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Updated: 14 अगस्त, 2015 11:35 AM
सुशोभित सक्तावत
सुशोभित सक्तावत
  @sushobhit.saktawat
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फिल्मकार शेखर कपूर ने यूं ही नहीं कहा था कि अगर हिंदी सिनेमा का कैलेंडर बनाया जाए तो उसे दो भागों में बांटा जाएगा : 'शोले' से पहले और 'शोले' के बाद. कोई और फिल्म भारत के जनमानस में इस तरह से पैठ बनाने में क़ामयाब नहीं हो सकी है, जैसे कि 'शोले'. भारत में 'शोले' को लगभग एक लोककथा की हैसियत प्राप्त  है, उसके चरित्र मिथक बन गए हैं, उसके संवाद मुहावरों में अपनी जगह बना चुके हैं और रामगढ़ भारत के सिनेमाई नक्शे की पहचान बन गया है. इस फिल्म का सम्मिलित सम्मोहन कुछ ऐसा है कि 'शोले' की गूंज-अनुगूंज हमें आज तलक रह-रहकर अपनी फिल्मों में सुनाई पड़ जाती है. कहा भी जाता है कि भारतीय सिनेमा की तमाम प्रेम कहानियां 'बॉबी' से निकली हैं (बाद के वक़्तों में भले ही कुछ हद तक इसकी जगह 'डीडीएलजे' ने ले ली हो) और तमाम एक्शन ड्रामा 'शोले' से प्रेरित है. नि:संकोच कह सकते हैं कि 'शोले' भारत की सभी एक्शन फिल्मों की 'बाप' है.

'शोले' ने एक धीमी शुरुआत के बाद अपने समय में क़ामयाबी के नए कीर्तिमान रचे थे. लोकप्रिय सिनेमा को एक नई दिशा उसने दी. लेकिन समालोचकों के मन में हमेशा यह संशय बना रहा कि शोले को 'कल्ट' भले ही मान लें, क्या. उस 'क्लैसिक' भी माना जाना चाहिए. मज़े की बात है कि इससे तीस साल पहले फ्रांस में 'न्यू वेव सिनेमा' आंदोलन के दौरान वहां के समीक्षक पहले ही इस सवाल से जूझ चुके थे. बहुत प्रखर पोस्ट -मॉर्डन सिनेमा बनाने वाले 'न्यू वेव' आंदोलन के फिल्मकार और सिद्धांतकार इस नतीजे पर पहुंचे थे कि सिनेमा में 'क्राफ्ट' भी 'क्लैसिक' का एक पैमाना है, कि निर्देशक की अपने माध्यहम पर पकड़ भी गहरे अर्थों में कला है और इन मायनों में ज्यां रेन्वां, रोबर्तो रोज़ेल्लिनी और केन्जी  मिज़ोगुची चाहे जितने बड़े फिल्मकार रहे हों, अल्फ्रेड हिचकॉक को उनसे कमतर नहीं ठहराया जा सकता. यही कारण था कि हॉलीवुड में सस्पेंस-थ्रिलर फिल्मों के शहंशाह माने जाने वाले हिचकॉक को आंद्रे बाज़ां और फ्रांस्वां त्रुफ़ो ने अपने जर्नल्स में जिरह करते हुए निर्विवाद जीनियस ठहराया और उनकी फिल्मों को एक 'क्लै‍सिक' स्वीकार किया.

इन अर्थों में 'शोले' को 'क्लैसिक' मानने में भला किसे हर्ज हो सकता है? आखिर, इतनी कसी हुई पटकथा वाली फिल्म दूसरी कौन-सी है, जो अपनी संरचना में निहित नाटकीय तत्वों का कुछ इस मुस्तैदी से निर्वाह करती है कि मजाल है तीन घंटा चौबीस मिनट की लंबी अवधि के बावजूद आप सिनेमाघर में अपनी सीट से उठने के बारे में सोचें भी, भले ही आपकी कुर्सी के नीचे से कोई सांप ही क्यों न रेंगकर जा रहा हो.

आश्चर्य की बात है कि 15 अगस्ते 1975 को जब 'शोले' रिलीज़ हुई थी तो छबिगृहों में पहले-पहल कुछ-कुछ "इतना सन्ना्टा क्यों है भाई" वाला आलम था. तब के अख़बारों में जो रिव्यू निकले, उसमें इस फिल्म को एक सुर से ख़ारिज कर दिया गया था. इसे 'जस्ट‍ अनादर डकैत फिल्म' बताया गया था, क्योंकि तब डाकुओं की पृष्ठभूमि वाली फिल्में इफ़रात में बनती थीं और यह एक पिटी हुई परिपाटी मानी जाने लगी थी. फिल्म में दिखाया गया एक्शन तब समीक्षकों को दोयम दर्जे का लगा था, पटकथा बेदम लगी थी और अमज़द ख़ान द्वारा निभाए गए गब्बर सिंह के किंवदंतियों में शुमार हो चुके किरदार का समीक्षकों ने औपचारिकता के तौर पर भी उल्लेख नहीं किया था. वर्ष 2005 में शोले को 50 साल की सर्वश्रेष्ठ  भारतीय फिल्म घोषित किया गया, लेकिन 1975 में उसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार नहीं मिला था (यह पुरस्कार अमिताभ बच्चन और सलीम-जावेद की एक अन्य फिल्म 'दीवार' के खाते में गया था). सर्वश्रेष्ठ फिल्म तो छोडि़ए, 'शोले' को तब कुल मिलाकर एक ही फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था, चुस्त एडिटिंग के लिए फिल्म के संपादक एम.एस.शिंदे के खाते में यह पुरस्कार गया था. जी हां, रमेश सिप्पी को तब सर्वश्रेष्ठ निर्देशक नहीं माना गया था, अमिताभ बच्चन या धर्मेंद्र तक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और संजीव कुमार सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेता नहीं क़रार दिए गए थे. यहां तक कि भारतीय सिनेमा के सबसे कुख्यात विलेन गब्बर सिंह का रोल निभाने वाले अमज़द ख़ान को भी सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फिल्मफ़ेयर पुरस्कार नहीं मिला. गब्बर सिंह ने तब मन ही मन यह ज़रूर कहा होगा : "बहुत नाइंसाफ़ी है ये!"

लेकिन शोले की आंच धीरे-धीरे सुलगी थी. फिल्म ने धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ी, और जब चली तो ऐसी चली कि मुंबई के मिनर्वा टॉकिज में पूरे पांच साल तक वह लगी रही. आखिरकार वर्ष 1980 में अमिताभ बच्चपन-रमेश सिप्पी की ही एक अन्य फिल्म  'शान' के लिए उसने जगह ख़ाली की, लेकिन जो बात गब्बर सिंह में थी, भला वह शाकाल में कहां. बाय द वे, हफ़्तेभर में सौ करोड़ का आंकड़ा छूकर हल्ला मचाने वाली फिल्मों के इस दौर में 'शोले' के पांच साल के डबल डायमंड जुबली खिताब के बारे में क्या कहें. ट्रेड विश्लेषकों का अनुमान है कि अगर मुद्रास्फीति के तमाम मानदंडों को लागू किया जाए और देशकाल परिस्थिति के पहलुओं पर परखा जाए तो 'शोले' भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म साबित हो सकती है.

आखिर ऐसी क्या बात है 'शोले' में? क्या वजह है कि पहली दफ़े ऐसा हुआ था कि किसी फिल्म के गानों के बजाय डॉयलॉग्स‍ के कैसेट बाज़ारों में आए और चाय के ठेलों और पान की गुमटियों पर दिनभर "तेरा क्या होगा कालिया" गूंजता रहे? यह पहली ऐसी फिल्म थी, जिसके पटकथा लेखकों सलीम-जावेद को सितारा हैसियत हासिल हुई, इससे पहले स्टारडम पर अभिनेताओं-अभिनेत्रियों, गायकों-संगीतकारों और महमूद सरीखे कॉमेडियनों का ही आधिपत्य हुआ करता था. हाल ही में आई और ख़ूब चली फिल्म 'पीके' का डायलॉग 'जो डर गया, वो मंदिर गया' भी शोले के 'जो डर गया, वो मर गया' से ही तो प्रेरित है. ऐसे बीसियों प्रसंग हिंदी फिल्मों में खोजकर ढूंढ़े जा सकते हैं, जिन पर 'शोले' का ठप्पा लगा हुआ है. हिंदी सिनेमा में 'शोले' की लंबी छाया बहुत दूर तलक जाती है.

क्या वजह है कि 'शोले' के किरदारों के नाम लोगों की ज़ुबान पर इस हद तक चढ़े कि जय-वीरू, ठाकुर और गब्बर तो छोडिये, बसंती की घोड़ी धन्नो तक का नाम यार लोगों को आज तलक याद है. सांभा और कालिया उन्हें याद हैं. पांच-दस मिनट के कैमियो वाले जेलर और सूरमा भोपाली भी उन्हें याद हैं. 'शोले' ने कइयों को टाइप्ड कर दिया था. अमज़द ख़ान को गब्बर के आभामंडल से कोई नहीं बाहर निकाल सका, ख़ुद गब्बर भी नहीं. जगदीप सूरमा भोपाली के खांचे में फिट होकर रह गए. लीला मिश्रा जगतमौसी बन गईं. एके एंगल रहीम चाचा ही कहलाए. केश्टो मुखर्जी हरिराम नाई बन गए. संजीव कुमार ठाकुर हो गए. मैकमोहन को जीवनपर्यंत सांभा ही कहकर बुलाया जाता रहा, जबकि फिल्म में बामुश्किल चंद मिनटों के लिए ही वे परदे पर रहे होंगे. शोले ने कई अभिनेताओं को अपने ज़माने में मानो 'जेनेटिकली मोडिफ़ाइड' करके उनकी बुनियादी पहचान ही बदल दी थी.

'शोले' का तर्क से भले ही ज्यादा सरोकार न रहा हो (फिल्म के किरदार गब्बर सिंह के ठिकाने पर घूमते-घामते यूं पहुंच जाते थे, मानो वह कोई लोकप्रिय टूरिस्ट स्पॉट हो, बस पुलिस को ही उसका पता-ठिकाना नहीं रहता था), भले ही वह अकिरा कुरोसावा की 'सेवेन समुराई' की तरह ग्राम्य सभ्यता की परजीवी चेतना पर विमर्श न करती हो, भले ही उसने बाहर तो क्या घर में भी बड़े पुरस्कार न जीते हों, भले ही हाई-ब्रो समीक्षकों द्वारा उसे मेलोड्रैमिक और लाउड और क्लीशे बताकर निरस्त कर दिया गया हो, सच्चाई यही है कि 'शोले' 'शोले' है और मास अपील के मायने में उसके जोड़ की कोई दूसरी फिल्म हमारे पास नहीं है. कहा जाता है, रमेश सिप्पी उसके बाद कोई दूसरी 'शोले' नहीं बना पाए, लेकिन कोई और भी तो उसके बाद दूसरी 'शोले' नहीं बना पाया. ऐसी फिल्में बनाई नहीं जातीं, बन जाती हैं. 'शोले' सही मायनों में 'न भूतो न भविष्यति' है. हिंदी सिनेमा का इतिहास यक़ीनन 'बिफोर शोले' और 'आफ़्टर शोले' की तरह ही याद रखा जाएगा.

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लेखक

सुशोभित सक्तावत सुशोभित सक्तावत @sushobhit.saktawat

लेखक इंदौर में पत्रकार एवं अनुवादक हैं.

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