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सत्तर के दशक की जिंदगी का दस्‍तावेज़ है बासु चटर्जी की फिल्‍में

    • प्रशांत रंजन
    • Updated: 18 जुलाई, 2024 02:03 PM
  • 18 जुलाई, 2024 01:16 PM
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सत्तर के दशक में आम भारतीयों के नागरीय जीवन का दस्तावेज फिल्मकार बासु चटर्जी अपनी फिल्मों के माध्यम से तैयार कर छोड़ गए हैं, जिन्हें समेटकर रखना हर अगली पीढ़ी का दायित्व है.

फिल्म देखते समय हमारे मन में एक सहज भाव रहता है कि एक कहानी देखेंगे जिसमें मजा आएगा. पीरियड ड्रामा, प्रेम कथा, सामाजिक-राजनीतिक विषयक, साइक्लॉजिकल थ्रिलर इत्यादि. लेकिन, कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जिन्हें हम अपनी सामान्य दिनचर्या से जोड़कर देखने लगते हैं. बासु चटर्जी की फिल्में ऐसा ही एहसास करातीं हैं.

बासु दा का लालन—पालन एक सामान्य शहरी मध्यम वर्ग परिवार में हुआ और उनकी फिल्में भी इसी परिवेश की कथा कहती हैं. सिनेमा विधा में जो लार्जर दैन लाइफ का मायावी सम्मोहन है, बासु उससे दूर हमारी रोजमर्रा की जीवनशैली को पर्दे पर उतारते हैं. उनकी फिल्मों में कभी हम स्वयं को पाते हैं, तो कभी अपने पिता, बहन, प्रेमी, प्रेमिका, पत्नी, मित्र, बॉस, पड़ोसी को देखते हैं. जैसे बासु दा ने चुपके से हमारे पड़ोस वाले सीधे—साधे विद्यार्थी की कहानी को फिल्मा डाला हो, जैसे पापा के ऑफिस में आए नवयुवा के मनोभावों को सबके सामने उकेर दिया हो, जैसे हमारे ही किसी रिश्तेदार की खट्टी-मीठी आपबीती कह दी हो, जैसे ऋषिकेश मुखर्जी से जो छूट रहा हो उसे बासु दा ने जोड़ दिया हो. लेकिन, रुकिए. वे चौंकाते हैं, जब सिडनी ल्यूमेट की क्लासिक '12 एंग्री मैन' को 'एक रुका हुआ फैसला' के रूप में ढालते हैं.

पिछली सदी के अंतिम वर्षों में अधिकतर मध्यम वर्गीय परिवारों में 14 इंच का श्वेत-श्याम टेलीविज़न सेट हुआ करता था, तो हमारे यहां भी वही था. सप्ताहांत में कुल जमा तीन हिंदी फीचर फिल्में आती थीं. संयोग ऐसा कि रहा कि उसी सीमित व्यवस्था में अमोल पालेकर अभिनीत 'छोटी सी बात' दो बार देख लिया. कुछ महीने बाद 'रजनीगंधा' देखी. बाल मन को लगा कि पुरानी वाली ('छोटी सी बात') फिल्म ही है क्या? हालांकि दो—तीन दृश्यों के बाद भ्रम दूर हुआ. कालांतर में 'बातों बातों में', 'चितचोर' आदि भी देखा. सबमें एक समानता अमोल पालेकर के रूप में समझ आई. बहुत बाद में कॉलेज के दिनों एक अन्य समानता का भी भान हुआ. यह कि इन सब फिल्मों के निर्देशक एक ही हैं बासु चटर्जी.

जनसंचार के विद्यार्थी के...

फिल्म देखते समय हमारे मन में एक सहज भाव रहता है कि एक कहानी देखेंगे जिसमें मजा आएगा. पीरियड ड्रामा, प्रेम कथा, सामाजिक-राजनीतिक विषयक, साइक्लॉजिकल थ्रिलर इत्यादि. लेकिन, कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जिन्हें हम अपनी सामान्य दिनचर्या से जोड़कर देखने लगते हैं. बासु चटर्जी की फिल्में ऐसा ही एहसास करातीं हैं.

बासु दा का लालन—पालन एक सामान्य शहरी मध्यम वर्ग परिवार में हुआ और उनकी फिल्में भी इसी परिवेश की कथा कहती हैं. सिनेमा विधा में जो लार्जर दैन लाइफ का मायावी सम्मोहन है, बासु उससे दूर हमारी रोजमर्रा की जीवनशैली को पर्दे पर उतारते हैं. उनकी फिल्मों में कभी हम स्वयं को पाते हैं, तो कभी अपने पिता, बहन, प्रेमी, प्रेमिका, पत्नी, मित्र, बॉस, पड़ोसी को देखते हैं. जैसे बासु दा ने चुपके से हमारे पड़ोस वाले सीधे—साधे विद्यार्थी की कहानी को फिल्मा डाला हो, जैसे पापा के ऑफिस में आए नवयुवा के मनोभावों को सबके सामने उकेर दिया हो, जैसे हमारे ही किसी रिश्तेदार की खट्टी-मीठी आपबीती कह दी हो, जैसे ऋषिकेश मुखर्जी से जो छूट रहा हो उसे बासु दा ने जोड़ दिया हो. लेकिन, रुकिए. वे चौंकाते हैं, जब सिडनी ल्यूमेट की क्लासिक '12 एंग्री मैन' को 'एक रुका हुआ फैसला' के रूप में ढालते हैं.

पिछली सदी के अंतिम वर्षों में अधिकतर मध्यम वर्गीय परिवारों में 14 इंच का श्वेत-श्याम टेलीविज़न सेट हुआ करता था, तो हमारे यहां भी वही था. सप्ताहांत में कुल जमा तीन हिंदी फीचर फिल्में आती थीं. संयोग ऐसा कि रहा कि उसी सीमित व्यवस्था में अमोल पालेकर अभिनीत 'छोटी सी बात' दो बार देख लिया. कुछ महीने बाद 'रजनीगंधा' देखी. बाल मन को लगा कि पुरानी वाली ('छोटी सी बात') फिल्म ही है क्या? हालांकि दो—तीन दृश्यों के बाद भ्रम दूर हुआ. कालांतर में 'बातों बातों में', 'चितचोर' आदि भी देखा. सबमें एक समानता अमोल पालेकर के रूप में समझ आई. बहुत बाद में कॉलेज के दिनों एक अन्य समानता का भी भान हुआ. यह कि इन सब फिल्मों के निर्देशक एक ही हैं बासु चटर्जी.

जनसंचार के विद्यार्थी के रूप निर्देशक वार फिल्में देखने की परंपरा का निर्वाह किया, उसमें सिने सोसाइटी आंदोलन का विपुल सहयोग मिला. फिर तो अभियान चलाकर बासु दा की फिल्में देखी गईं. उस पार, पिया का घर, स्वामी, दो लड़के दोनों कड़के, मन पसंद, शौकीन और एक रुका हुआ फैसला. इस दौरान पालेकर अभिनीत कोई अन्य फिल्म भी देखता, तो एक बार पहले सीडी या डीवीडी कवर पर या फिल्म के आरंभ में उत्सुकतावश यह देखता कि कहीं इस फिल्म के निर्देशक भी बासु दा तो नहीं हैं! किशोर मन में कहीं यह बैठ सा गया था कि पालेकर की फिल्में बासु दा ही बनाते हैं. हलांकि, यह भाव क्षणिक ही रहा. 

बासु दा की फिल्मों के जवान पुरुष पात्रों को देख स्वयं को उसमें ढूंढ़ता. फिर कुछ अपने जैसा नहीं पाने पर पात्र के काया में प्रवेश की मानसिक चेष्टा करता. मन कहता कि मैं भी ऐसा ही हूं. किसी अन्य फिल्म के पात्रों में खुद को नहीं खोजा. जैसे एंग्री यंग मैन या काका जैसा बनना चाहा. लेकिन, उन दोनों में अथवा किसी अन्य पात्र में  खुद को नहीं पाया. जैसे की बासु दा के पात्रों में पाता. ऐसा इसलिए होता, क्योंकि बासु दा हम जैसे सीमित संसाधन में जीने वाले आम मध्यमवर्ग युवा के शहरी जीवन को कैमरे से रिकॉर्ड कर सीधा बड़े पर्दे पर प्ले कर दिया हो. नाटकीय के बजाय पारदर्शिता. जैसे कैमरे नहीं, कांच से फिल्मा लिया हो. इन सब विशेषताओं के अतिरिक्त सत्तर के दशक में आम भारतीयों के नागरीय जीवन का दस्तावेज भी बासु दा अपनी फिल्मों के माध्यम से तैयार कर छोड़ गए हैं, जिन्हें समेटकर रखना हर अगली पीढ़ी का दायित्व है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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