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Thappad क्या हमारी ज़िन्दगी का एक बेहद आम सा हिस्सा बन गया है?

    • अंकिता जैन
    • Updated: 05 मई, 2020 06:16 PM
  • 05 मई, 2020 06:16 PM
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निर्देशक अनुभव सिन्हा (Anubhav Sinha) ने अपनी फिल्म थप्पड़ (Thappad) में वही दिखाया है जिसका सामना आज हमारे देश में महिलाओं की एक बड़ी आबादी कर रही है. अफ़सोस की बात ये है कि समाज के डर के कम ही महिलाएं इसके खिलाफ आवाज़ उठाती हैं.

"मैं भी कार चलाना सीख लूं?"

"तुम पहले ढंग के परांठे बनाना तो सीख लो, बिना जले"

जानते हैं थप्पड़ फ़िल्म (Thappad Film) में अमु का तलाक़ क्यों हुआ? सिर्फ़ इसलिए नहीं कि विक्रम ने थप्पड़ मारा, बल्कि इसलिए भी उस थप्पड़ को 'तो क्या हुआ, हो गया.. मैं गुस्से में था' वाले एटीट्यूड ने पोषित किया. उस थप्पड़ की रात अमु को घर वापस ठीक करते देख उसकी सास ने बस इतना कहा 'बाई के आने का इंतज़ार कर लेतीं', अगली सुबह भी उन्होंने बस इतना पूछा 'विक्रम ठीक से सोया या नहीं' अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का है कि ऐसा करने वाले पति और सास फ़िल्म के अंदर सिर्फ़ एक नहीं है बल्कि हज़ारों हैं.

आप सबने मुझे बहुत प्यार दिया लेकिन मुझे बाद में समझ आया कि वो प्यार मेरे लिए नहीं था, 'आपके बेटे की पत्नी के लिए था, इसलिए मुझसे कोई मिलने नहीं आया' यही होता भी है. शादी के बाद लड़की का निज-अस्तित्व बचता ही कितना है? वो सास जिसने सारी ज़िन्दगी डायनिंग पर बैठे-बैठे पति और बेटों के इंतज़ार में बिता दी वो यही चाहती हैं कि शादी के बाद बहु यह सब करे. बेटा ख़ुद से थाली लगा ले ये सास को क़ुबूल नहीं होता.

'एक थप्पड़ ही तो था', 'अब ये दिन भी देखना पड़ेगा, कि बेटी तलाक़ ले?' 'लोग क्या कहेंगे?' 'बेटियों को सहना पड़ता है' ये सिर्फ़ फ़िल्म के डायलॉग नहीं हैं. हर दूसरे घर की कहानी है.

अमु की मां संध्या जी जब बोल रही होती हैं कि 'मैंने नहीं सोचा लेकिन आपने भी तो जाने दिया' तो लगता है जैसे मैं अपने ही बुढ़ापे में बोल रही हूं. ना जाने कितनी बातें हम घर-परिवार की ख़ातिर छोड़ देते हैं और हमारे साथी को इस बात का अहसास ही नहीं होता कि कहीं कोई अपने सपने मार रहा है.

घरेलू हिंसा जैसी समस्या को आज हमारा समाज भी एक बड़ी ही आम समस्या मानता है...

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"तुम पहले ढंग के परांठे बनाना तो सीख लो, बिना जले"

जानते हैं थप्पड़ फ़िल्म (Thappad Film) में अमु का तलाक़ क्यों हुआ? सिर्फ़ इसलिए नहीं कि विक्रम ने थप्पड़ मारा, बल्कि इसलिए भी उस थप्पड़ को 'तो क्या हुआ, हो गया.. मैं गुस्से में था' वाले एटीट्यूड ने पोषित किया. उस थप्पड़ की रात अमु को घर वापस ठीक करते देख उसकी सास ने बस इतना कहा 'बाई के आने का इंतज़ार कर लेतीं', अगली सुबह भी उन्होंने बस इतना पूछा 'विक्रम ठीक से सोया या नहीं' अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का है कि ऐसा करने वाले पति और सास फ़िल्म के अंदर सिर्फ़ एक नहीं है बल्कि हज़ारों हैं.

आप सबने मुझे बहुत प्यार दिया लेकिन मुझे बाद में समझ आया कि वो प्यार मेरे लिए नहीं था, 'आपके बेटे की पत्नी के लिए था, इसलिए मुझसे कोई मिलने नहीं आया' यही होता भी है. शादी के बाद लड़की का निज-अस्तित्व बचता ही कितना है? वो सास जिसने सारी ज़िन्दगी डायनिंग पर बैठे-बैठे पति और बेटों के इंतज़ार में बिता दी वो यही चाहती हैं कि शादी के बाद बहु यह सब करे. बेटा ख़ुद से थाली लगा ले ये सास को क़ुबूल नहीं होता.

'एक थप्पड़ ही तो था', 'अब ये दिन भी देखना पड़ेगा, कि बेटी तलाक़ ले?' 'लोग क्या कहेंगे?' 'बेटियों को सहना पड़ता है' ये सिर्फ़ फ़िल्म के डायलॉग नहीं हैं. हर दूसरे घर की कहानी है.

अमु की मां संध्या जी जब बोल रही होती हैं कि 'मैंने नहीं सोचा लेकिन आपने भी तो जाने दिया' तो लगता है जैसे मैं अपने ही बुढ़ापे में बोल रही हूं. ना जाने कितनी बातें हम घर-परिवार की ख़ातिर छोड़ देते हैं और हमारे साथी को इस बात का अहसास ही नहीं होता कि कहीं कोई अपने सपने मार रहा है.

घरेलू हिंसा जैसी समस्या को आज हमारा समाज भी एक बड़ी ही आम समस्या मानता है

मुझे याद है 2012 में मेरी मकानमालिक के यहां काम करने वाली हेल्पर लगभग रोज़ ही पिटकर आती थी. पति उसके पैसे छीन लेता था. उसने मुझसे बात की, मैंने समझाया तो वह महिला थाने में रपट लिखाने तैयार हो गई. मैं उसके साथ थाने के चक्कर लगाती रही. उसे उस नरक से बचाने की कोशिश करती रही लेकिन अंत में वह वापस चली गई क्योंकि तलाक़शुदा का तमगा उसे नहीं चाहिए था.

हमारे देश में तलाक़शुदा का तमगा मिलना औरत के लिए इसी ज़िंदगी मे जहन्नम माना जाता है जिससे बचने के लिए वो हर ज़ुल्म सहती है. इसे बहुत-बहुत क़रीब से देखा है, महसूस किया है. आत्मसम्मान की रक्षा में उस औरत को कई बार घर की दहलीज़ लांघते फिर अपनी बेटियों के और ख़ुद के लिए एक छत की ख़ातिर अपने ही आत्मसम्मान का गला घोंटते देखा है. वे घाव जो शरीर पर लगते हैं दिख जाते हैं लेकिन जो आत्मा पर लगते हैं नहीं दिखते.

आए दिन, हर दूसरी बात में पति से मिलने वाला अपमान तो औरत सुबह की चाय में मिलाकर पी जाती है, ताउम्र. यह सब इतना नॉर्मल हो चुका है अब कोई अपने लिए बोलता, लड़ता दिखता है तो वह हमें निराला लगता है. मज़े की बात ये है कि हमारे घरेलू हिंसा में मानसिक प्रताड़ना तो काउंट ही नहीं होती. औरत मेंटली माहौल से प्रताड़ित होकर दिन रात आत्महत्या के बारे में सोचती रहे इससे किसी को फ़र्क नहीं पड़ता.

और कुछ बोल दे तो लोग औरत को यूं देखने लगते हैं मानो अजूबा हो, 'इसका आत्मसम्मान कहां से आ गया बीच में?' क्योंकि हमारे यहां ईगो सिर्फ मर्द का हो सकता है औरत का नहीं. इस सबका बच्चों के नन्हे मन पर क्या असर पड़ता है यह समझने के लिए कभी इस विषय पर की गई रिसर्च और उसके आंकड़े देखेंगे तो पता चलेगा कि घरेलू हिंसा/प्रताड़ना/पति-पत्नी के झगड़ों के बीच पले बच्चे मानसिक और आत्मबल के मामले में कितने अधिक संवेदनशील, भयभीत और कमज़ोर हो चुके होते हैं.

आंकड़े ही देखने हैं तो पिछले दो महीने के ही उठाकर देख लीजिए तो आपको पता लगेगा कि इटली, फ़्रांस, अमेरिका, से लेकर भारत तक घरेलू हिंसा के मामले इस लॉकडाउन में 60-70% तक बढ़े हैं. ढेरों ख़बरें उपलब्ध हैं. एक मां की उसकी दो बच्चों के सामने हत्या कर दी जाती है. फ्रांस सरकार ने 'मास्क 19' एक कोडवर्ड चलाया जिसके तहत महिला ग्रोसरी या मेडिकल स्टोर पर दुकानदार से ये कोडवर्ड बोलकर अपने लिए घरेलू हिंसा के खिलाफ़ मदद मांग सकती है. 

साथ ही 20 हज़ार से ज़्यादा रातें होटल्स में मुफ्त बुक की उन औरतों के लिए जो लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा झेल रही हैं. उनके लिए तो जैसे उन्हें पिंजरे में शेर के साथ बंद कर दिया गया हो. फ़िल्म में एक बहुत अच्छा डायलॉग है जब विक्रम अमु के पापा से कहता है, 'एक थप्पड़ पर ऐसा होगा तो इस देश की आधी औरतें अपने मायके जाकर बैठ जाएंगी' जिस पर अमु के पापा कहते हैं 'आधी से ज़्यादा'

सच ही है. घरेलू हिंसा की शुरुआत एक थप्पड़ से ही होती है. हर थप्पड़ को यदि पहली बार में ही रोक दिया जाए तो हज़ारों औरतें नरक भोगने से बच जाएंगी. लेकिन, क्या करें? उनकी परवरिश में ही शामिल होता है 'सहना', 'चुप रहना', 'रिश्ते को बचाए रखने के लिए अपने आपको मारते रहना'.

थप्पड़ जैसी फ़िल्में बनती रहनी चाहिए ताकि अमु जैसी लड़कियां अपने लिए लड़ना सीख सकें. और विक्रम जैसे पुरुष ये समझ सकें कि बात सिर्फ़ एक थप्पड़ की नहीं थी, बात थी उस अहसास की जो ग़लती करने के बाद नहीं हुआ, उस थप्पड़ को भूल जाने की, उसे मारने को मामूली बात समझने की, उस अकड़ की जो इस पितृसत्तात्मक समाज में हर दूसरे पुरुष में होता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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