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Updated: 07 जनवरी, 2022 05:32 PM
प्रतिमा सिन्हा
प्रतिमा सिन्हा
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बॉक्स ऑफिस के कलेक्शन बता रहे हैं कि फिल्म ‘83’ कामयाब नहीं रही. यह कोई छोटी फ़िल्म नहीं थी. करोड़ों के बजट में बनी इस फ़िल्म में साल 1983 के उस जादू को बड़े परदे पर फिर से ज़िंदा किया गया था जिसके बाद पूरी दुनिया में भारतीय क्रिकेट की शक्ल हमेशा के लिए बदल गयी थी. इस फ़िल्म की नाकामी अजीब लगती है. बॉक्स ऑफ़िस पर फ़िल्म के औंधे मुंह गिरने के पीछे गिनाई जा रही कुछ वजहें भी कम भी अजीब नहीं.

उन वजहों पर कुछ कहने से पहले मैं अपनी बात कह लूं

सुना है निर्देशक कबीर खान ने इस फिल्म को थियेटर में रिलीज करने के लिए एक लंबा इंतज़ार किया. नुकसान उठाए. लड़ाइयां लड़ीं. थियेटर रिलीज़ पर अड़े रहे क्योंकि एक निर्देशक के रूप में उन्हें ये लगता था ये बड़े पर्दे पर ही देखी जाने वाली फिल्म है. मोबाइल, लैपटॉप या प्लाज्मा के छोटे स्क्रीन पर वह जादू असर नहीं करेगा. सोचना उनका सही भी था. दरअसल फ़िल्में तो सारी ही बड़े परदे के लिए ही बनती हैं. उसी पर देखने का मज़ा भी है. तभी तो बनता है सिनेमा ‘लार्जर दैन लाइफ़’.

83, Ranveer Singh Film 83, 83 Film, Ranveer Singh, Deepika Padukon, Cricket, World Cup, Kapil Devअच्छी फिल्म होने के बावजूद 83 का बॉक्स ऑफिस पर फेल होना कई मायनों में अखरता है

निर्देशक का इंतज़ार रंग भी लाया. ‘83’ बड़े पर्दे पर रिलीज हुई, वह भी 3D इफेक्ट के साथ. कपिल देव के शॉट पर जब बॉल पर्दे से निकलकर सीधे अपने चेहरे पर आकर टकराती हुई महसूस होती है तब वाकई मज़ा आ जाता है. अगर स्पाइडर-मैन 3D में देखी गयी तो ‘तिरासी’ क्यों नहीं? मैंने फिल्म ‘83’ थियेटर जा कर बड़े परदे पर देखी.

मैं कबीर खान या फ़िल्म की स्टार-कास्ट की प्रशंसक नहीं हूं. असलियत में मैं एक ‘निगेटिव फीडबैक’ के साथ थियेटर गयी थी फिर भी मुझ पर इसका पॉजिटिव असर ही हुआ. फ़िल्म के दौरान चार या पांच दफ़ा ऐसा हुआ जब मेरी आंखें नम हुईं. कई बार दृश्य देख कर ताली बजाने और खुशी के मारे ज़ोर से चिल्लाने का मन हुआ. परदे पर कलाकार कोई इतिहास नहीं रच रहे थे.

ये कपिलदेव और उनकी टीम का वो कमाल था जो उन्होंने 1983 में कर दिखाया था. परदे पर तो उसे दोहराने की एक कच्ची-पक्की सी कोशिश की जा रही थी. मैदान के बाहर घट रहे घटनाक्रम से भी जुड़ना हो रहा था. कहानी के पीछे की कहानी को जानना अद्भुत हो ना हो, दिलचस्प ज़रूर था.

मैं स्वभावतः खेलप्रेमी नहीं हूं. व्यक्तिगत रूप से क्रिकेट प्रेमी भी नहीं. असलियत यह है कि मुझे इस खेल के वो बेसिक नियम भी नहीं पता, जिनके बारे में गली-मोहल्ले के क्रिकेट खेलने वाले बच्चे भी जानते हैं. मुझे क्रिकेट में सिर्फ तीन चीज़ें समझ में आती हैं, 4 रन (चौका), 6 रन (छक्का) और आउट. मेरा क्रिकेट ज्ञान इन्हीं तीन शब्दों में सिमटा हुआ है, फिर भी एक आम भारतीय नागरिक की तरह मैं उस हर मौके पर खुश हुई हूं जब इंडिया की क्रिकेट टीम ने मैदान फतेह किया है.

जीत की ट्रॉफी को हाथ में उठाया है. कॉलेज के ज़माने में मैं भी क्रिकेट में अपना खुदा रखती थी. संजय मांजरेकर, मेरा, शाहरुख खान से पहले वाला क्रश थे. सचिन तेंदुलकर पर क्रश कभी नहीं हुआ लेकिन उनकी महानता और टीम में उनकी अहमियत का अंदाजा मुझे बखूबी था. मैंने अजहरुद्दीन की कप्तानी में इंडिया को खेलते देखा. सारे मैच नहीं देखती थी खासतौर पर शुरुआती लेकिन जैसे-जैसे टीम इंडिया आगे बढ़ती जाती, मेरा उत्साह बढ़ता जाता.

मैं सेमीफाइनल और फाइनल मैच देखती. धीरे धीरे जुनून का दौर खत्म हुआ. क्रिकेट को देखना दीवानगी की लिस्ट से बाहर हो गया. T20 तक आते-आते क्रिकेट बाजार के लिए धंधा बनता गया और मेरे जैसे चाहने वालों के लिए ‘वेस्ट ऑफ टाइम’.

बहरहाल अपने देश में क्रिकेट बाक़ी सारे खेलों से बहुत बड़ा है ये सच अब से अब तक, शायद रत्ती भर ही बदला है. संयोग से हम उस पीढ़ी से रहे जिसमें कपिल देव को मैदान में टीम की कप्तानी करते या खेलते ज़्यादा नहीं देखा. हममें से अधिकतर ने 1983 के विश्वकप में इंडिया को फाइनल खेलते हुए भी नहीं देखा. मैच की पुरानी वीडियो फुटेज निकालकर विशेषज्ञ और खिलाड़ी देखते हैं आम दर्शक नहीं.

जाहिर है हम 83 में लार्ड्स के मैदान में हुए उस हाई करंट मैच को कभी महसूस नहीं कर सकते थे. नई जनरेशन को ये जानना भी बहुत ज़रूरी था कि सचिन से भी बहुत पहले भारतीय क्रिकेट को उसका सबसे बड़ा हीरो मिल चुका था, कपिल देव के रूप में. बेहद शर्मीले, कम से कम बोलने वाले कपिल देव अपनी टीम के कैप्टन के तौर पर एक ऐसा चमत्कार थे जिसे उनकी टीम के साथ ही पूरा देश आज तक सलाम करता है.

83 वर्ल्ड कप में जिम्बाब्वे के खिलाफ़ खेली गई उनकी 175 रन की अजेय पारी की तो असली रिकॉर्डिंग तक मौजूद नहीं है. मैदान से बाहर चल रही ग्रीन रूम और खिलाड़ियों के जीवन में घट रही उन घटनाओं को भी हम कैसे जान सकते थे जिन्होंने एक गैर-संजीदा और कम अनुभवी टीम को आखिरकार एक ‘विश्व-विजेता’ टीम में तब्दील कर दिया.

ऐसे मे कबीर खान के लिए एक शुक्रिया तो बनता ही है कि उन्होंने कपिल देव और उनकी विश्वविजेता टीम के जादू को सिनेमा के बड़े परदे पर फिर से रीक्रीएट करने का साहस दिखाया और किया भी. मगर फ़िल्म नहीं चली. फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले ही इसका बायकाट ट्रेंड किया जा रहा था. रणबीर सिंह और दीपिका पादुकोण पर निशाना साधते हुए इस फ़िल्म को नहीं देखने की अपील की जा रही थी.

मकसद था फिल्म को फ्लॉप कराना, निदेशक और कलाकारों को नुकसान पहुंचाना. फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद कुछ और बातें आ जुड़ीं जो कुछ लोगों के लिए हर हाल में नागवार होनी ही थीं. एक टोपी वाला बूढ़ा जो मजहब से नमाज़ी है लेकिन भारत से मोहब्बत करता हुआ दिखाई देता है. टीम इंडिया की जीत पर झूमता हुआ दिखाई देता है. सरहद पर फाइनल मैच के दौरान थोड़ी सहूलियत देते पड़ोसी मुल्क के सिपाही. खेल के ज़रिए लोगों को जोड़ने का तरीक़ा ढूँढती तत्कालीन प्रधानमंत्री.

सोशल मीडिया पर भारतीय सभ्यता के कुछ स्वयंभू शोधकर्ताओं ने यह कहते हुए निर्देशक कबीर खान को सीधे निशाने पर लिया कि वह अपनी हर फिल्म में मुसलमानों को ज़्यादा ही अच्छा दिखाते हैं. रिफरेंस के लिए उनकी ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘न्यूयार्क’ जैसी फ़िल्मों का नाम लिया गया. कबीर खान एक धर्म विशेष के वकील हैं इसलिए एक सच्चे देशप्रेमी को उनकी फिल्मों से दूर रहना चाहिए, मौजूदा माहौल में ये तर्क काफ़ी है, जिरह की कोई गुंजाइश ही नहीं.

बात भी सही है. नफरत को बढ़ाते रहने के लिए ऐसी बातें करना वर्जित है. मुसलमान अच्छे हो ही नहीं सकते. तो चलिए कल्पना ही कर लेते हैं कि काश मुसलमान इतने अच्छे होते. नहीं-नहीं, ऐसी कल्पना भी वर्जित है. ये कल्पना भी सच्चे ‘राष्ट्रवाद’ के लिए घातक है. इससे हिंसा में कुछ कमी आ सकती है. नफरत कुछ डिग्री घट कम हो सकती है. हमें ऐसा कुछ करना तो दूर सोचना भी नहीं है.

हो सकता है कि आपको ये पढ़ते हुए कुछ अजीब लगे कि सिनेमा की बात अचानक राष्ट्रवाद और हिन्दू-मुसलमान तक कैसे जा पहुँची ? तो बस यही वो वजहें हैं जिन्हे हमने शुरू में ही अजीब कह दिया था. आप किसी फ़िल्म का मूल्यांकन उसके क्राफ़्ट, कहन, संगीत, अभिनय, कहानी और प्रस्तुति के आधार पर करें और नकार दें, स्वागत है लेकिन किसी फ़िल्म को दूसरे सामाजिक या फिर असल में राजनैतिक कारणों और उससे भी बढ़कर राजनैतिक दुराग्रहों के चलते नकार दें, ये बात अफ़सोस की है.

फ़िल्म अच्छी-बुरी, कामयाब-नाकामयाब तो हो सकती है लेकिन यक़ीन मानिए एक ऐसी घटना को बड़े परदे पर फिर से पूरा का पूरा जीना बिल्कुल भी आसान नहीं रहा होगा जिसके सारे असली पात्र ज़िंदा हों, जिसका एक-एक रिकॉर्ड दस्तावेज़ के रूप मे दर्ज हो और जिसकी असली वीडियो फुटेज भी मौजूद हो. तो कम से कम इस बात के लिए तो निर्देशक और कलाकारों की सराहना तो होनी ही चाहिए थी.

इस फ़िल्म के प्रचार के दौरान कई जगह पर मौजूद कपिल देव की आंखें नम हुईं. उनका भावुक होना कितना सहज था, समझा ही जा सकता है. हमें भी ‘83’ को एक बार कपिल पाजी की आंखों से देखना और दिल से महसूस करना चाहिए था. बाक़ी सिनेमाई शिल्प और तकनीक की दृष्टि से जो, जहां और जैसी कमी रह गई, उसकी समीक्षा का काम, सैकड़ों करोड़ का नुकसान उठाने के बाद, फ़िल्म के निर्माताओं और निर्देशक को ही करने देते.

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लेखक

प्रतिमा सिन्हा प्रतिमा सिन्हा @pratima.sinha.5

लेखिका महिला मुद्दों पर लिखती हैं.

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