भी मनुष्य रूप में इज़्ज़त मांगी, छीनी या लड़ कर हासिल की.

आज भी प्रभुत्ता की लड़ाई अलग अलग तबको में चल रही है और ज़ाहिर बात है मध्य में है औरत. हर धर्म जाति की औरत इस खेल के मध्य में मैदान में पड़े लोथड़े सी है. जब जिसका पलड़ा भरी उसका वार और मात खाने वाली- औरत. ऐसे में औरत का बोलना सोचना और अपनी सोच के अनुसार जीवन जीने की कोशिश करना पितृसत्ताधारियों को नागवार गुज़रता है, शायद ये तमाम वजहों में से एक वजह है की बोलने सोचने वाली औरतों की बाजार में बोली लगा दी गयी.

इतिहास साक्ष्य है, मर्दों की प्रभुत्ता की जंग में औरत हमेशा हारी है. ऐसे हर अपराध की जड़ में पितृसत्ता, जातीयता का कोढ़ और सत्ता का लालच है. यही वजह है की मास्टर माइंड कहे जाने वाले प्यादों को पकड़ लेने के बाद इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हुई. पार्लियामेंट में औरतों की भागीदारी के नाम पर दबंग नेताओं में शुमार नेत्रियों ने भी आवाज़ नहीं उठायी और महिला आयोग से ले कर समाज सुधारक तक सब चुप है क्योंकि पितृसत्ता का कोढ़ और सत्ता का लालच महामारी से पुराना, खतरनाक और लाइलाज है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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