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Pushpa इतनी कामयाब क्यों? ये क्या हुआ हमारी पसंद को?

    • सरिता निर्झरा
    • Updated: 27 जनवरी, 2022 01:10 PM
  • 27 जनवरी, 2022 01:10 PM
offline
Pushpa Review: कुछ फिल्में किसी राय की मोहताज नहीं होती क्योंकि उनकी सफलता ही उनकी राय बनती है. नई कहानी के आभाव को लोकप्रिय हीरो, एक्शन ,आइटम नंबर पर नृत्य करती हेरोइन, कैमरे के कमाल के साथ पेश किया जाता है और 2022 में ठाकुर के नाजायज़ बेटे के क्रिमिनल तस्कर हीरो बनने की कहानी पर लोग बावरे हो जाते हैं.

शोर है चारों तरफ. 

इतना शोर की दक्षिण से उत्तर पूरब पश्चिम सब ओर एक सी धमक.

पुष्पा... पुष्पा.पुष्पा... पुष्पा. 

ऐसे में डब फिल्म न देखने की कसम तोड़ कर पुष्पा देख ही डाली. देखते ही दिमागी खलल की वजह से फिल्म में कहानी, अदाकारी ढूंढने की कोशिश करने लगे. और तो और लॉजिक ढूंढने की भी एक कोशिश सर उठा ही रही थी की उसका भी दमन किया और फिर दिमाग को झकझोर कर कुछ बातें याद दिलाई.

पहली बात- यूं तो फिल्मे होती ही फैंटसी को पर्दे पर उतरने का माध्यम लेकिन मसाला फिल्में हर सीमा के परे होती हैं. हिंसा, गुंडागर्दी ,अनाचार, क्राइम, इश्क़, अश्लीलता सब कुछ मतलब गुरु तुम्हारे दिमाग के पर्दे के पीछे जो खुराफ़ात छुपी हो वो किसी न किसी मसाला डाइरेक्टर के भी दिमाग में भी होगी और वो बनाएगा इस पर फिल्म और तुम 350 रूपये की टिकट ले कर उसे बनाओगे करोड़पति! तो ऐसी फिल्म के लिए पैसे के साथ दिमाग क्यों खर्चना. दिमाग को बंद कर इसे देखें

2022 में चंदन तस्करी की आड़ में सन 1970 के प्लॉट को दिखाती है अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा

दूसरी बात- साऊथ की प्रोफेशनल फिल्म मेकिंग के साथ उनके दिमाग में स्टोरी क्लियर होती है. वो देश समाज, क्राइम, प्रेम सब एक में नहीं बीनते ऐसा मेरा मानना है. तो जहां Sivaranjaniyum Innum Sila Pengallum जैसी कमाल फिल्म बनी है वहीं मसाले में मसाला फुलऑन गरममसाला विद एक्स्ट्रा कालीमिर्च बनी है,पुष्पा. देखो न देखो आपकी मर्ज़ी. वो तो बन ही गए करोड़पति!

इस झकझोर ज्ञान के बाद भी पुलिसिए ख्याल आते रहते और सवाल पूछते रहे. मसलन इतने पढ़े लिखे भारत के हिस्से में ऐसी फिल्म जिसमे औरत मात्र देह के तौर पर दिखाई जा रही है, इसपर क्यों इतने डंके बज रहें हैं...

शोर है चारों तरफ. 

इतना शोर की दक्षिण से उत्तर पूरब पश्चिम सब ओर एक सी धमक.

पुष्पा... पुष्पा.पुष्पा... पुष्पा. 

ऐसे में डब फिल्म न देखने की कसम तोड़ कर पुष्पा देख ही डाली. देखते ही दिमागी खलल की वजह से फिल्म में कहानी, अदाकारी ढूंढने की कोशिश करने लगे. और तो और लॉजिक ढूंढने की भी एक कोशिश सर उठा ही रही थी की उसका भी दमन किया और फिर दिमाग को झकझोर कर कुछ बातें याद दिलाई.

पहली बात- यूं तो फिल्मे होती ही फैंटसी को पर्दे पर उतरने का माध्यम लेकिन मसाला फिल्में हर सीमा के परे होती हैं. हिंसा, गुंडागर्दी ,अनाचार, क्राइम, इश्क़, अश्लीलता सब कुछ मतलब गुरु तुम्हारे दिमाग के पर्दे के पीछे जो खुराफ़ात छुपी हो वो किसी न किसी मसाला डाइरेक्टर के भी दिमाग में भी होगी और वो बनाएगा इस पर फिल्म और तुम 350 रूपये की टिकट ले कर उसे बनाओगे करोड़पति! तो ऐसी फिल्म के लिए पैसे के साथ दिमाग क्यों खर्चना. दिमाग को बंद कर इसे देखें

2022 में चंदन तस्करी की आड़ में सन 1970 के प्लॉट को दिखाती है अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा

दूसरी बात- साऊथ की प्रोफेशनल फिल्म मेकिंग के साथ उनके दिमाग में स्टोरी क्लियर होती है. वो देश समाज, क्राइम, प्रेम सब एक में नहीं बीनते ऐसा मेरा मानना है. तो जहां Sivaranjaniyum Innum Sila Pengallum जैसी कमाल फिल्म बनी है वहीं मसाले में मसाला फुलऑन गरममसाला विद एक्स्ट्रा कालीमिर्च बनी है,पुष्पा. देखो न देखो आपकी मर्ज़ी. वो तो बन ही गए करोड़पति!

इस झकझोर ज्ञान के बाद भी पुलिसिए ख्याल आते रहते और सवाल पूछते रहे. मसलन इतने पढ़े लिखे भारत के हिस्से में ऐसी फिल्म जिसमे औरत मात्र देह के तौर पर दिखाई जा रही है, इसपर क्यों इतने डंके बज रहें हैं भाई? हां बॉलीवुड भी करता है. टीवी भी, इंटरनेट भी ऐडवर्टाइज़मेंट भी और...कुल मिला कर इस बात पर हम बहस नहीं कर सकते की पढ़े लिखे और अनपढ़ जिस हीरो को हीरो मान बौराये घूम रहे वो 1000 में लड़की की मुस्कान और 5000 में 'चुम्मी ' खरीद सकता है. हां बाद में वो लड़की उनकी होने वाली बन जाती है जिसके शरीर पर हीरो का हाथ बेलगाम घूमता है.

चलो मान लिया कहानी है पर कीमत तो लगा ही दी गयी न! अब औरत की कीमत.... चलिए आगे बढ़ते है. इतना दिमाग क्या लगाना। हां वो हिंदी में डब गाना ' उं बोले उं उं बोले' ऐसा कुछ था क्या? क्या भाई इतने लिखनेवाले है कुछ बढ़िया लिखवाते। समांथा रुथ इज़ मतलब कतई जहर. मतलब बहुत अच्छा डांस किन्तु शब्द...

अच्छा आगे चलो पुलिस को हीरो बनाने वाली हाल के सालों की तमाम फिल्मो के बीच आई है पुष्पा 'फ्लॉवर नहीं है फायर है!', और इस फायर ने पुलिस को धता बता कर वर्दी से सीधा lacoste के बॉक्सर में खड़ा कर दिया है. इन सवालों के बीच कहानी को अगर कहना चाहूं सबसे पहली बात, हीरो के पास पेजर है पेजर! समझ रहें है न. तो कहानी आज से 25 साल पहले की है. लेकिन उसका फ्लेवर यानि परत के नीचे का मिजाज़ देखें तो सन सत्तर का है.

दक्षिण के जंगलों में चंदन की तस्करी और उसके गिरोहों की उठापटक के बीच हीरो अल्लू अर्जुन उर्फ़ पुष्पा एक मज़दूर से कुछ ही महीनो में चार टका पार्टनर और फिर सिंडिकेट का हेड बन जाता है. पुलिस पुष्पा के शातिर दिमाग और अपने करप्शन के बीच इस तस्करी को पकड़ने में नाकाम दिखाई गयी है. दूसरे हॉफ में भैरों सिंह शेखावत के रूप में फ़वाद फसिल के आने से लगा की शायद अच्छाई की बुराई पर जीत जैसा कुछ हो और पुष्पा सुधर जाए, जेल जाये या ऐसा कुछ, लेकिन फिर वही- फिल्म में हीरो बस हीरो!

अंत तक पुष्पा फायर बन कर जलता जलाता रहा. बस इतना ही बीच में एक ट्रैक पर उसके नाजायज़ होने और बाप का नाम न होने के ज़ख्म को कुरेदते समाज की कहानी. पुष्पा का लव इंटरेस्ट श्रीवल्ली यानि रशमिका मंदाना और औरत को अपनी जागीर समझने वाले विलेन का भाई. औरत समाज में अबला , पुरूष के सहारे के बिना बेबस दिखाई गयी है. कुल मिलकर डब फिल्म देखकर भयंकर पछतावा और साउथ की मसाला फिल्म मेरी पसंद नहीं इस बात की तस्दीक हुई.

पूरी फिल्म में कई बार सन सत्तर की बेचारी मां, मेरा बाप चोर है जैसी मजबूरी में दुखी हीरो या फिर 'ये अक्खा मांडवा अपुन का है', अग्निपथ की रत्ती भर की खुशबु आ सकती है. बाकि 2022 में फैंटसी के नाम पर एक क्रमिनल, तस्कर, जंगल को काटकर बेचने वाले को हीरो बना कर सत्तर की कहानी को चार गानो, 3 फाइट सीन, के ज़रिये नयेपन के साथ लाने में फ़िल्मकार सफल हुआ है. सफल इसलिए क्योंकि फिल्म चल रही है. 

यहां चलना ही सफलता की कुंजी है. हम लिखें आप पढ़े क्या ही होगा, भैया जो चल गया वो तो चल ही गया न. हां, वो अल्लु अर्जुन वाज़ ए आई कैंडी! व्हाई शुड बॉयज हैव ऑल द फन?लेकिन कंधा क्यों टेढ़ा किये थे यार? भक्क शुद्धे हिंदी फिल्म देखते तब ही ठीक था.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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