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Updated: 24 जुलाई, 2021 06:32 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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भारत जैसे देश में जहां रंग-रूप से लेकर पहनावे तक के लिए आज भी बेटियों को निशाना बनाया जाता हो. उसके लिए टोक्यो ओलंपिक (Tokyo Olympics) के पहले ही दिन भारत की एक बेटी ने ही चांदी कर दी है. लड़कियों की कद-काठी की वजह से उन्हें कमजोर मानने वाले भारतीय समाज को वेटलिफ्टर मीराबाई चानू (Mirabai Chanu) ने आईना दिखा दिया है. वेटलिफ्टिंग (Weightlifting) में भारत को पहला सिल्वर पदक दिलाते हुए मीराबाई चानू ने देश को बेटियों और महिलाओं पर गर्व करने के लिए एक और बड़ी वजह दे दी है. ओलंपिक में मीराबाई चानू ने भारत को वेटलिफ्टिंग में कर्णम मलेश्वरी के ब्रॉन्ज जीतने के बाद पहला पदक दिलाया है. मीराबाई चानू ने जब वेटलिफ्टिंग की शुरुआत की थी, तो उनके परिवार की स्थिति ऐसी नहीं था कि वो चिकन और दूध की बड़ी मात्रा वाला डाइट चार्ट फॉलो कर सकें. लेकिन, उन्हें अपने परिवार का पूरा साथ मिला और उसका नतीजा सबके सामने है.

मीराबाई चानू महज 11 साल की उम्र में एक स्थानीय वेटलिफ्टिंग टूर्नामेंट जीतकर चर्चा में आई थीं.मीराबाई चानू महज 11 साल की उम्र में एक स्थानीय वेटलिफ्टिंग टूर्नामेंट जीतकर चर्चा में आई थीं.

खराब प्रदर्शन के बावजूद नहीं मानी हार

मणिपुर की ही वेटलिफ्टर कुंजरानी देवी को अपना आदर्श मानने वाली मीराबाई चानू महज 11 साल की उम्र में एक स्थानीय वेटलिफ्टिंग टूर्नामेंट जीतकर चर्चा में आई थीं. हालांकि, उन्होंने अपने प्रोफेशनल करियर की शुरुआत वर्ल्ड और जूनियर एशियन चैंपियनशिप से की. वेटलिफ्टिंग के शुरुआती दिनों में उनके परिवार ने किसी भी तरह से कोई कमी नहीं आने दी. 18 साल की उम्र में मीराबाई चानू ने एशियाई जूनियर चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज जीता. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने 2013 की जूनियर नेशनल वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप में गोल्ड जीता. 2014 में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में सिल्वर जीत दिखा दिया कि लड़कियां कमजोर नहीं होती है. लेकिन, 2016 के रिओ ओलंपिक्स में मीराबाई चानू क्लीन एंड जर्क सेक्शन में अपने तीनों प्रयासों में सही तरीके से वेट उठा पाने में नाकाम होने की वजह से डिसक्वालिफाई हो गई थीं. इतने बड़े इवेंट में किसी के साथ भी ऐसा हो, तो शायद ही वो दोबारा इसे दोहराने के बारे में सोचेगा. लेकिन, मीराबाई चानू ने हार नहीं मानी और 2018 कॉमनवेल्थ गेम्स में रिकॉर्ड बनाने के साथ गोल्ड मेडल जीत वापसी की.

भारत में खिलाड़ियों पर प्रदर्शन का कितना दबाव रहता है, ये किसी को बताने की जरूरत शायद ही पड़े. उस पर अगर आप लड़की हैं और ओलंपिक जैसे इवेंट में बुरी तरह से चूकी हों, तो अच्छे से अच्छा मजबूत इच्छाशक्ति वाला शख्स भी टूट जाएगा. लेकिन, मीराबाई चानू ने हार नहीं मानी और निराशा पर जीत हासिल करते हुए टोक्यो ओलंपिक में सिल्वर जीतकर ऐसा करने वाली पहली भारतीय एथलीट बन गई. खराब प्रदर्शन के बावजूद खुद पर भरोसा रखने वाली मीराबाई चानू की ये सोच भारत में बेटियों और महिलाओं के अंदर धधक रही प्रदर्शन की आग को दर्शाती है. मीराबाई चानू ने टोक्यो ओलंपिक में भारत की बेटियों का भविष्य लिख दिया है. उन्होंने एक बार फिर से साबित कर दिया कि बेटियां कमजोर नहीं होती हैं, बशर्ते उन्हें आगे बढ़ने का प्रोत्साहन मिले. टोक्यो ओलंपिक्स के पहले ही दिन मीराबाई चानू का सिल्वर मेडल जीतना भारत में बेटियों को कमजोर मानने वाली सोच के मुंह पर जोरदार तमाचा है.

भारत में लड़कियों की जिम्मेदारी समझे जाने वाले काम को बनाया करियर

भारत में बेटियों को कमजोर समझने वालों की संख्या बहुतायत में है. लेकिन, मीराबाई चानू के परिजनों ने ऐसी सोच को कभी अपने आस-पास भी फटकने नहीं दिया. मीराबाई चानू ने अपने एक इंटरव्यू के दौरान बताया था कि उन दिनों घरों में चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियों का इस्तेमाल होता था. मैं जब अपने घर में चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियां बटोरने जाती थीं, तो मेरे साथ के कई लड़के-लड़कियां एक साथ ज्यादा भारी गट्ठर नहीं उठा पाते थे. लेकिन, मैं उन्हें आसानी से उठाकर घर ले आती थी. उस वक्त शायद ही किसी ने सोचा होगा कि जो लड़की आसानी से लकड़ी के गट्ठरों को उठा रही है, भविष्य में भारत के सपनों का भार भी आसानी से उठा लेगी. भारतीय घरों में जो काम लड़कियों के लिए आमतौर जिम्मेदारी माना जाता है. मीराबाई चानू ने उसे ही अपना करियर बनाने की ठान ली. मीराबाई चानू को खेल रत्न और पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा जा चुका है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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