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Updated: 25 अक्टूबर, 2016 06:15 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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राजनीति में वंशवाद का एक ड्रामा उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी में देखने को मिल रहा है, तो कॉरपोरेट जगत भी वंशवाद से अछूता नहीं है. एक दशक पहले रिलायंस के दो भाइयों के बीच बंटवारा आप देख चुके हैं. अब वही रोग 144 साल पुराने टाटा समूह में भी असर दिखा रहा है.

2012 में साइरस मिस्त्री टाटा समूह की कंपनियों के दूसरे ऐसे प्रमुख बने जिनके नाम के आगे टाटा नहीं लगा था. क्या यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुई? क्या इसी वजह से उन्हें सर्वसम्मति से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया?  

क्यों प्रमुख बनाए गए थे साइरस मिस्त्री?

चार साल पहले रतन टाटा ने कंपनी की जिम्मेदारियों से रिटायर होने का मन बनाया. शादी उन्होंने की नहीं थी लिहाजा अंबानी परिवार की तरह बच्चों में संपत्ति और कारोबार का बंटवारा उनकी चुनौती नहीं थी. एक भाई था वह भी आधा. नोएल टाटा (जेआरडी टाटा की दूसरी पत्नी शिमोन टाटा का बेटा) - की रेस से इसलिए बाहर हो गये क्योंकि वह रतन टाटा से उम्र और एक्सपीरियंस दोनों में छोटे थे.

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जब मिस्त्री का चयन इस पद के लिए किया गया तो दलील दी गई कि वह बाहरी नहीं कहे जाएंगे. रतन टाटा की बहन की शादी जो उनसे हुई थी. लिहाजा टाटा के दामाद के नाते वह परिवार का ही हिस्सा कहे गए. वहीं साइरस मिस्त्री के पिता पलोनजी मिस्त्री कंस्ट्रक्शन क्षेत्र के बड़े कारोबारी हैं और टाटा सन्स के वह सबसे बड़े गैर-टाटा शेयरहोल्डर भी हैं. तब उनके पास टाटा सन्स का लगभग 18 फीसदी हिस्सा रहा और इस नाते भी मिस्त्री को प्रमुख बनाना आसान हो गया था. इस दौड़ में एक बार फिर रतन टाटा के सौतेले भाई नोएल टाटा दूसरे नंबर पर रह गये.

इसका यह मतलब नहीं था कि टाटा समूह का वंशवाद से कोई लेना-देना नहीं है. यह वही कंपनी है जिसके 144 साल के इतिहास में पहली बार 1932 में परिवार के बाहर से किसी को प्रमुख बनाया गया था. फिर 2012 में साइरस मिस्त्री इस लिहाज से दूसरे ऐसे प्रमुख बने.

वंशवाद सुरक्षित करने की कवायद

अंग्रेजों से आजादी के बाद टाटा देश की अग्रणी कंपनियों में शुमार रही. इस दौर में कई बार ऐसा भी महसूस हुआ कि देश में कॉरपोरेट का मतलब टाटा. आजाद भारत में इस कंपनी की ग्रोथ रेट देश की ग्रोथ से हमेशा अधिक रही. देश में औद्योगीकरण की नींव डालने के साथ-साथ दुनिया भर में टाटा ने भारतीय कारोबार का विस्तार करने की जिम्मेदारी बखूबी निभायी. देश में नमक से लेकर स्टील और मोटर से लेकर टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में कंपनी के कारोबार में लगातार इजाफा होता रहा और कंपनी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती रही.

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 क्या 'टाटा' की तरह काम करना जरूरी?

इस दौरान टाटा परिवार की पूरी कोशिश यही रही है कि कंपनी की कमान कभी परिवार के बाहर न जाने पाए. मौजूदा दौर में टाटा समूह के ओनरशिप स्ट्रक्चर को देखें तो जाहिर है कि कंपनी में सबसे बड़ा मालिकाना हक टाटा समूह के ट्रस्ट के पास है. इस ट्रस्ट के प्रमुख के साथ-साथ सदस्य टाटा परिवार से रहते हैं. ट्रस्ट के पास टाटा समूह के कुल कारोबार का लगभग 66 फीसदी हिस्सा है. मतलब साफ है कि टाटा का प्रमुख कोई भी रहे, कंपनी के बोर्ड में फैसला वही होगा जो यह ट्रस्ट चाहेगा.

लिहाजा, 2012 में साइरस मिस्त्री को प्रमुख बनाने के बाद भी शेयरहोल्डर आंकडों से कंपनी पर रतन टाटा का खासा प्रभाव था. रतन टाटा ने भले कंपनी की जिम्मेदारियों से रिटायरमेंट ले लिया था लेकिन ऐसा कतई नहीं था कि वह कारोबारी नहीं रह गए थे और कंपनी को और बढ़ाने की जिम्मेदारी उन्होंने छोड़ दिया था. इसका जीता जागता सुबूत है कि 2012 में रिटायरमेंट के बाद रतन टाटा ने देश के स्टार्ट-अप में बड़े निवेश शुरू किये. उन्होंने या तो किसी स्टार्टअप को बढ़ने के लिए आर्थिक मदद दी नहीं तो उसे पूरी तरह खरीदकर टाटा समूह के बैनर तले ले आए. लिहाजा, साफ है कि कंपनी के भविष्य को सुरक्षित करने का जिम्मा रतन टाटा के पास ही है.

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चार साल तक कितने स्वतंत्र रहे मिस्त्री

साइरस मिस्त्री को जिम्मेदारी देते हुए रतन टाटा के लिए प्रावधान किया गया था कि वह कंपनी के गार्जियन बने रहेंगे. कंपनी के फायदे के लिए वह नए प्रमुख के कामकाज की समीक्षा कर उन्हें सलाह देते रहेंगे. हालांकि बतौर प्रमुख मिस्त्री कंपनी के बड़े फैसले लेने के लिए स्वतंत्र रहे. अब इस प्रावधान के चलते ही साइरस मिस्त्री ने कुछ ऐसे फैसले लिए जिससे टाटा ट्रस्ट को यह लगने लगा कि इन फैसलों से कंपनी का नुकसान हो रहा है.

ऐसी स्थिति में पूरी कंपनी पर 66 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाला ट्रस्ट कितना प्रभावी है कि कंपनी बोर्ड ने एक झटके में फैसला लेते हुए साइरस को चेयरमैन पद से हटा दिया. और चार महीने में नया प्रमुख खोजने तक रतन टाटा को अंतरिम प्रमुख बना दिया. मिस्त्री पर आरोप भी लगा कि वह उम्मीद के मुताबिक काम नहीं कर रहे थे.

साइरस मिस्त्री के कमान संभालने के बाद समूह की अग्रणी कंपनी टीसीएस के मार्केट कैप में 2.29 लाख करोड़ रुपये का इजाफा देखने को मिला. वहीं चार साल के दौरान स्टॉक में 92 फीसदी की बढ़त भी देखने को मिली.

रतन टाटा की लीडरशिप

रतन टाटा के कार्यकाल में टाटा समूह की कंपनियों का मार्केट कैप लगभग 57 फीसदी बढ़ा था. वह 1991 से लेकर 2012 तक कंपनी के प्रमुख रहे. इस दौरान ग्रुप का मार्केट कैप 8000 करोड़ रुपये से बढ़कर 4.6 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था. यानी रतन टाटा के कार्यकाल में 57 फीसदी का ग्रोथ था.

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अब आपको जानकर हैरानी होगी कि 1991 में जब 57 साल के रतन टाटा को कंपनी की कमान देने की बात चली तब पिता जेआरडी टाटा की अध्यक्षता वाले टाटा बोर्ड ने राय रखी कि रतन टाटा के पास इतनी बड़ी जिम्मेदारी के लिए अनुभव नहीं है. लिहाजा परिवार के बाहर से किसी एक्सपर्ट को कंपनी संभालने के लिए बुलाने के भी विकल्प पर देखना चाहिए. बहरहाल महीनों चली माथापच्ची के बाद अंतिम फैसला जेआरडी टाटा ने बेटे रतन टाटा के पक्ष में लिया गया.

हालांकि, इस दौर में जेआरडी टाटा ने अपने रिश्तेदार और बांम्बे डाइंग कंपनी के प्रमुख नुस्ली वाडिया को टाटा समूह का प्रमुख बनाने की पेशकश की थी. लेकिन वाडिया ने इस पेशकश को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि बगैर ‘टाटा’ हुए उनके लिए इस पद की जिम्मेदारी निभाना नामुमकिन है.

एक बार फिर कंपनी ने नया प्रमुख देने के लिए सेलेक्टर्स तय कर दिए हैं. पद की दौड़ में एक बार फिर नोएल टाटा हैं तो इंदिरा नूई का नाम सुर्खियों में है. अब यह तो आने वाले दिनों में ही तय होगा कि क्या कोई बाहरी एक बार फिर टाटा के इस बड़े जहाज को टाटा की अपेक्षाओं के मुताबिक चला सकता है? या फिर कंपनी में वंशवाद की बात को मानते हुए नोएल टाटा को प्रमुख बनाने का फैसला किया जाएगा.

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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