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Choked के जरिए अनुराग कश्यप ने नोटबंदी के घोटाले पर गोली चलाई, जो मिस फायर हो गयी

    • सिद्धार्थ अरोड़ा सहर
    • Updated: 07 जून, 2020 04:22 PM
  • 07 जून, 2020 04:22 PM
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अनुराग कश्यप (Anurag Kashyap) की बहुचर्चित फिल्म चोक्ड: पैसा बोलता है (Choked: Paisa Bolta Hai ) रिलीज हो गई है. मगर जब इस फिल्म पर नजर डालें तो मिलता है कि फिल्म आम आदमी (Comman Man) की समस्या को तो बता रही है मगर इसमें अनुराग ने वो चीजें दिखाने में नाकाम रहे जो इस फिल्म को रियल बना सकती थीं.

नेटफ्लिक्स (Netflix) पर हालिया रिलीज़ अनुराग कश्यप निर्मित चोक्ड (Choked) ख़ासी चर्चा में है. इसकी कहानी एक बैंकर सरिता पिल्लई (सैयामी खेर) से शुरु होती है जो मध्यम वर्गीय परिवार में अपने पति की बेरोज़गारी, लोगों के ताने और घर के टपकते-जाम होते पाइप से दुःखी है. वहीं इसके ठीक ऊपर के फ्लैट में किसी एमएलए का सक्रेटरी है जो दस दिन में एक बार फ्लैट खोलता है, फ्लैट में रखे ब्रीफकेस में से कुछ नोटों के बंडल बनाकर अपनी नाली में डाल देता है और कुछ को साथ लेकर चला जाता है. एक ऐसा फ्लैट, जिसमें हर वक्त लाखों या शायद करोड़ों का कालाधन (black money) पड़ा रहता है. उसकी चाबी उसी फ्लैट के डोरमेट में छुपी रहती है. Choked शब्द सुनते ही मेरे दिमाग में पहला ख्याल गला चोक होने का आता है. शायद आपको भी गले का रुंध जाना या ख़राब हो जाना याद आता हो, मैं प्लम्बर होता तो मुझे नाली या पाइप फंस जाना सूझता, अनुराग ने यहां चतुराई से दोनों ही सोच को सही साबित ठहराया है.

फिल्म चोक्ड के लिए अनुराग ने विषय तो सही उठाया मगर वो विषय के साथ इंसाफ नहीं कर पाए

ये फिल्म देखने वालों के लिए सरप्राइज़ एलिमेंट है. सिर्फ इसी कारण (जो आप फिल्म देखकर बेहतर समझ पायेंगे) ये फिल्म सिंगल डायमेंशन में न फंसकर, ड्यूल साइड स्क्रीनप्ले पर चल रही है. सीधे लफ्ज़ों में बैक स्टोरी का फिल्म पर अच्छा प्रभाव है. अब एक रात सरिता को अपने किचन सिंक की पाइप से उफनते हुए नोटों के बंडल प्लास्टिक की थैली में बंधे मिलते हैं. सरिता की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता. पति का कर्ज़ा, घर की बदहाली, सबका इलाज इन नोटों से हो सकता है.

वो पता करती है कि ये नोट नकली तो नहीं हैं, पर नहीं, नोट असली निकलते हैं. अब वो कुछ दिन चैन से गुज़ारने ही लगी होती है कि नोटबंदी हो जाती है. यहां अनुराग...

नेटफ्लिक्स (Netflix) पर हालिया रिलीज़ अनुराग कश्यप निर्मित चोक्ड (Choked) ख़ासी चर्चा में है. इसकी कहानी एक बैंकर सरिता पिल्लई (सैयामी खेर) से शुरु होती है जो मध्यम वर्गीय परिवार में अपने पति की बेरोज़गारी, लोगों के ताने और घर के टपकते-जाम होते पाइप से दुःखी है. वहीं इसके ठीक ऊपर के फ्लैट में किसी एमएलए का सक्रेटरी है जो दस दिन में एक बार फ्लैट खोलता है, फ्लैट में रखे ब्रीफकेस में से कुछ नोटों के बंडल बनाकर अपनी नाली में डाल देता है और कुछ को साथ लेकर चला जाता है. एक ऐसा फ्लैट, जिसमें हर वक्त लाखों या शायद करोड़ों का कालाधन (black money) पड़ा रहता है. उसकी चाबी उसी फ्लैट के डोरमेट में छुपी रहती है. Choked शब्द सुनते ही मेरे दिमाग में पहला ख्याल गला चोक होने का आता है. शायद आपको भी गले का रुंध जाना या ख़राब हो जाना याद आता हो, मैं प्लम्बर होता तो मुझे नाली या पाइप फंस जाना सूझता, अनुराग ने यहां चतुराई से दोनों ही सोच को सही साबित ठहराया है.

फिल्म चोक्ड के लिए अनुराग ने विषय तो सही उठाया मगर वो विषय के साथ इंसाफ नहीं कर पाए

ये फिल्म देखने वालों के लिए सरप्राइज़ एलिमेंट है. सिर्फ इसी कारण (जो आप फिल्म देखकर बेहतर समझ पायेंगे) ये फिल्म सिंगल डायमेंशन में न फंसकर, ड्यूल साइड स्क्रीनप्ले पर चल रही है. सीधे लफ्ज़ों में बैक स्टोरी का फिल्म पर अच्छा प्रभाव है. अब एक रात सरिता को अपने किचन सिंक की पाइप से उफनते हुए नोटों के बंडल प्लास्टिक की थैली में बंधे मिलते हैं. सरिता की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता. पति का कर्ज़ा, घर की बदहाली, सबका इलाज इन नोटों से हो सकता है.

वो पता करती है कि ये नोट नकली तो नहीं हैं, पर नहीं, नोट असली निकलते हैं. अब वो कुछ दिन चैन से गुज़ारने ही लगी होती है कि नोटबंदी हो जाती है. यहां अनुराग स्पेशल टच देखने को मिलता है कि जो फक्कड़ हैं, जिनकी जेब में एक सिक्का नहीं, वो इसे जश्न की तरह मनाने लगते हैं कि मोदी जी ने क्या महान काम किया है.

दूसरी ओर जो कालाबाज़ारी हैं, वो उसे अवसर की तरह ले लेते हैं कि चलो अब दो का ढाई करने का मौका मिला पर जो घरेलू कामकाजी महिलाएं हैं, जो पैसे जोड़-जाड़कर इधर-उधर डब्बे में छुपाती थीं. उनके पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है. अब इसके बाद ये कमी खलती है कि फिल्म एमएलए के पीए को निरा अहमक दिखाती है जो ऐसे पंचायती फ्लैट में धन छोड़कर चला जाता है.

वहीं कालाबाज़ारी को ग़लत तो बताती है पर लेकिन उसपर कोई एक्शन होते नहीं दिखाती. तीसरी ओर, जिस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा फोकस की उम्मीद थी और ज़रुरत थी. नोटों की अदला-बदली घोटाले में बैंक का रोल क्या है? पर इसको फिल्म छूने से भी परहेज़ करती है. मध्यम वर्ग को इनोसेंट दर्शाने की बजाए मौकापरस्त घोषित करती है जिससे सिम्पैथी फैक्टर नदारद हो जाता है.

शायद इसीलिए मेरी नज़र में Choked अनुराग कश्यप का वो नीमकश तीर है जो ज़ख्म तो देखा है पर दिल के आर-पार नहीं हो पाता. फिल्म एक हाई-पॉइंट तक लेकर तो जाती है, अच्छी एक्टिंग और बढ़िया डायलॉग का समागम तो बनाती है पर कहानी शुरु से मध्य तक ऊपर चढ़ने के बाद अंत में उतरते हुए एक परिवार की आतंरिक मसले और सुलह तक ही ख़त्म हो जाती है. सरिता के पति सुशांत नामक पात्र का लास्ट एक्शन भी जस्टिफाई नहीं हो पाता पर एक पॉजिटिव जेस्चर ज़रूर देता है.

कुलमिलाकर मैं ये नहीं कहता कि Choked देखकर आपको मज़ा नहीं आयेगा या अंत होने पर आपके चेहरे पर स्माइल नहीं आयेगी, मैं बस ये बताना चाहता हूं कि अगर आप बहुत बड़े गड़बड़ घोटाले के ज़ायके की उम्मीद लगाए बैठे हो तो नमक ज़रा कम लगेगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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