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Masaba Masaba series और हकीकत में जमीन-आसमान जितना ही फर्क है

    • अंकिता जैन
    • Updated: 06 सितम्बर, 2020 08:01 PM
  • 06 सितम्बर, 2020 08:01 PM
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मसाबा-मसाबा (Masaba Masaba web series) स्त्री की आर्थिक और आत्मिक स्वतंत्रता पर अच्छी सीरीज है. लेकिन इतनी सरल ज़िन्दगी पेज 3 वालों या अति अमीर परिवार वालों को ही नसीब होती है कि वे अचानक एक दिन अपना तलाक़ इंस्टाग्राम पर एनाउंस कर दें और उनसे कोई सवाल तक ना करे. आम ज़िन्दगी में ऐसा नहीं होता.

कुछ साल पहले जब वह घर लौटकर आई तो मां चिंतित हो उठीं. बेटी के मायके आने पर मांएं यह भांप लेती हैं कि बेटी ख़ुश होकर चंद दिन रहने आई है या ससुराल में लड़कर वापस ना लौटने का मन बनाकर. वैसे ही उसकी मां ने भी भांप लिया और फिर शुरू हुआ पारिवारिक ट्रायल पीरियड. माता-पिता, भाई-बहन के अलावा, पड़ोसी, रिश्तेदार यहां तक की दोस्त भी इस बात को हज़म नहीं कर पा रहे थे कि 'जब ससुराल में कोई मारता पीटता नहीं, पैसे की कोई कमी नहीं तो फ़िर तुम ना ख़ुश क्यों हो?' उन लोगों की एक दूसरी चिंता भी थी कि, 'तलाक़ लोगी तो लोग क्या कहेंगे?' 'आजकल कुंवारियों को तो अच्छे लड़के मिलते नहीं तलाक़शुदा को कहां से मिलेगा'. दबे-छुपे यह भी बात कही जाने लगी, 'लड़की वापस ना लौटने के लिए आई हो तो मायके में भी बोझ बन जाती है.' कोई भी उससे यह नहीं पूछ रहा था कि वह नाख़ुश क्यों है? किसी रिश्ते में ख़ुशी के लिए उसकी जो परिभाषा है, उम्मीदें हैं वे अलग क्यों हैं?

जिस समाज में लड़कियों को बड़ा ही 'ससुराल जाओगी तो नाक कटाओगी' के सुर-ताल के साथ किया जाता हो वहां मानसिक अशांति भी किसी विवाह को तोड़ने के लिए वजह बन सकती है यह किसी को हज़म नहीं होता. 'अरे लड़कियों को शादी में कोम्प्रोमाईज़ करना पड़ता है, झुकना पड़ता है, थोड़ी बहुत इच्छाएं मारनी पड़ती हैं, तुम कहां की अलग हो, वापस नहीं जाओगी तो करोगी क्या?, 10-12 हज़ार की नौकरी में गुज़ारा कर लोगी?', जैसी कई बातें उसे सुनाई गईं. अंततः उसे वापस भेज दिया गया जहां बेमन से, डिप्रेशन के साथ उसने अपना जीवन गुज़ार दिया.

देखने के लिहाज से मसाबा मसाबा एक अच्छी सीरीज है लेकिन हमारा समाज इससे अलग है

मसाबा-मसाबा देखी. स्त्री की आर्थिक और आत्मिक स्वतंत्रता पर अच्छी सीरीज है लेकिन इतनी सरल ज़िन्दगी पेज 3...

कुछ साल पहले जब वह घर लौटकर आई तो मां चिंतित हो उठीं. बेटी के मायके आने पर मांएं यह भांप लेती हैं कि बेटी ख़ुश होकर चंद दिन रहने आई है या ससुराल में लड़कर वापस ना लौटने का मन बनाकर. वैसे ही उसकी मां ने भी भांप लिया और फिर शुरू हुआ पारिवारिक ट्रायल पीरियड. माता-पिता, भाई-बहन के अलावा, पड़ोसी, रिश्तेदार यहां तक की दोस्त भी इस बात को हज़म नहीं कर पा रहे थे कि 'जब ससुराल में कोई मारता पीटता नहीं, पैसे की कोई कमी नहीं तो फ़िर तुम ना ख़ुश क्यों हो?' उन लोगों की एक दूसरी चिंता भी थी कि, 'तलाक़ लोगी तो लोग क्या कहेंगे?' 'आजकल कुंवारियों को तो अच्छे लड़के मिलते नहीं तलाक़शुदा को कहां से मिलेगा'. दबे-छुपे यह भी बात कही जाने लगी, 'लड़की वापस ना लौटने के लिए आई हो तो मायके में भी बोझ बन जाती है.' कोई भी उससे यह नहीं पूछ रहा था कि वह नाख़ुश क्यों है? किसी रिश्ते में ख़ुशी के लिए उसकी जो परिभाषा है, उम्मीदें हैं वे अलग क्यों हैं?

जिस समाज में लड़कियों को बड़ा ही 'ससुराल जाओगी तो नाक कटाओगी' के सुर-ताल के साथ किया जाता हो वहां मानसिक अशांति भी किसी विवाह को तोड़ने के लिए वजह बन सकती है यह किसी को हज़म नहीं होता. 'अरे लड़कियों को शादी में कोम्प्रोमाईज़ करना पड़ता है, झुकना पड़ता है, थोड़ी बहुत इच्छाएं मारनी पड़ती हैं, तुम कहां की अलग हो, वापस नहीं जाओगी तो करोगी क्या?, 10-12 हज़ार की नौकरी में गुज़ारा कर लोगी?', जैसी कई बातें उसे सुनाई गईं. अंततः उसे वापस भेज दिया गया जहां बेमन से, डिप्रेशन के साथ उसने अपना जीवन गुज़ार दिया.

देखने के लिहाज से मसाबा मसाबा एक अच्छी सीरीज है लेकिन हमारा समाज इससे अलग है

मसाबा-मसाबा देखी. स्त्री की आर्थिक और आत्मिक स्वतंत्रता पर अच्छी सीरीज है लेकिन इतनी सरल ज़िन्दगी पेज 3 वालों या अति अमीर परिवार वालों को ही नसीब होती है कि वे अचानक एक दिन अपना तलाक़ इंस्टाग्राम पर एनाउंस कर दें और उनसे कोई सवाल तक ना करे.

भारत में एक बहुत बड़ा तबका मध्यमवर्गीय परिवारों का है जहाँ तलाक़ शब्द सुनकर आज भी घरवालों को वैसे ही करेंट लगता है जैसे मैंने ऊपर उस लड़की की कहानी में बताया. मसाबा की तरह एक अलग घर लेकर अपनी ज़िन्दगी शुरू करने का सपना भी लड़कियां डर में नहीं देखतीं. इसके लिए स्वीकार्यता आने में अभी इस समाज को बहुत वक़्त लगेगा. अभी तो ये 'एक थप्पड़ की वजह से तलाक़ कौन लेता है' ही स्वीकार नहीं कर पा रहा तो मसाबा जैसा जीवन कहां स्वीकारेगा?

हां लेकिन यह फ़िल्म अपनी शर्तों पर जी चुकी एक पॉपुलर मां और उसके द्वारा अपनी बेटी पर लगाई जा रही पावंदियों को समझने के लिए देखी जा सकती है. इस फ़िल्म से यदि कुछ सीखा जा सकता है तो वह ये कि आप आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना पहले चुनिए। यदि आप आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं तो आपको वह शक्ति मिलती है जो आपके नाम में लगे 'केयर ऑफ' को हटाकर आपकी अपनी नेम प्लेट तक ले जाए.

मुझे याद है परिवार में किसी लड़की की शादी ना करने की इच्छा का समर्थन जब मैंने किया तो मुझे एक क़रीबी ने कहा था 'ख़ुद तो पैसे वाले घर में ऐश कर रही है उसे शादी ना करने के लिए भड़का रही है'. शादी ने नाख़ुश रहने वाली, तलाक़ की बातें करने वाली या तलाक़ ले चुकी लड़कियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. सभ्य लोगों को उनसे दूर रहने कहा जाता है. अमीर घर में लड़कियां ऐश ही करती होंगी यही मान्यता है यह अनदेखी करते हुए कि ऐश की परिभाषा सबकी अलग-अलग होती है.

कुल मिलाकर मसाबा एक अच्छी फ़िल्म है जो औरत के लिए बने काफ़ी सारे बेरियर तोड़ती दिखती है लेकिन आपका परिवार इससे कुछ सीखेगा ऐसी उम्मीद बेमानी है. हां आप यानि स्त्री ख़ुद चाहे तो इससे अपने लिए खड़े होना और आर्थिक/मानसिक रूप से आत्मनिर्भर बनना सीख सकती हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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