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Updated: 02 जून, 2018 10:27 AM
ऋचा साकल्ले
ऋचा साकल्ले
  @richa.sakalley
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इसका नाम जरूर वीरे दी वेडिंग है लेकिन कहानी के वीरे हैं चार सहेलियां. ये चारों सहेलियां कालिन्दी यानी करीना, अवनी यानी सोनम, साक्षी यानी स्वरा और मीरा यानी शिखा एलीट क्लास से ताल्लुक़ रखती हैं और बचपन की दोस्त हैं. कहानी इन चारों के इर्द-गिर्द ही बुनी गई है. करीना जहां फिल्म में सेंसेबल और रिस्पॉन्सिबल हैं वहीं सोनम करियर ओरिएंटेड, स्वरा बिंदास हैं तो शिखा मस्तमौला. लेकिन ये सब लड़कियों के लिए बने सामाजिक नियमों को तोड़ने के बावजूद अपने अपने दायरों में बंधी दिखती हैं.

मसलन स्वरा बिंदास मां बहन की गाली देती हैं. शराब पीती हैं. सिगरेट पीती हैं. लेकिन सहेली के बड़े पापा को देखकर सिगरेट फेंक देती हैं और छिप जाती हैं. एक डायलॉग उन्होंने कहा भी कि सिगरेट पीना हेल्थ और चरित्र दोनों के लिए हानिकारक है. चरित्र को बचाने का डर उनके कैरेक्टर में साफ़ दिखता है. शिखा आरगेज्म पर बिंदास मजाक करती है लेकिन अपने बढ़ते वज़न के चलते पति से सेक्स करने में संकोच करती है.

वीरे दी वेडिंग, फिल्म, सिनेमा,  फिल्म रिव्यू  कह सकते हैं कि वीरे दी वेडिंग ऐसी फिल्म है जो केवल मनोरंजन करती नजर आती है

इसी तरह सोनम इंडिंपेडेंट होने के बावजूद मां के दबाव में अरेंज मैरिज के लिए तैयार है जबकि वो कहती है कितना ही पढ़ लिख लो समाज के लिए मंगलसूत्र ज़रूरी है. और करीना एक समझदार कैरेक्टर निभाने के बावजूद रिलेशनशिप्स के बोझ से डरने के बावजूद शादी को ना नहीं कर पाती क्योंकि प्रेमी को ना करने के बाद उसके बिना जीने का डर उसे सालता है. ये सब हिपोक्रेसी नहीं तो क्या है?  ये फिल्म इसे ब्रेक नहीं कर पाई है.

दरअसल यह आपकी हमारी और हमारे समाज की सच्चाई है. अगर हम सब और आज की लड़कियां खुद की ओर झाकेंगी तो उन्हें अपने भीतर भी ये कैरेक्टर दिख जाएंगे. जो माडर्न जरूर हैं लेकिन प्रोग्रेसिव क़तई नहीं.  हम सब अपनी ज़िंदगियों में ऐसे ही हिपोक्रेट्स हैं. हम ऐसा ही तो करते हैं. गलतियां करते हैं यानी एक दो नियम तोड़ते हैं (फिल्म में नियम तोड़ने को ग़लती ही कहा गया है)और फिर अपने दायरों में वापस लौट आते हैं. इसीलिए स्क्रिप्ट के स्तर पर फिल्म सोशल कंडीशनिंग से ऊपर उठती नहीं दिखी.

मुझे लगा था यह पारच्ड की तरह होगी या उससे कुछ आगे लेकिन मायूसी हाथ लगी यह उसके सामने कहीं नहीं टिकती. स्क्रिप्ट पर और काम होना चाहिए था. डायरेक्शन अच्छा है. फिल्म की इन लड़कियों में मुझे एकता कपूर एलीमेन्ट्स नज़र आए. फिल्म महिलाओं की स्वतंत्रता पर कोई मुद्दा या संदेश देने के बजाय महज एंटरटेनमेंट ड्रामा बनकर रह गई, उनके सीरियल्स का एक एपिसोड ही दिखी मुझे ये फिल्म.

क्योंकि सिर्फ़ शराब पीना, सिगरेट पीना बिंदास गाली देना ही प्रोग्रेसिव होने की निशानी नही है. जब तक इसके साथ लड़कियां असर्टिव और डिटरमाइंड नहीं होंगी प्रोग्रेसिव नहीं हो पाएंगी. इसके लिए नियम और दायरे अपनी अस्मिता और हक़ के लिए तोड़ने ही होंगे. सामने आना ही होगा छिपने से काम नहीं चलेगा. मेरी तरफ़ से फिल्म को दो स्टार.

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लेखक

ऋचा साकल्ले ऋचा साकल्ले @richa.sakalley

लेेखिका टीवीटुडे में प्रोड्यूसर हैं.

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