लड़का है इंजीनियरिंग करेगा और लड़की है तो मेडिकल, ऐसा क्यों?
भारत में 23 आईआईटी हैं जिसमें कुल 12,071 छात्रों को एडमिशन मिलता है: 10,219 लड़के और 1,852 लड़कियां. इन सीटों के आवंटन के पीछे का पूर्वाग्रह अगर मजबूत नहीं तो कम से कम अजीब तो है ही.
-
Total Shares
ऐसे चुटकुलों की कमी नहीं है जिसे सिर्फ इंजीनियर ही समझते हैं और उसपर दिल खोलकर हंसते हैं. उनमें से कुछ पूरी तरह से सेक्सिस्ट जोक्स होते हैं. इंजीनियरिंग में महिलाओं (खासकर अच्छी दिखने वाली महिलाओं) का उसमें से भी सिविल और मैकेनिकल इंजीनियरिंग स्ट्रीम में लड़कियों की कम संख्या मजाक का एक बड़ा विषय होता है.
ऐसे जोक्स कोई नई बात नहीं हैं
2018 में आईआईटी-दिल्ली के सभी कोर्स में 16 प्रतिशत लड़कियों का दाखिला हुआ है. ये एक जश्न का विषय था क्योंकि आईआईटी दिल्ली में ये लड़कियों का अब तक का सबसे ज्यादा नामांकन था. लेकिन फिर भी उन "इंजीनियरिंग जोक्स" का बनना बंद हो जाएगा ऐसा नहीं है. क्योंकि ये मजाक उन सभी लोगों पर है जिन्होंने शिक्षा को लिंग के नजरिए से देखा है और ये माना है कि लड़कियां अच्छी इंजीनियर नहीं बन सकतीं.
चलिए आपको कुछ आंकड़े बताएं:
भारत में 23 आईआईटी हैं जिसमें कुल 12,071 छात्रों को एडमिशन मिलता है: 10,219 लड़के और 1,852 लड़कियां. इन सीटों के आवंटन के पीछे का पूर्वाग्रह अगर मजबूत नहीं तो कम से कम अजीब तो है ही. इस साल पहली बार, आईआईटी ने महिला छात्रों के लिए एक सुपरन्यूमेरी कोटा लागू किया ताकि देश के प्रमुख संस्थानों में लिंग अनुपात की खाई को पाटा जा सके.
लेकिन यह कोई स्थायी समाधान नहीं है. क्योंकि वांछित अनुपात हासिल होने के बाद इस कोटा को खत्म कर दिया जाएगा. और साथ ही, कई बुद्धिजीवियों ने पहले से ही इस कोटा को "प्रतिगामी" कदम बताया है. क्योंकि इससे 12वीं के बोर्ड परीक्षाओं में "लड़कों से कहीं आगे" रहने वाली सभी लड़कियों की क्षमता पर भी सवाल खड़े होते हैं.
आखिर वांछित अनुपात क्या है और इसके मानक कौन तय कर रहा है ये निश्चित रूप से बहस योग्य है. क्योंकि आईआईटी का लक्ष्य इस साल 14 प्रतिशत महिला छात्रों और 2020 तक 20 प्रतिशत का है. पिछले कुछ सालों में यह संख्या आठ प्रतिशत तक कम है.
लेकिन जितना दिखाई देता है उतना ही नहीं है.
सुपरन्यूमेरी कोटा के जरिए ये सुनिश्चित किया जाएगा आईआईटी प्रवेश परीक्षा पास करने वाली लड़कियों को घर के पास वाली आईआईटी में ही एडमिशन मिल जाए. उन्हें इंजीनियरिंग करने के लिए अपने घरों को न छोड़ना पड़े. अभी तक यह एक बहुत ही बड़ी मुश्किल थी जिसके कारण लड़कियों की संख्या कम रहती थी.
लेकिन क्या इतनी संख्या में लड़कियां हैं?
2018 में जेईई एडवांस्ड में केवल 6.7 प्रतिशत लड़कियां ही क्वालीफाई कर पाई हैं. अगर हम जेईई (एडवांस्ड) के शीर्ष 500 रैंकर्स को देखें, तो उस लिस्ट में सिर्फ 14 लड़कियां हैं.
आईआईटी-दिल्ली द्वारा 2018 में 14 प्रतिशत महिला छात्रों को नामांकित करने का लक्ष्य निस्संदेह एक सकारात्मक कदम है. लेकिन क्या इससे यह संकेत भी नहीं मिलता है कि बाकी सारे आईआईटी अपने लक्ष्य में पीछे छूट जाएंगे क्योंकि प्रवेश परीक्षा में ही लड़कियों की संख्या बहुत कम है?
अगर इसे साफ शब्दों में कहें तो, समस्या यह है कि: कुछ ही लड़कियां आईआईटी में एडमिशन के लिए क्वालिफाई कर पाती हैं. और उनमें से भी कुछ ही लड़कियां में आईआईटी में एडमिशन लेती हैं. और 2018 में इस स्थिति के लिए दोषी कौन है?
आईआईटी में एडमिशन के लिए प्रभारी संयुक्त प्रवेश बोर्ड (जेएबी) की उप-समिति द्वारा किए गए एक अध्ययन ने इसका दोष सामाजिक पूर्वाग्रहों पर डाला है. टिमोथी गोंसाल्वेस कमेटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक लड़कियों को बराबरी का मौका नहीं मिलता क्योंकि ज्यादातर अभिभावक जेईई के लिए लड़कियों को कोचिंग कराने में पैसे खर्च करने के लिए तैयार नहीं होते हैं. कोटा में आईआईटी-जेईई की तैयारी करा रहे संस्थान इस लिंग अनुपात की गवाही देते हैं.
अगर मेडिकल की तरफ रूख करते हैं- तो यहां पूरा सीन ही अलग है.
एनईईटी (राष्ट्रीय योग्यता सह प्रवेश परीक्षा) में लिंग अनुपात, मेडिकल प्रवेश परीक्षा के लिए 50-50 है. एक रिपोर्ट बताती है कि देश में मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने वालों में 51 प्रतिशत लड़कियां होती हैं.
तो, आखिर सामाजिक पूर्वाग्रह इस बात को कैसे देखता है? क्या मेडिकल की पढ़ाई इंजीनियरिंग से सस्ती या फिर आसान है?
जाहिर है कि समस्या की जड़ बहुत गहरी है और इस मुद्दे पर कोरा पर लंबी लंबी चर्चाएं हुई हैं. कुछ रिपोर्टों से यह भी संकेत मिलता है कि जेईई परीक्षा को लड़कियों को बाहर रखने के मकसद से भी बनाया जाता है. अगर ऐसा है, तो फिर सिर्फ कुछ और सीटें जोड़ने से समस्या का हल नहीं होगा. इंजीनियरिंग क्षेत्र में प्रवेश परीक्षा से लेकर पाठ्यक्रमों और नौकरियों तक हर जगह बुद्धिमान महिलाओं के लिए जगह बनानी होगी.
"लड़कियों बायोलॉजी पढ़ने में अधिक रुचि रखती हैं" (और जाहिर है, यही कारण है कि वे मेडिकल विकल्प चुनती हैं), "लड़कियां क्वांटिटेटिव एप्टीट्यूड में अच्छी नहीं होतीं" या "लड़कियों के पास लड़कों की तुलना में अधिक विकल्प होते हैं" जैसे बहाने बिल्कुल वही काम करते हैं जो नहीं किया जाना चाहिए. सीटों को जोड़ना निश्चित रुप से सराहनीय कदम है. लेकिन हमें इन सीटों के लिए ज्यादा लड़कियों को मुख्यधारा में लाने की जरूरत है. मैकेनिकल और सिविल इंजीनियरिंग स्ट्रीम को "बॉयज़ोन" कहकर गर्व महसूस करना लिंग भेद को खत्म नहीं करेगा. और निश्चित रूप से ये इंजीनियरिंग को और अधिक बुद्धिमान बनाने में भी मदद नहीं करेगा.
ये भी पढ़ें-
केरल के मदरसे ने क्या वाकई एक बच्ची को बिंदी के कारण बाहर कर दिया !
आपकी राय