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Updated: 01 जनवरी, 2019 08:12 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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हर आने वाले नए साल से हर बार बेहतरी की उम्मीद की जाती है. हम 21वीं सदी में हैं और साल 2019 की शुरुआत हो चुकी है. लेकिन अब भी लगता है जैसे समाज का एक वर्ग अभी भी सदियों पीछे ही छूटा हुआ है. आज एक खबर ने ये सोचने को मजबूर कर दिया कि हमें नए साल का जश्न क्यों मनाना चाहिए, जबकि यहां सिर्फ कलेंडर बदल रहा है, सोच वही पिछड़ी ही है.

38 साल की एक महिला की 10वीं गर्भावस्था के दौरान मौत हो जाती है. लोगों को ये महज एक खबर लग सकती है, लेकिन जब हम 2019 में एक महिला के 10वीं बार गर्भधारण की बात सुनते हैं तो माथा घूम जाता है. आखिर हम कैसे समाज में रह रहे हैं जो एक महिला को बार-बार गर्भवती होने के लिए मजबूर करता है.

woman 10वीं बार गर्भवती हुई लेकिन डिलिवरी के बाद मौत हो गई

तो ये वो समाज है जिसके लिए लड़का ही सबकुछ होता है. लड़कियों की कोई औकात नहीं. महाराष्ट्र के बीड की रहने वाली मीरा 10वीं बार गर्भवती हुई थी और उसने एक मृत बच्चे को जन्म दिया था. लेकिन डिलिवरी के दौरान बहुत ज्यादा ब्लीडिंग होने से इसकी मौत हो गई. मीरा के पहले से ही 7 बेटियां हैं. दो बार अबॉर्शन भी करवा चुकी थी. लेकिन परिवार को लड़का चाहिए था. वो लोग मीरा पर दबाव बनाते और बार-बार वो गर्भवती होती.

10 बार गर्भधारण करना और उसपर दो बार गर्भपात, क्या गुजरती होगी उस औरत के शरीर पर. शरीर तो खोखला हो गया होगा उसका, लेकिन फिर भी परिवार को बेटा देना उसकी मजबूरी रही होगी. उसे मां न समझकर बच्चा पैदा करने वाली मशीन समझ लिया गया. कि उसे रुकना नहीं है जब तक बेटा न पैदा हो जाए. और आखिरकार वो हार गई.

लेकिन आश्चर्य नहीं होगा कि अब मीरा का पति बेटे के लिए दूसरी शादी कर लेगा. क्योंकि जिसके लिए एक औरत की ये हालत कर दी गई वो उस परिवार के लिए किसी की जान से भी ज्यादा महत्व रखता होगा. पिछड़ी हुई सोच पर आखिर किसका बस चलता है.

मीरा अकेली नहीं थी, बल्कि मीरा जैसी बहुत हैं हमारे देश में. जिनकी औकात आज भी मशीन बराबर है. अफसोस है कि कुछ लोगों के लिए वक्त तो बढ़ रहा है, लेकिन वो वक्त के साथ नहीं चल रहे. हालांकि हम इस बात को नकार भी नहीं सकते कि लड़कियों के मामले में लोगों की सोच में बदलाव आया है. आज अगर लड़कियों को मान दिया जा रहा है तो उसके पीछे संघर्षों की एक लंबी कहानी रही है. बहुत वक्त लगा लोगों को ये समझने में कि लड़का और लड़की एकसमान हैं. लेकिन मीरा जैसी महिलाओं की कहानियों को सुनकर यही लगता है कि अब भी इस दिशा में काफी काम करना बाकी है .

सवाल यही है कि आज हम कलेंडर बदलने का जश्न मना रहे हैं या फिर समय के बदलने का?

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पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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