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Updated: 11 अक्टूबर, 2016 08:57 PM
कुणाल वर्मा
कुणाल वर्मा
 
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पिछले दिनों बीसीसीआई अधिकारियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस काटजू ने ट्वीट किया. उन्होंने लिखा ‘ये ऐसे नहीं मानेंगे. लोढ़ा को चाहिए कि वह बीसीसीआई अधिकारियों को नंगा कर खंभे से बांधकर सौ कोड़े लगाएं.’ दरअसल, जस्टिस काटजू का यह बयान बीसीसीआई के उस अड़ियल रवैये के बाद आया था जब बीसीसीआई ने सुप्रीम कोर्ट में न केवल हलफनामा देने से इनकार कर दिया था बल्कि साफ शब्दों में लोढ़ा समिति की सिफारिशों को भी मानने से इनकार कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट फिलहाल क्या निर्णय सुनाएगी यह जल्द सामने आ जाएगा, पर मंथन का वक्त जरूर है कि आखिर बीसीसीआई के मौजूदा पदाधिकारी क्यों निरंकुश शासक की तरह भारतीय क्रिकेट पर अपना कंट्रोल बनाए रखना चाहते हैं.

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 बीसीसीआई है सबसे अमीर बोर्ड

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड दुनिया के उन चंद क्रिकेट बोर्ड्स में है जिसकी सालाना कमाई अरबों रुपयों में है. नित नए फॉर्मेट और टीवी प्रसारण की कमाई ने बीसीसीआई को सबसे अमीर बोर्ड की श्रेणी में ला खड़ा किया है. यह अकाट्य तथ्य है कि जहां धन वर्षा होगी वहां राजनीति भी होगी और जब राजनीति होगी तो भ्रष्टाचार को रोकना नामुमकिन होगा. फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट और बीसीसीआई के बीच शह और मात का खेल जारी है. शह और मात का यह खेल वर्ष 2013 में शुरू हुआ था. इससे पहले बोर्ड के सामंतवादी और तानाशाही फैसलों पर किसी को उंगली उठाने का साहस नहीं था.

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दरअसल, आईपीएल 2013 में स्टार क्रिकेटर्स श्रीसंत, अंकित चौहान और अजित चंदेला पर मैच फिक्सिंग के फेर में फंसने के साथ ही बोर्ड के बुरे दिनों की शुरुआत हुई. इसके तत्काल बाद बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन ही शक के घेरे में आ गए, क्योंकि उनके दामाद गुरुनाथ मयप्पन ही सट्टेबाजी के आरोप से घिर गए. उनके साथ अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी के पति और मशहूर बिजनेसमैन राज कुंद्रा पर भी फिक्सिंग का आरोप लगा. विवाद तब बढ़ गया जब खिलाड़ियों पर तो गाज गिरा दी गई, लेकिन श्रीनिवासन अपने दामाद मयप्पन और कुंद्रा को साफ बचा ले गए. पर मामला यहीं शांत नहीं हुआ. बोर्ड के तानाशाही अंदाज से आजिज लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगा दी. और यहीं से शुरू हुआ खेल आज उस मुकाम तक जा पहुंचा है जहां एक पूर्व जस्टिस को यह कहना पड़ रहा है कि बीसीसीआई अधिकारियों को नंगा करके कोड़े लगाने की जरूरत है.

पर बात सिर्फ नंगा करने की नहीं है, क्योंकि इस हमाम में सभी नंगे ही हैं. हां, कोड़ा लगाना इसलिए जरूरी है कि क्योंकि जब तनाशाही हद से आगे बढ़ जाए तो उस पर लगाम कसने की जरूरत होती है. सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआई की तानाशाही पर लगाम लगाने का काम तो उसी दिन शुरू कर दिया था जब उसने फिक्सिंग कांड की जांच का जिम्मा 2013 में मुद्गल समिति को सौंप दिया था. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मुकुल मुद्गल ने न केवल एक साल के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंप दी, बल्कि साफ-साफ शब्दों में श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन और कुंद्रा को भी दोषी ठहराया. मुद्गल समिति ने जहां एक तरफ दोषियों को सजा देने की बात कही वहीं बोर्ड के बुनियादी ढांचे में व्यापक सुधार की भी सिफारिश कर दी. साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति का गठन कर बोर्ड के संगठनात्मक सुधार पर अपनी रिपोर्ट देने को कहा. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आरएम लोढ़ा की तीन सदस्यीय समिति ने जब से अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी है बीसीसीआई के अधिकारियों की रात की नींद उड़ी हुई है.

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 लोढ़ा कमेटी के सदस्य रिपोर्ट के साथ

सुप्रीम कोर्ट ने तो दो टूक शब्दों में बीसीसीआई को लोढ़ा समिति की सिफारिशों को अक्षरश: पालन करने का निर्णय सुना दिया है, पर बोर्ड के तानाशाहों ने कोर्ट के ही आदेश को मानने से इनकार कर रखा है. अब सवाल उठता है कि आखिर लोढ़ा समिति ने ऐसा क्या कह दिया है कि बोर्ड के अधिकारी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को ही मानने से इनकार कर रहे हैं. दरअसल, यह पूरा खेल क्रिकेट के जरिए आने वाली अकूत संपत्ति और वर्चस्व का है. जिस देश में क्रिकेट धर्म की तरह पूजा जाता है उस धर्म से कोई विरक्ति क्यों चाहेगा. यही कारण है कि लोढ़ा समिति ने जो कहा है अगर उसका पालन हो जाता है तो क्रिकेट की राजनीति पर राज करने वाले बड़े खिलाड़ियों का क्लीन बोल्ड होना तय है. लोढ़ा समिति ने अपनी सिफारिशों में जो सबसे बड़ी लकीर खींची है वह है एक व्यक्ति, एक पद. इसके अलावा पदाधिकारियों के कार्यकाल और रिटायरमेंट पॉलिसी लागू करना भी ऐसी सिफारिश है जिसे क्रिकेट बोर्ड के अधिकारी कभी नहीं स्वीकार करेंगे. इतना ही नहीं जस्टिस लोढ़ा की अगुवाई वाली सुधार समिति ने सुप्रीम कोर्ट को कहा है कि एक राज्य से सिर्फ एक इकाई को मान्यता मिलनी चाहिए और राजनेताओं, मंत्रियों एवं नौकरशाहों को बोर्ड में कहीं भी जगह नहीं होनी चाहिए.

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इन सुझावों ने ही बोर्ड अधिकारियों को परेशानी में डाल रखा है. इस वक्त बीसीसीआई की करीब तीस इकाइयां मौजूद हैं और इन इकाइयों में लगभग सभी पर राजनीतिक दलों के बड़े नामों का कब्जा है. अगर बीसीसीआई ने लोढ़ा समिति के निर्णय को लागू कर दिया तो शरद पवार, लालू यादव, अरुण जेटली, अमित शाह, राजीव शुक्ला, ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा मौजूदा बीसीसीआई सचिव अनुराग ठाकुर जैसे दिग्गजों की छुट्टी तय है. अब इनके खेल को भी समझने की जरूरत है. दरअसल, बोर्ड की कई इकाइयां हैं जिन्हें धन बांटा जाता है. ऐसे भी आरोप लगते रहे हैं कि करीब दस हजार करोड़ रुपए की सालाना कमाई करने वाला बीसीसीआई इन बजट के जरिए अपने राजनीतिक हित भी साधता है. इकाइयों पर कब्जा जमाए राजनेता बोर्ड की कमाई का अपने हितों के अनुसार उपयोग करते और कराते हैं. यही कारण है कि लोढ़ा समिति ने अपनी सिफारिशों में इस बात का भी जिक्र किया है कि रोजमर्रा के काम के लिए पेशेवर सीईओ नियुक्त किया जाए. साथ ही साथ बोर्ड के निर्णय और खाते भी सार्वजानिक किए जाएं.

अभी दस हजार करोड़ रुपए की सालाना कमाई करने वाला भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड आने वाले समय में और अधिक कमाई करने वाला बोर्ड बनेगा, इसकी पूरी गारंटी है. यही कारण है कि अमेरिका तक में मिनी आईपीएल कराए जाने की प्लानिंग चल रही है. कई और फॉर्मेट पर भी विचार हो रहा है, जहां से कमाई की जा सके. इसमें दो राय नहीं कि क्रिकेट के इन नए फॉर्मेट ने भारत के युवा क्रिकेटर्स के लिए नई राह खोल दी है. पर क्या सिर्फ यही एक तर्क काफी है कि बोर्ड अपना तानाशाही अधिकार नहीं खोना चाहता. मंथन करने का वक्त है. जब हर तरफ ट्रांसपरेंसी की बात चल रही है. लोग पहले से अधिक जागरूक हुए हैं तो ऐसे में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड खुद को इतनी परदेदारी में क्यों रखना चाहता है? अब क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का रिमोट कंट्रोल फिलहाल कोर्ट के पास है. कहीं जस्टिस काटजू की बात सही न हो जाए कि बोर्ड में अनुशासन कायम करने के लिए कोर्ट को ही डंडा न चलाना पड़ जाए. हो सकता है हमें आने वाले दिनों में यह भी सुनना पड़ जाए कि सुप्रीम कोर्ट ने कंट्रोल बोर्ड को ही भंग कर दिया.

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