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Updated: 08 फरवरी, 2018 04:33 PM
आशुतोष मिश्रा
आशुतोष मिश्रा
  @ashutosh.mishra.9809
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मैं पकौड़ा हूं. अगर आपके भीतर सवाल उठ रहे हैं कि मुझे अपनी आत्मकथा क्यों लिखनी पड़ रही है, तो आपके सवालों का जवाब भी मैं दूंगा. लेकिन पहले मेरी बात तो सुनिए. हिंदुस्तान में ऐसा कोई कोना, ऐसी कोई सड़क, ऐसी कोई गली या ऐसा कोई घर नहीं होगा जहां मेरी चर्चा ना हुई हो. हर मौसम में लोग मुझे पसंद करते हैं. बरसात से लेकर कड़ाके की सर्दी तक, मैं लोगों को आनंद प्रदान करता हूं.

आज की तारीख में मेरे इतने रूप हैं कि मुझे खुद भी याद नहीं है कि मेरा जन्म वास्तविकता में किस रूप में हुआ था. लोग कहते हैं कि जब मैं अस्तित्व में आया तो आलू के पकोड़े के रूप में आया. आज मैं गोभी से लेकर पालक और केले से लेकर करेले तक का रूप ले चुका हूं. हिंदुस्तान के हर 50 किलोमीटर पर बदलती बोली के साथ मेरा आकार, रूप और स्वाद बदलता है. हर थाली में मेरे साथ जबरदस्ती परोसे जाने वाली चटनी के साथ मुझे ऐतराज है. मुझे लगता है कि उस कमबख्त चटनी के स्वाद में लोग मेरे असली स्वाद को भुला देते हैं और मैं सिर्फ पेट भरने की एक चीज़ बन कर रह जाता हूं.

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मेरी बहुत सारी खूबियां हैं और मुझे वह हकीम बिल्कुल पसंद नहीं जो मुझ में खामियां ढूंढते हैं. चौराहे पर बुजुर्गों के चौपाल के साथ मैं घर में बच्चों के भी पसंद की चीज हूं. इतने दशकों तक मुझे कभी अपने अस्तित्व पर अभिमान नहीं हुआ. लेकिन अब मुझे लगता है कि मैं सिर्फ खाने, पेट भरने और स्वाद की चीज नहीं बल्कि इतनी ताकतवर हस्ती हूं, जो देश और समाज को एक नई दिशा दे सकता है.

अब मैं राष्ट्रवादी पकौड़ा हूं. मुझ से भरे हर प्लेट पर देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं का भार है. मोदी सरकार ने लाखों करोड़ों युवाओं का भार अब मुझ पर सौंप दिया है. मुझे खुशी है इस बात की कि 2014 में चाय से शुरू हुआ सरकार का विकास 4 साल बाद 2018 में पकोड़े तक पहुंच गया है. मुझे राष्ट्रवादी सरकार के इस राष्ट्रवादी विकास का राष्ट्रीय चेहरा बनने में बिल्कुल परहेज नहीं है.

क्यों फिक्र ना हो मुझे खुद पर, जब सड़क से लेकर टीवी स्टूडियो और यहां तक की देश की संसद में मेरी तारीफों के पुल बांधे जा रहे हैं. अब मैं कोई मामूली पकौड़ा नहीं हूं. अब बड़े से बड़ा इंजीनियर, ग्रेजुएट या एमबीए चाहे तो मेरे भरोसे अपनी जीविका पाल सकता है. अब तो सरकार ने भी कह दिया है कि नौकरियों की क्या जरूरत, पकोड़े बेचना भी तो रोजगार है. तो कल तक यह बड़े ग्रेजुएट, इंजीनियर, एमबीए, तरह तरह के कोर्स करने वाले और उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले यह लड़के, मुझे हिकारत भरी नजरों से देखा करते थे. अब वह मेरी तरफ लालसा की नजरों से देखा करेंगे.

अब मैं लाजवाब पकौड़ा हूं. लेकिन मुझे बड़ा दर्द होता है जब पढ़े लिखों को छोड़िए, मेरे भरोसे दिनभर की दिहाड़ी कमाने वाले चंद गरीब लोग दो जून की रोटी भी नहीं कमा पाते. दिल्ली मुंबई जैसे शहर में रेहड़ी पटरी पर अगर कोई पकौड़ी लगाकर बीवी बच्चों का पेट भरने की कोशिश करे भी तो कैसे करे? पटरी पर पकौड़े बेचने वाला अपनी कमाई का एक हिस्सा या तो पुलिस या नगर निगम के बाबू को देने पर मजबूर है. घूस नहीं दी तो पकौड़ा बिक नहीं सकता और पकौड़े बेचने वाले का परिवार चल नहीं सकता. तो अब जब देश की लाखों-करोड़ों आबादी का भार मुझ पर छोड़ दिया गया है, तो मेरी बस इतनी विनती है कि पकौड़ों पर लगाया गया यह घोषित कर हमेशा के लिए माफ हो जाए. इतना ही नहीं हाथ में डिग्री लिए पढ़ा-लिखा तबका, अब किसी भी शहर के किसी भी इलाके में पकौड़े की दुकान लगाना चाहे तो उसे 'प्रधानमंत्री पकौड़ा बेचो रोजगार योजना' के तहत स्टार्टअप फंड भी दिया जाए. साथ ही कुछ सालों तक टैक्स में माफी भी दी जाए. और अगर सरकार ऐसा करने की मंशा नहीं रखती है तो "चाय"- "पकौड़े" के "जुमले" अब बंद होने चाहिए.

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लेखक

आशुतोष मिश्रा आशुतोष मिश्रा @ashutosh.mishra.9809

लेखक आजतक में संवाददाता हैं

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