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Updated: 03 फरवरी, 2016 01:03 PM
कमलेश सिंह
कमलेश सिंह
  @kamksingh
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यह मान्यता कि महिलाएं भगवान की नजर में दोयम दर्जे की होती हैं, बहाना देती है, उन क्रूर पतियों को जो पत्नियों को पीटते हैं, उन सैनिकों को जो महिलाओं का रेप करते हैं, उन मालिकों को जो अपनी महिला कर्मचारियों को कम तनख्वाह देते हैं या उन माता-पिता को जो कन्या भ्रूण का गर्भपात करवा देते हैं. -जिमी कार्टर, 2009, विश्‍व धर्म संसद, मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया 

डरकर नजरअंदाज किए जाते रहे भगवान शनि अब लोगों के फेवरेट बन गए हैं जो भगवान से डरते हैं. शनि शिंगणापुर एक अंजानी से ही जगह थी, जब तक कि पास में मौजूद शिरडी को धार्मिक मानचित्र पर जगह न मिल गई. धन्‍यवाद साईंबाबा. अब यह शनि की पूजने वालों के लिए मक्का बन गया है. पत्थर के इस देवता के पास महिलाओं का जाना प्रतिबंधित है. और महिलाएं अब इसे उनके आस्‍था के अधिकार की राह में गैरबराबरी लाने वाली शिला के तौर पर देख रही हैं. विडंबना देखिए, शनि बाधाओं के देवता हैं.  

परंपरावादी कहते हैं कि महिलाओं के लिए भगवान के पास खड़े होना खराब शगुन है क्योंकि वह उन पर वक्र दृष्टि डाल सकते हैं. तृप्ति देसाई और उनकी भूमाता ब्रिगेड इन सबमें में यकीन नहीं करती है. वह शनि के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पारंपरिक पाबंदी को धता बताने के लिए एक आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं. 

मुंबई में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन हाजी अली दरगाह के गर्भ गृह में प्रवेश करने और मजार को छूने के महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ रही है. एक बैरिकेड महिलाओं को पुरुषों से अलग करता है और यही उन्‍हें उस सूफी संत के करीब जाने से भी रोकता है जिसके सामने वह दुआ मांगने आई हैं. 

इससे पूजास्थलों पर महिलाओं-पुरुषों के बीच असमानता का सवाल उठता है और फिर हमारे लिविंग रूम में चला आता है. इसका श्रेय टीवी पर रात में हंगामेदार बहस को जाता है, जहां संदिग्ध बाबा और मौलाना हमें बताते हैं कि कैसे भगवान की पूजा के मामले में होने वाली सदियों पुरानी असमानता को कानून के समक्ष आधुनिक समानता के विचारों की बेदी पर बलिदान नहीं किया जा सकता है. 

मैं इस मामले में बाबा और मौलवियों के साथ हूं लेकिन वे जो निर्देश देते हैं और जिसे निषेध बताते हैं उन कारणों से अलग. क्यों महिलाओं को इसकी एक अधिकार के तौर पर जरूरत है? क्यों वे ऐसी जगहों में प्रवेश करना चाहती हैं जो उन्हें हीन और अपवित्र मानते हैं? यह वह आखिरी चीज होनी चाहिए जिसके लिए महिलाएं लड़ रही हैं. 

दहेज हत्याएं, दंडस्वरूप रेप, वेतन असमानता, कन्या भ्रूणहत्या, साक्षरता दर, थोपी गई पर्दा प्रथा, उनके कानूनी अधिकारों की अधीनता, ऑनर किलिंगः जिन्‍हें अभी तक समाज में उसका उचित हक नहीं मिला है. लेकिन फिर भी 21वीं सदी में, शनि की पूजा करने का अधिकार मुद्दा बन गया है. यह एक मुद्दा है लेकिन मुद्दा नहीं है. उस दुनिया में भी नहीं जहां समानता की बात दूर की कौड़ी है. 

पूजा के अधिकार की यह लड़ाई नकली लड़ाई है. धार्मिक अधिकार की यह मांग सिर्फ इस बात की पुष्टि करता है कि धर्म महत्वूपर्ण है. धर्म के यही मामले समाज में महिलाओं के व्यवस्थित उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार हैं. सभी धर्म, जो कि वास्तव में पुरुषों द्वारा ही बनाए गए हैं, ने महिलाओं को अधीन बनाकर उन्हें पुरुषों की संपत्ति बनाने से ज्यादा कुछ नहीं किया है. 

धार्मिक समानता का वाक्य अपने आप में ही विरोधाभासी है. जो महिलाएं धार्मिक हैं वे प्रायः पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा धार्मिक होती हैं जोकि उनकी उस मानसिकता परिचायक है जिसमें कोई व्यक्ति खुद को बंदी बनाने वाले के प्रति ही सहानुभूति रखता है (स्‍टाकहोम सिंड्रोम). पुरुषों ने हमेशा से पो‍थियां उन पर अधिकार जमाने और अपने अनुकूल बनाने के लिए पढ़ीं, जबकि महिलाएं उन्‍हें सर्वोपरि मानते हुए ही बड़ी हुईं. इसलिए जब वे मुक्ति के प्रकाश के पथ का अनुसरण करना चाहती हैं, तो वे अपनी स्वतंत्रता की मांग को उचित साबित करने के लिए उन्हीं धर्मग्रन्थों के उद्धरणों का सहारा लेती हैं. 

महिलाओं द्वारा चुनिंदा धार्मिक सूत्रों का उदाहरण देकर यह दावा करने के बाद कि महिलाएं पुरुषों के बराबर हैं, पुरुष कुछ चुनिंदा सूत्रों का उदाहरण देते हैं जोकि महिलाओं को पुरुषों की बराबर होने की अनुमति नहीं देते हैं. 

तृप्ति देसाई चाहती हैं कि पुलिस भारत के संविधान को अमल में लाए जो कि उन्हें समानता के अधिकार की गारंटी देता है. भारत का संविधान यह भी चाहता है कि उसके नागरिक वैज्ञानिक विचारधारा विकसति करें. इसका मतलब है एक पत्थर को एक पत्थर कहना. मृत लोगों और पत्थरों के टुकड़ों में अतर्कसंगत विश्वास, हजारों वर्ष पहले लिखी गई किताबों की कहानियों के आधार पर महिलाओं, पशुओं और शूद्रों को सीमाओं में बांधने जैसी बातों को ज्ञान और मानव अधिकारों की अग्नि में समर्पित किए जाने की जरूरत है, न कि उन्हें अपनाने की.  

अब समय है महिलाएं नई बेड़ियों की मांग करना बंद करके आजाद हो रही हैं. लेकिन हर बार जब वे धार्मिक अधिकार की मांग करती हैं तो वे धार्मिक विश्वासों को स्वीकार करती हैं/सम्‍मान देती हैं/उचित मानती हैं, वे मान्यताएं जो कि पाषाण युग से ही महिलाओँ के उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार हैं. 

अगर महिलाएं सच में समानता और मुक्ति की चाह रखती हैं, तो उन्हें धार्मिक तानाशाही के खिलाफ खड़े होना होगा, न कि उनको स्वीकार करना और गले लगाना, जोकि वे सदियों से करती आई हैं. किसी पत्थर के सामने एक पुजारी (जो कि सिर्फ इसलिए पुजारी है क्योंकि वह पुजारियों के परिवार में पैदा होने वाला पुरुष है) के पैर छूने के बाद सिर झुकाने के लिए मत लड़िए. मासिक धर्म वाली महिलाओं को अपवित्र करार देने वाले ईश्वर के स्वंयभू एजेंट्स के चरणों में गिरना! उनसे आशीर्वाद मत मांगिए, वे इसके लायक नहीं हैं.

पीरियड.

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