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Updated: 04 दिसम्बर, 2021 07:05 PM
ज्योति गुप्ता
ज्योति गुप्ता
  @jyoti.gupta.01
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स्कूल में दो चोटी (two braids in school) की वजह पिछड़ी हुई दकियानुसी सोच है, जिन्हें लड़कियों पर थोपना भी है लेकिन इसे छात्राओं की चोटियों के पीछे छिपाना भी है.

स्कूलों में लड़कियां (school girl) तेज हंस नहीं सकतीं, तेज बोल नहीं सकती और तेज दौड़ भी नहीं सकतीं. ऐसा छोटे शहरों की उन शिक्षिकाओं (school teachers) को लगता है जो लड़कियों को स्कूल में संस्कार का पाठ पढ़ाती हैं. देखने में आता है कि छोटे शहरों, कस्बों और गांवों की स्कूल टीचर आज भी लड़कियों को दो चोटी बनाकर आने को मजबूर करतीं हैं, लेकिन क्यों?

अगर लड़कियां एक चोटी बना लेंगी तो इससे क्या बिगड़ जाएगा? लड़कियां छोटे बाल रख लेंगी, हेयर पिन या हैयर बैंड लगा लेंगी तो क्या वे असंस्कारी हो जाएंगी?

School teachers, school girls, school, girl studentदो चोटी की वजह पिछड़ी हुई दकियानुसी सोच है

असल में दो चोटी की वजह पिछड़ी हुई दकियानुसी सोच है, जिन्हें लड़कियों पर थोपना भी है लेकिन इसे छात्राओं के चोटियों के पीछे छिपाना भी है. ठीक है स्कूल के कुछ नियम होते हैं, यूनिफॉर्म होता है लेकिन दो चोटी अब सदियों पुरानी बात हो गई है. दो चोटी बनाएंगी तो छात्राएं आकर्षक नहीं लगेंगी, आज भी कुछ शिक्षिकाओं के दिमाग में यही बातें क्यों चलती हैं?

शिक्षक तो बच्चों के भविष्य को सुधारते हैं, उन्हें सही रास्ता दिखाते हैं, जिंदगी की सीख देते हैं लेकिन इन शिक्षिकाओं का क्या जो आज भी लड़कियों को यह एहसास कराने में कोई कसर नहीं छोड़तीं कि तुम एक लडकी हो और इसलिए तुमपर हजारों समाज के नियम लागू होते हैं.

असल में लड़कियां घर में रहें, स्कूल में रहें या फिर परिवार के साथ कहीं बाहर घूमने ही क्यों ना जाएं, उनपर हर जगह टोका-टाकी लगी ही रहती है. घर के लोग अगर नहीं टोकते तो पड़ोसी या रिश्तेदार जरूर टोकने आ जाते हैं.

आखिर दूसरे दर्जे के शहरों में महिला शिक्षिका और छात्राओं के बीच रिश्ता सास-बहू टाइप टोकाटाकी का क्यों रहता है? जो लड़कियों को धीरे-धीरे झुककर चलने की सलाह देती हैं. सीधी खड़ी हुईं स्कूल की बच्चियों को वे तेज आवाज में कहती हैं कि सीना तानकर मत चलो. उन बच्चियों के दिमाग पर क्या असर पड़ेगा, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है.

ऐसे में लड़कियां दब्बू बन जाती हैं और जब वे छोटे शहरों से निकलकर बाहर पढ़ने या नौकरी करने जाती हैं तो उन्हें खुद पर शर्म आती है. वे शहर के माहौल में सामजस्य नहीं बिठा पातीं और उन्हें परेशानी आती हैं. घरवालों और शिक्षिकाओं का समझना होगा कि स्कूली छात्राओं पर दबाव बनाना उनके विकास के लिए कितना नुकसानदायक है, बचपन को आजादी पसंद है लेकिन यह बहुत कम लड़कियों को नसीब होता है.

दूसरे लोग तो यह भी फैसला करते हैं कि लड़कियों को किस तरह सोना कैसे चाहिए, स्कूल में छात्राओं के स्तनों का उभार ना दिखे इसके लिए भी उन्हें अजीब सलाह दिए जाते हैं, ऐसे में उनका शारीरिक विकास भी ठीक से नहीं हो पाता और मानसिक हालात तो आप समझ ही सकते हैं. पीरियड का अनुभव तो ऐसा होता है मानो यह कोई गंदी चीज हो. जो चीज प्राकृति है, उसपर भी शिक्षिकाएं अपना लगाम लगाना चाहती हैं. एक तरफ हम लिंग समानता लाने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ स्कूल में शिक्षा के नाम पर छात्राओं को यह एससास करवाते हैं कि तुम लड़की हो.

मुझे याद है हमारे स्कूल में एक होमसाइंस की टीचर थीं जो होमसाइंस को छोड़कर लड़कियों को सुसराल में कैसे रहना चाहिए? इसका ज्ञान ज्यादा देती थीं. जो लड़कियों के 6 क्लास में पहुंचने पर उनके खेलने पर मनाही लगा देती थीं. उनका कहना था कि घर में मेहमान आएं तो लड़कियों को वहां से हट जाना चाहिए. बाल खुले नहीं रखने चाहिए और उन्हें शांत रहना चाहिए. उन्होंने कभी यह नहीं बताया कि पीरियड आने पर क्या करना चाहिए? कैसे पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए, कैसे जिंदगी में परेशानियों का सामना करने के लिए हिम्मत रखनी चाहिए, कैसे अपने साथ गलत होने पर अपने अधिकार के लिए आवाज उठानी चाहिए..?

खैर, ये सालों पहले की बात है तो समझ आता भी है कि उस समय के लोगों की सोच पिछड़ी थी, लेकिन आज भी छोटी जगहों पर कई ऐसी स्कूल शिक्षिकाएं हैं जो छात्राओं की सास बन जाती हैं. हालांकि आज के जमाने में सास-बहू का रिश्ता भी मजबूत हो चुका है. मैंने कई बच्चियों को मां से लड़ते देखा है कि मुझे दो चोटी नहीं बनानी, बालों में दर्द होता है. मां उतनी ही जोर से खींचकर दो चोटी बना देती है वो भी तेल लगाकर, यह कहते हुए कि लड़की हो लड़की जैसे रहो.

स्कूल टीचर को शायद लगता होगा दो चोटी बनाने से लड़कियां कम सुंदर दिखेंगी, इन पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा. उन्हें यह सोचना चाहिए कि स्कूल का माहौल जबतक फ्री नहीं रहेगा छात्रों का विकास कैसे होगा? कम से कम स्कूल तो ऐसी जगह हो जहां लड़कियां खुद को आजाद महसूस करें. लड़कियों का बचपन ऐसा बीते कि बड़ी होकर वे दुनियां का सामना मजबूती से कर सकें. अगर ऐसे ही उन्हें स्कूल में सास के ताने सुनने को मिलेंगे तो वे सहमी रहेंगी. 

कुछ सालों पहले एक ऐसा ही मामला सामने आया था, जब गुजरात के राजकोट में दो चोटी ना बनाने पर स्कूल की शिक्षिका ने 15 छात्राओं की चोटी काट दी थी. आखिर छोटे शहरों के छोटे स्कूल की शिक्षिकाओं को लडकियों की दो चोटी से ऐसा कौन सा रस मिल जाता है? अगर आपने नजर में ऐसी कोई शिक्षिका है जो छात्राओं के साथ सास-बहू की टोटा-टाकी वाला व्यवहार करती हैं तो उनका असर अपनी बच्ची पर ना पड़ने दें, उन्हें समझाएं और अगर फिर भी वो ना समझें तो स्कूल में उनकी शिकायत करें. बच्चियों को मजबूत बनाना है तो लोगों को दो चोटी वाली सोच से आगे बढ़ना होगा.

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लेखक

ज्योति गुप्ता ज्योति गुप्ता @jyoti.gupta.01

लेखक इंडिया टुडे डि़जिटल में पत्रकार हैं. जिन्हें महिला और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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