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Updated: 02 अगस्त, 2021 08:41 PM
सर्वेश त्रिपाठी
सर्वेश त्रिपाठी
  @advsarveshtripathi
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जब हम जीते तो हमें विश्वास ही नहीं हुआ, आज हर कोई हमारे लिए ताली बजा रहा है - रानी रामपाल

निश्चित रूप से यह गर्व का दिन हैं. जीतना किसे नहीं सुहाता? हम लगभग 130 करोड़ भारतीय कहां बहुत बड़ी उम्मीद पालते हैं भाई? बस जो जीतने लगता है तो उसी से उम्मीद पालकर ताली पीट देते हैं. फ़िलहाल ओलंपिक में भारतीय दल के विभिन्न स्पर्धाओं में निराशाजनक प्रदर्शन के बीच पिछले दो दिन बहुत ही अच्छे रहे. अभी एक दिन पहले टोक्यो ओलंपिक में भारत की पुरुष हॉकी टीम ने जो कारनामा दिखाया वही आज सुबह भारत की की महिला टीम ने कर दिखाया. महामारी के बाद अपनी अपनी समस्याओं से जूझ रहे करोड़ों भारतीयों के चेहरे पर कुछ पल के लिए ही सही लेकिन गर्व और खुशी के भाव आज निश्चित रूप से उभर आएं हैं. दूसरों को क्या बोलूं मुझे ही सुबह तक नहीं मालूम था कि भारत कि महिला हॉकी टीम आज सेमीफाइनल में पहुंचने की अपनी लड़ाई ऑस्ट्रेलिया से लड़ रही है. टीम के जीतने के बाद मैंने जब सोशल मीडिया पर वीडियो फुटेज़ में जीत के बाद खुशी और भावुकता के साथ भारतीय टीम के बच्चियों और कोच को दौड़ते और एक दूसरे से लिपटते देखा तो न जाने क्यों आंख से आंसू निकल आए.

Hockey, Tokyo Olympics 2020, Indian Women Hockey Team, Vandana Katariya, National Game Of India, Semifinalचाहे महिला हो या पुरुष इंडियन हॉकी टीम ने कमाल करके रख दिया है

शायद 'चक दे इंडिया' फिल्म से भारत की महिला हॉकी टीम की जिजीविषा और संघर्ष की जो छवि बनी थी, वही सब आंखों के सामने तैर रहा था. लेकिन यह मसला फिल्मी नहीं उससे कहीं बढ़कर है. भारतीय टीम के कोच की मेहनत आस्ट्रेलिया के मज़बूत टीम के सामने अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ सत्तर मिनट देने वाली बच्चियों ने जो इतिहास रचा है वह एक स्वप्न सरीखा ही हैं.

ईमानदारी से पूछिए अपने दिल से कितने भारतीय हॉकी खिलाड़ियों के नाम आप सब जानते है. शायद एक भी नहीं न ! सफलता के हजारों रिश्तेदार होते हैं. अब सबसे ऊपर लिखे भारतीय महिला टीम की कप्तान रानी रामपाल के कहे उन शब्दों को गौर से पढ़िए जिसमें आपको उनकी खुशी और व्यथा दोनों दिखेगी. यह सच्चाई थी. और अच्छा है, अब सेमीफाइनल के लिए कम से कम हर भारतीय हाथ जोड़कर इस टीम के लिए दुआ करेगा.

हम भारतीयों के लिए अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाएं प्रायः आलोचना की और सिस्टम को कोसने का सबसे उपयुक्त अवसर होती हैं. हो भी क्यों न भाई? ओलंपिक आयोजन के अब तक 11 दिन बीत चुके है और पदक तालिका में एक चांदी और कांस्य पदक के साथ तालिका में कहीं बहुत नीचे विराजमान हैं. भला हो मीराबाई चानू और पी वी संधू दीदी का कि कम से कम तालिका में छपवा दी नहीं तो वो भी अब तक न दिखता.

फ़िलहाल अपने देश में क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ ही खेल हैं जिनमें अपनी पहचान हैं, यह खलने वाली बात भी हैं. सिस्टम को कोसना आसान हैं लेकिन खेलोगे कूदोगे बनोगे ख़राब वाली मानसिकता से अब भी हमारा समाज कितना मुक्त हुआ हैं यह भी सोचने वाली बात है.

एक बात और इसी दौरान भारत के खेल में फिसड्डी होने के पीछे अपने देश के रूढ़िवादी समाज और बेटियों की क्षमता को कम आंकने का विमर्श भी सक्रिय है. इसी के अलावा यह भी ध्यान रखना होगा कि बिना खेलों के प्रति कोई भी समाज या देश जब तक खेल और खिलाड़ियों के प्रति स्पष्ट और सकारात्मक मानसिकता और माहौल नहीं बनाता तब तक अच्छे खिलाड़ी भी नहीं पैदा होते.

क्रिकेट का उदाहरण सामने हैं. जैसे ही वहां लोगों को सम्मान और भविष्य दिखने लगा वैसे ही देखिए महानगरों से लेकर कस्बों तक क्रिकेट के तमाम कोचिंग और क्लब स्वतः पैदा हो गए. फ़िलहाल यह सब कहानी तो चलती रहेगी लेकिन अभी तो जश्न के और क्षण आने बाकी हैं.

पूरे देश के साथ मैं भी उस पल का इंतजार कर रहा जब भारत की महिला और पुरुष दोनों हॉकी टीम स्वर्ण पदक की दावेदारी प्रस्तुत करेंगी. फ़िलहाल अभी इतनी ही उम्मीद करूंगा नहीं तो ज्यादा की उम्मीद में हम सब ही पनौती लगा देते हैं.

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लेखक

सर्वेश त्रिपाठी सर्वेश त्रिपाठी @advsarveshtripathi

लेखक वकील हैं जिन्हें सामाजिक/ राजनीतिक मुद्दों पर लिखना पसंद है.

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