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Updated: 09 जनवरी, 2022 05:54 PM
अनु रॉय
अनु रॉय
  @anu.roy.31
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कुछ फ़िल्में सिर्फ़ इसलिए देख लेनी चाहिए कि उस फ़िल्म को ख़त्म करने के बाद आपके अंदर कुछ बदल जाता है सदा के लिए. ख़ास कर वैसी फ़िल्में जिनसे आपको कोई ज़्यादा उम्मीद न हों. हिंदी फ़िल्मों के साथ मेरा कुछ ऐसा ही हिसाब रहा है. लेकिन अभी चंडीगढ़ करे आशिकी देख कर उठी हूं और LGBTQ और ख़ास कर वो लोग जो अपने शरीर में हो कर भी अपने वजूद को महसूस नहीं कर पाते हैं, उनके दर्द को महसूस किया है मैंने इसे देख कर. इसके पहले हॉलीवुड की न जाने कितनी ही फ़िल्म्स मैंने देखीं हैं इसी से मिलते-जुलते सब्जेक्ट पर और अब भी कॉल के आख़िरी दृश्य को देख कर रो पड़ती हूं. ओलियो से अब भी पहली मुहब्बत जैसी मुहब्बत है. ख़ैर, ओलीयो की बात फिर कभी. अभी जिससे मुहब्बत में हूं वो हैं वानी कपूर (Vaani Kapoor). आयुष्मान खुराना का ज़िक्र बाद में करूंगी पहले इस लड़की को टोकरी भर-भर कर मुहब्बत भेजना चाह रही हूं. सच कहूं तो आज से पहले मुझे वानी ने कभी भी इम्प्रेस नहीं किया था. कभी भी नहीं. लेकिन चंडीगढ़ करे आशिक़ी उनकी फ़िल्म है. वो धड़कन हैं इस फ़िल्म की.

Chandigarh Kare Aashiqui Review Ayushmann Khurana  Vani Kapoor film on Netflix shows the pain of Transgender and how society reacts नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म चंडीगढ़ करे आशिकी में आयुष्मान और वाणी

आख़िरी बार याद नहीं कब किसी हिंदी फ़िल्म की ऐक्ट्रेस को सिनेमा में उदास देख कर मैं उदास हुई थी लेकिन आज मानवी को उदास देख कर मन भर आया.ज़्यादा लिखूंगी तो जिन्हें फ़िल्म देखना है उनके लिए सस्पेंश ख़राब हो जाएगा. बस इतना समझिए कि अभिषेक कपूर ने एक उदास कविता को ख़ुशियों के रंग से रंगने की कोशिश की है.

एक ट्रांस-पर्सन किन-किन दर्द से गुजरता है और हम सब देख कर भी अनदेखा कर रहे होते हैं ये फ़िल्म आपको उस हक़ीक़त से रूबरू करवाएगी. हम बोल देते हैं यूं ही मज़े-मज़े में 'छक्का' है, बिना ये जाने कि क्या होता है अपनों के बीच में बेगाना होना, ख़ुद में हो का भी खुद को तलाशना और तलाश पूरी होने के बाद अपनों को खो देना, खुद को पाने की लड़ाई में. देखिए इस फ़िल्म को आप समझ लेंगे कि कहना क्या चाह रही हूं.

अब आयुष्मान खुराना के लिए बाई लिखना पड़ेगा. आयुष्मान तो अभिनेता है जिनको कोई भी चरित्र दे दो वो उसको ज़िंदा कर देंगे. आयुष्मान, कभी भी अपनी किसी फ़िल्म में आयुष्मान कहां होते हैं वो तो बस वही किरदार हो जाते हैं. एक पहलवान जिसको प्रूव करना है कि वो भी जीत सकता है कोई मेडल और सीरियस है अपनी ज़िंदगी को ले कर जबकि बाक़ियों को लगता है कि ये कुछ कर नहीं पाएगा, उस किरदार को बिलकुल आयुष्मान ने वैसे ही जीया है.

एकदम चंडीगढ़ वाले लौंडों की तरह. वो हाई-हाफ़ पोनी, डोले-शोले, ये पंजाबी ऐक्सेंट और क्या चाहिए. इस फ़िल्म की हर एक बात अच्छी है. बननी चाहिए मेन-स्ट्रीम सिनेमा में भी ऐसी फ़िल्म्स. क्यों कोई मैसेज देना हो तो ऑर्ट-फ़िल्म ही बनाई जाए. आप देखिए इस फ़िल्म को कैसे एक सीरियस टॉपिक पर प्यारी सी फ़िल्म बन गयी है.

विजन होना चाहिए और सही कास्ट फिर फ़िल्में चंडीगढ़ करे आशिक़ी जैसी बन ही जाती है. पूरी टीम के लिए बधाई और मुहब्बत. बॉलीवुड को ज़रूरत है ऐसी फ़िल्म्स की. सिरियसली!

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लेखक

अनु रॉय अनु रॉय @anu.roy.31

लेखक स्वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं, और महिला-बाल अधिकारों के लिए काम करती हैं.

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