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Updated: 23 जून, 2016 03:19 PM
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गुजरात के अहमदाबाद में एक नौकरी का विज्ञापन निकला और अब विवाद है. सेंट जेवियर्स के नॉन फॉर्मल एजुकेशन सोसायटी द्वारा संचालित एक एनजीओ है. ह्यूमन डेवलपमेंट एंड रिसर्च सेंटर (HDRC). उसने विज्ञापन निकाला कि उसे सफाइकर्मी चाहिए. लेकिन विवाद इसलिए हो गया क्योंकि विज्ञापन में लिखा था अनारक्षित यानी जनरल कैटिगरी वालों को प्राथमिकता दी जाएगी.

यहां तक कि जातियों के नाम भी दिए गए. मसलन- ब्राहम्ण, बनिया, पटेल, जैन, सैयद, पठान, सीरियाई ईसाई या पारसी समुदाय से ताल्लुक रखने वालों को बाथरूम, शौचायल या कोर्टयार्ड की साफ-सफाई की इस नौकरी में प्राथमिकता दी जाएगी. जाहिर है, विवाद होना था. खुद को ऊंची जातियों का पैरोकार बताने वाले सड़क पर उतर गए. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक राजपूत शॉर्य फाउंडेशन, युवा शक्ति संघठन और कई समाजिक समूहों में गुस्सा फैल गया और इन्होंने एनजीओ के कार्यालय पर जाकर खूब तोड़फोड़ की.

खिड़कियों का शीशा तोड़ा और परिसर में रखे गमलों को भी निशाना बनाया. आरएसएस से जुड़े कुछ दूसरे संगठनों जैसे ब्रह्मो समाज और पुलिस लोक सेवा रक्षक समीति सहित पटेल समुदाय के लोगों ने भी अपना विरोध दर्ज कराया. सैयद और पठान के नाम थे तो सुन्नी आवाम फोरम ने भी लीगल नोटिस भेज कर नाराजगी जताई. इनका आरोप है, 'एक ईसाई मिशनरी ने जानबूझ कर सैयदों को नीचा दिखाने की कोशिश की है. सैयदों को मोहम्मद पैगंबर का वंशज माना जाता है. ऐसा करके उन्होंने धार्मिक भावनाओं को आहत करने और सांप्रदायिक नफरत फैलाने की कोशिश की है.'

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 नाराजगी विज्ञापन पर है या सफाईकर्मी कहलाने पर?

बवाल बढ़ा और जब दूसरे ऐसे संगठनों और एनजीओ ने दबाव डाला तो HDRC ने माफी मांगने में भलाई समझी. एनजीओ ने कहा, 'हमारा मकसद किसी को ठेस पहुंचाना नहीं था. अगर ऐसा हुआ है कि हम माफी मांगते हैं. भविष्य में दोबारा ऐसा नहीं होगा.'

HDRC ने ये भी सफाई कि उसकी कोशिश समाजिक बराबरी और स्वच्छ भारत को बढ़ावा देने की थी. लेकिन ये सवाल भी जायज है कि जातियों का नाम देने की जरूरत क्यों पड़ी. क्या जानबूझकर ऐसा किया गया क्योंकि नाम न होता तो शायद विवाद भी नहीं होता. और फिर बेहतर होता कि प्रथामिकता की बात ही नहीं करते.

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खैर, हमारे यहां आरक्षण और जातिवाद ऐसे मुद्दे हैं, जिस पर आप बात करने जाएं तो महसूस होगा कि आप जैसे आग में कूद गए हों. हजार किस्म की बातें, हजार तर्क और उतने ही कुतर्क. कभी-कभी आप खुद ही असमंजस में पड़ जाएंगे कि क्या कहें और क्या नहीं. अहमदाबाद का ये मामला कुछ वैसा ही है. वैसे, ये सवाल फिर घूमने लगा है कि क्या वाकई कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता? शायद...नहीं होता. लेकिन केवल उनके लिए जो तंगहाल हैं, जिन्हें घर चलाना है, बच्चों को स्कूल भेजना है और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी. बाकी जो संपन्न हैं, उनके तमाम अपने कायदे कानून होते हैं. अपनी 'इज्जत' होती है.

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