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Updated: 12 जून, 2020 02:43 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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Gulabo Sitabo Review In Hindi : फिल्मों दो तरह की होती हैं. एक अच्छी यानी वो जिनपर निर्माता निर्देशक और प्रोडक्शन वाले मेहनत करते हैं. पूरा होमवर्क होता है और दूसरी वो जो बनाई जाती हैं और बस बन के तैयार हो जाती हैं. ऐसी फिल्मों में न सिर होता है न पैर. निर्देशक सोचता है कि आप बड़े स्टार डाल दीजिए, वो फ़िल्म हिट करा देंगे मगर हक़ीक़त इसके ठीक विपरीत है. आखिरकार वो पल आ ही गया जिसका अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) और आयुष्मान खुराना (Ayushmann Khurrana) के फैंस को बीते कुछ वक्त से इंतज़ार था. अमेज़न प्राइम पर डायरेक्टर शूजित सरकार (Shoojit Sircar) की फ़िल्म 'गुलाबो- सिताबो' (Gulabo Sitabo) रिलीज हो गई है. फ़िल्म एक कॉमेडी फिल्म है. जिसका बैक ड्राप पुराना लखनऊ (Lucknow) है. फिल्म में एक कंजूस मकान मालिक और परिवार की जिम्मेदारियां उठाते किराएदार की चुनौती को दिखाने का प्रयास तो किया गया. मगर वो बात नहीं निकल कर सामने आई जो इसे अमिताभ बच्चन, आयुष्मान खुराना और विजय राज (Vijay Raaz) के अलावा शूजित सरकार की मौजूदगी में खास बनाती है.

Gulabo Sitabo Review Amitabh Bachchan, Ayushmann Khurranaअमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की गुलाबो सिताबो से सिर्फ निराशा ही हाथ लगी

फ़िल्म शुरू होती है बल्ब चुराते मिर्ज़ा से. फिर अगले ही सीन में शुरू होता है कठपुतली का नाच जिसमें गुलाबो और सिताबो होते हैं कठपुतलियों के नाम और इसी बीच दिखता है लखनऊ और फातिमा महल. हां वही फातिमा महल जिसको लेकर विवाद है और जिसकी मालकिन है 78 साल के मिर्ज़ा से उम्र में 17 साल बड़ी बेगम. मिर्ज़ा यानी अमिताभ बेगम के मरने का इंतज़ार कर रहे हैं और चाहते हैं कि किसी भी सूरत में हवेली उनकी हो जाए वहीं बांके बने आयुष्मान के दिल में भी दबी छुपी इच्छा यही है कि कुछ ऐसा हो जाए कि कंजूस मिर्जा हवेली उनके नाम कर दें.

यही फ़िल्म है और फ़िल्म का प्लाट. इसके बाद जो कुछ है वो फ़िल्म की स्क्रिप्ट राइटर जूही चतुर्वेदी के दिमाग का वो फितूर है. जो न तो मिर्ज़ा और न ही बांके की चकल्लस को पर्दे पर ला पाया. और न ही हमें पुराना या ये कहें कि खालिस लखनऊ देखने को मिला.

बात कुछ यूं साहब कि चूंकि फ़िल्म 'गुलाबो- सिताबो' में लखनऊ को लेकर काफी हो हल्ला मचा था तो बता दें कि शूजित सरकार की इस फ़िल्म में उतना ही लखनऊ है जितना कश्मीरी पुलाव में कश्मीर और पनीर दो प्याजे में प्याज होता है.

आज सिनेमा का स्वरूप बदला है और एक ऐसे वक्त में जब फ़िल्म इंटरनेट / ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज हो, निर्देशक को वो तमाम कोशिशें करनी चाहिए कि कम से कम वो अपने प्लाट को जस्टिफाई कर ले जाए. इस मामले में फ़िल्म गुलाबो सिताबो पूरी तरह नाकाम साबित होती है. फ़िल्म में तथ्यात्मक गलतियों की भरमार है जो ये बताती है कि फ़िल्म बनाने से पहले न ही निर्देशक ने लखनऊ को समझा और न ही लखनवी तमीज़ और तहज़ीब को जाना.

कहानी का पोस्टमार्टम

फ़िल्म का बैक ड्राप अगर नए लखनऊ या ये कहें कि गोमतीनगर, इंद्रानगर या फिर हज़रतगंज में भी होता तो माना जा सकता था कि एक मकान मालिक अपने किराएदार से इस लहजे में बात कर सकता है. मगर पुराने लखनऊ में ऐसा हो, तो पुराने लखनऊ का एक निवासी होने के कारण मैं इसे पचा पाने में नाकाम हूं.

फ़िल्म देखते हुए जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा हैरत में डाला वो थी मिर्ज़ा की हवेली फातिमा महल. मैं वाक़ई इस बात को नहीं समझ पाया कि हवेली चौक में है फिर अमीनाबाद में या फिर कैसरबाग में. अलग अलग सींस के जरिये हवेली की लोकेशन को लेकर बहुत कन्फ्यूजन पैदा किया है डायरेक्टर ने.

Gulabo Sitabo Review Amitabh Bachchan, Ayushmann Khurranaफिल्म गुलाबो सिताबो में मिर्ज़ा की भूमिका में अमिताभ

फ़िल्म का एक सीन है आयुष्मान मिर्ज़ा के घर के बाथरूम की दीवार को लात मारकर तोड़ देते हैं. इसके बाद घर में रह रहे किराएदारों का मकान मालिक मिर्जा से विवाद होता है, जिसका नेतृत्व आयुष्मान ने किया था. दोनों में थोड़ी गर्मा गर्मी होती है और आयुष्मान ये कहकर चले जाते हैं कि मिर्ज़ा चिल्लाओ नहीं अटैक आ जाएगा. मिर्ज़ा को ये बात बुरी लगती है और वो घर के बाकी बाथरूम बन्द कर देता है और सो जाता है. आयुष्मान मिर्ज़ा की इस हरकत से खूब खिजलाते हैं और शरारत के चलते उनकी चारपाई बाहर रख देते हैं और फिर बात कोतवाली जाती है जो कि काल्पनिक है. कोतवाली ऐसी बनाई गई है जैसे वो जल निगम या बिजली बोर्ड का कार्यालय हो. मतलब बात का ये है कि जहां डिटेलिंग करनी थी वहां किसी बात का कोई ध्यान ही नहीं दिया गया.

इसके अलावा फिल्म में तमाम सीन ऐसे हैं जिनमें कोई कोरिलेशन है ही नहीं. मिर्ज़ा को उस नाजुक पड़ाव में शहर भर में यानी कैसरबाग से चौक, चौक से नक्खास, नक्खास से बड़े इमामबाड़े तक पैदल चलते देखना भी विचलित करता है.

फ़िल्म शुरुआत में मजेदार लगती है. शुरुआती 20-25 बांधे भी रखती है मगर उसके बाद जैसे जैसे ये आगे बढ़ती है बोरियत का एहसास होता है और फ़िल्म स्लो पड़ जाती है. अच्छा चूंकि फिल्म की स्क्रिप्ट कमज़ोर है इस बात का एहसास एक दर्शक के रूप में हमें फिल्म देखते हुए हो जाता है. 

डायलॉग ने तो बस दिल दुखाया है

किसी भी फ़िल्म की जान उसके संवाद होते हैं 'गुलाबो- सिताबो' का मामला भी कुछ ऐसा ही है. फ़िल्म में अमिताभ को मिर्ज़ा, जो कि नवाब हैं के रूप में दिखाया गया है. यहां जैसे डायलॉग अमिताभ ने बोले हैं उनमें न तो लखनऊ था और न ही उसकी तमीज़ और तहज़ीब अलबत्ता उन्हें सुनकर हमें उनकी 'बड़े मियां - छोटे मियां' याद आ गयी.

अमिताभ को समझना चाहिए कि जब आप लखनऊ के नवाब हों तो आपको सिरा पकड़ के चलना है. आप किसी इलाहाबादी या फिर बाराबंकी में रहने वाले व्यक्ति की एक्टिंग नहीं कर सकते. ये गुनाह है. दो गुना है.

Gulabo Sitabo Review Amitabh Bachchan, Ayushmann Khurranaफिल्म गुलाबो सिताबो में मिर्जा और बांके की जोड़ी

 

वहीं बात अगर आयुष्मान की हो तो आप किराएदार हैं तो क्या हुआ ? आप अबे तबे कर के अपने मकानमालिक से बात नहीं कर सकते और पुराने लखनऊ के बैक ड्रॉप में तो बिल्कुल नहीं कर सकते. आपको अदब का ख्याल तो रखना ही होगा. डायलॉग के मामले में सबसे बेहतरीन काम बेगम का है जिनके अंदर या ये कहें कि जिनकी ज़ुबान से नवाबी ठाठ भी दिखते हैं और लखनऊ भी दिखता है. अपने रोल में विजय राज लाउड हैं तो वहीँ बृजेन्द्र काला ने संतुलन बना के रखा है.   

मेन लीड्स ने किया निराश फ़िल्म सपोर्टिंग कास्ट के लुई देखें

जब फ़िल्म आने को हुई तो उम्मीद थी कि इसमें एक किराएदार और मकानमालिक के बीच की 'लखनव्वा' नोक झोंक दिखेगी. मगर अब जबकि फ़िल्म अमेज़न प्राइम पर रिलीज हो गयी है लखनऊ के निवासी और एक दर्शक होने के नाते मेरे हाथ निराशा लगी है.

अमिताभ के लिए जितनी मेहमत उनके मेकअप पर की गई अगर उसकी आधी भी फ़िल्म के लिए कर ली गयी होती तो बात कुछ और होती. अमिताभ के मुकाबले फ़िल्म में आयुष्मान ज्यादा प्रभावी दिखे हैं.

इन दोनों के अलावा चाहे वो मिर्ज़ा के वकील बने बृजेन्द्र काला रहे हों या फिर पुरातत्व के विजय राज़ और बेगम के रूप में फरुख जाफर इन लोगों के हिस्से में जो डायलॉग आए इन्होंने उसे पूरी ईमानदारी से निभाया.

मिर्ज़ा की बीवी बनी बेगम के रूप में फरुख जाफर का अभिनय वाक़ई लाजवाब है. हो सकता है बात थोड़ी 'टच' कर जाए मगर इस फ़िल्म को बेगम बनी फरुख जाफर की शानदार एक्टिंग के लिए देखा जा सकता है.

एक अच्छी फ़िल्म बर्बाद हुई जिम्मेदारी निर्देशक की है.

जैसा फ़िल्म का बैक ड्राप था और जिस तरह फ़िल्म में कैरेक्टर्स की भरमार थी इस फ़िल्म में निर्देशक शूजित सरकार के पास करने को बहुत कुछ था. एक ठीक फ़िल्म के साथ जो नाइंसाफी हुई है उसमें अकेले अमिताभ या आयुष्मान जिम्मेदार नहीं हैं. निर्देशक शूजीत सरकार को आगे आना होगा और बताना होगा कि अगर फ़िल्म का चौपटा नास हुआ है तो उसके असली गुनाहगार वो हैं.

तो देखें या न देखें फ़िल्म

हम कई मौकों पर बता चुके हैं कुछ देखना या न देखना बहुत ही पर्सनल चीज है मगर ये फ़िल्म उन लोगों को ज़रूर आहत कर सकती है जो लखनऊ के हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि लखनऊ इस फ़िल्म में कहीं नहीं है. बाक़ी कोरोना वायरस के इस दौर में सिनेमाघर जाना ठीक नहीं है तो अगर दर्शक कुछ ऐसा मनोरंजन चाहते हैं जिसने टीवी चलाकर फ़िल्म देखने के नाम पर आलू छीले जा सकें. झाड़ू पोंछा लगाया जा सके तो इस फ़िल्म को देखा जा सकता है.

अंत में जाते - जाते हम चारों लोगों यानी अमिताभ, आयुष्मान निर्देशक शूजित और स्क्रिप्ट राइटर जूही चतुर्वेदी से बस यही कहना चाहेंगे कि कुछ हो न हो मगर लखनऊ आपको माफ़ नहीं करेगा. इस फ़िल्म के बाद वहां ऊपर स्वर्ग में 'रॉयल फैमिली ऑफ अवध के लोग और नवाब अपने को कोड़े मार रहे होंगे.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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