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Updated: 12 जून, 2020 12:55 PM
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कहते हैं ना कि लालच बुरी बला है.... इस लालच से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है तो वह है रिश्ता! उम्र की 78वीं दहलीज पर खुद से 15 साल बड़ी बेगम की मौत की कामना करता मिर्ज़ा भी लालच में ही सबकुछ खो बैठा कि उसकी बेगम अल्लाह को प्यारी हो तो उसकी हवेली पर अधिपत्य जमा पाए. अक्टूबर, पीकू और विकी डोनर जैसी सफल और मनोरंजन से भरपूर फिल्में देने वाली डायरेक्टर-स्क्रिप्ट राइटर शूजीत सरकार और जूही चतुर्वेदी ने गुलाबो सिताबो में लखनऊ स्थित हवेली फातिमा महल को केंद्र में रखते हुए मकान मालिक-किरायेदार की नोक-झोंक, बिल्डर-सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत के साथ ही एक रिश्ते की खूबसूरती को इतने साधारण तरीके से पेश किया है कि यह फिल्म अमिताभ को छोड़ अति साधारण दिखती है.

12 जून आ गया था. रात के बारह बज रहे थे. कोरोना संकट में थिएटर बंद होने की वजह से पहली बार कोई मेनस्ट्रीम फिल्म ओटीटी प्लैटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज हो रही थी, जिसमें सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और यूथ के फेवरेट आयुष्मान खुराना हैं. ऊपर से शूजीत सरकार की फिल्म, ऐसे में गुलाबो सिताबो का बेसब्री से इंतेज़ार था और 12 बजते ही मोबाइल की स्क्रीन पर आंखें गड़ गईं. फिल्म शुरू हुई और ख़त्म भी हो गई. पहली बार शूजीत सरकार उम्मीद के विपरीत दिखे. फिल्म में कुछ भी खास नहीं लगा. अमिताभ बच्चन द्वारा निभाए मिर्ज़ा के किरदार को छोड़ दें तो यहां तक कि आयुष्मान खुराना भी बेहद साधारण लगे हैं. फिल्म की कहानी वैसी अपीलिंग नहीं है, जैसी उम्मीद की जा रही थी. फिल्म में एकाध बार छोड़ दें तो कभी हंसने का भी अवसर नहीं मिला. कभी ऐसा नहीं लगा कि अमिताभ को छोड़ बाकी किसी कलाकार ने कुछ ऐसा किया हो, जिससे बरबस मुंह से वाह-वाह जैसे अल्फ़ाज निकले. तो चलते हैं और फिल्म का पोस्टमॉर्टम करते हैं.

 

कहानी

फिल्म की कहानी बेहद साधारण है. लखनऊ में फातिमा महल नामक एक हवेली है जो कि 100 साल से ज्यादा पूरानी है. हवेली 90 साल से ज्यादा उम्र की बेगम के नाम है जो वर्षों पहले अपने पहले शौहर को छोड़ मिर्जा (अमिताभ बच्चन) से निकाह कर लेती है. बेगम को मिर्जा की जवानी भाती है और मिर्जा को बेगम की हवेली. अब दोनों जवानी की दहलीज पार कर अल्लाह को प्यारे होने वाले वक़्त की रस्सी पकड़ जिंदगी की पायजामा पहने हुए हैं. फातिमा महल में कई किरायेदार रहते हैं, जिनमें एक बांके (आयुष्मान खुराना) भी अपनी मां और 3 बहनों के साथ रहता है. बांके महज 30 रुपये मासिक किराये पर फातिमा महल में अड्डा जमाये बैठा है, जिससे मिर्ज़ा और उसकी बनती नहीं है. मिर्जा इस उम्मीद में है कि कब उसकी बेगम मरे और यह हवेली उसके नाम हो जाए. इन्हीं दोनों पात्र के इर्द-गिर्द गुड्डो, क्रिस्टोफर, ज्ञानेश शुक्ला, बेगम समेत अन्य किरदार घूमते रहते हैं. फिल्म की कहानी में आर्कियोलॉजिकल डिपार्टमेंट, पुलिस और वकील भी अपने-अपने तरीके से फातिमा महल पर सरकार या बिल्डर के हक की कोशिश में लगे दिखते हैं. लेकिन अंत में कुछ ऐसा होता है कि दर्शक सोचने लगते हैं कि ये क्या हो गया.

एक्टिंग

गुलाबो सिताबो में सबसे खास जो है- वह है मिर्ज़ा. लगता है जैसे मिर्ज़ा के किरदार को अमिताभ बच्चन ही जीवंत कर सकते थे. इस फिल्म में भी अमिताभ ही हर वक्त छाए रहे हैं. लुक के साथ ही एक्सप्रेशन, बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग या चलने फिरने के अंदाज की बात हो, अमिताभ अद्भुत लगे हैं. बाकी आयुष्मान खुराना इससे काफी अच्छी-अच्छी फिल्में कर चुके हैं, इसलिए गुलाबो सिताबो में वह साधारण दिखे हैं. फिल्म पर अमिताभ का ऐसा प्रभाव है के किसी सीन में अगर अमिताभ नहीं दिखते हैं तो उनकी कमी महसूस होती है. अमिताभ का यह ट्रांसफोर्मेशन उनके पा फिल्म के औरो के किरदार की याद दिलाता है. फिल्म में आयुष्मान की बहन गुड्डो के किरदार में श्रृष्टि श्रीवास्तव अच्छी हैं. ज्ञानेश शुक्ला के किरदार में विजय राज कुछ खास नहीं लगे, वहीं वकील क्रिस्टोफर के किरदार में बृजेंद्र काला ठीक लगे हैं. बेगम के किरदार में फार्रुख जफर का काम अच्छा है. गुलाबो सिताबो के बाकी किरदार ठीक-ठाक हैं. बांके और मिर्ज़ा को अंतिम सीन में बेबस देख आपको लगेगा कि जवानी में लोग खूबसूरती देख बहक जाते हैं और फिर बुढ़ापा आने पर स्वार्थी हो जाते हैं, अंत में मिलता कुछ नहीं.

स्टोरी और डायरेक्शन

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जूही चतुर्वेदी ने बहुत ही साधारण कहानी लिखी है. यह कहानी न कोई मेसेज देती है और न ही दर्शकों को उतना हंसा पती है. स्क्रीनप्ले और डायलॉग की बात करें तो जूही की गुलाबो सिताबो में कुछ वैसा नहीं है जो संवाद या पटकथा के रूप में आपके दिल से टकराये और कहने को विवश कर दे कि ये बढ़िया है. हमने विकी डोनर, पीकू और अक्टूबर वाला कमाल गुलाबो सिताबो में काफी मिस किया. इसकी वजह तो आने वाले समय में जूही चतुर्वेदी ही बता पाएंगी. हालांकि डायरेक्शन की बात करें तो शूजीत सरकार ने एक कमजोर कहानी को बढ़िया तरीके से दिखाने की कोशिश तो की, लेकिन सफल नहीं हो पाए. सबसे अच्छी बात है कि उन्होंने अमिताभ का फिल्म में भरपूर इस्तेमाल किया और यही वजह है कि लोग उन्हें ज्यादा दोष नहीं देंगे.

सिनेमैटोग्राफी कमाल की, म्यूजिक ठीक-ठाक

गुलाबो सिताबो में अमिताभ बच्चन को छोड़ अगर कुछ अच्छा है तो वह है इसका तकनीकी पक्ष. फिल्म का हर एक सीन खूबसूरत पेंटिंग की तरह दिखता है जिसपर लखनवी तहजीब, जबान और आर्किटेक्चर एक खूबसूरत फ्रेम की तरह हैं, जिनसे पेंटिंग की खूबसूरती बढ़ जाती है. अविक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी कमाल की है और इसकी प्रशंसा होनी चाहिए. एडिटिंग की बात करें तो अगर आप ओटीटी प्लैटफॉर्म के लिए फिल्म बना रहे हैं तो जरूरी नहीं कि यह दो घंटे या इससे ज्यादा लंबी हो, आप उसे एक घंटे 40 मिनट में भी समेट सकते हैं और यह दर्शकों को पसंद आएगी. 2 घंटे 4 मिनट की फिल्म को 10-15 मिनट और कम करने की गुंजाइश थी. राइजिंग सन फिल्म्स के रॉनी लाहिरी और कीनो वर्क्स के शील कुमार के प्रोडक्शन हाउस द्वारा बनी गुलाबो सिताबो बेहतर हो सकती थी. फिल्म में गानों का तो पता ही नहीं चलता कि कब आए और गए. बैकग्राउंड स्कोर ऐसा था जैसे कॉमेडी फिल्म हो, लेकिन ऐसा था नहीं कुछ.

क्यो देखें या ना देखे

अगर आप अमिताभ बच्चन की एक्टिंग देखना चाहते हैं तो गुलाबो सिताबो जरूर देखें. शूजीत सरकार की बाकी फिल्मों की तरह इसमें अगर कॉमेडी, सोशल मेसेज या लगाव-प्यार जैसे भावों को दिखाती प्रेम कहानी ढूंढेंगे तो आपको निश्चित रूप से निराशा होगी. हालांकि, आपके पास अमेजन प्राइम वीडियो है तो आप घर बैठे आराम से यह फिल्म देख सकते हैं और बाहर जाने या कोरोना वायरस से खतरा मोल लेने की कोशिश से बचना चाहते हैं तो देखिए और कमेंट कर बताइए कि आपको गुलाबो सिताबो फिल्म कैसी लगी.

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