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Updated: 25 फरवरी, 2019 08:04 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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2009 में जब भारत की गरीबी और झुग्गी-झोपड़ियों को पर्दे पर उतारा गया तो फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' को ऑस्कर मिला. आज 10 साल बाद जब भारत की शर्म यानी माहवारी की समस्या को पर्दे पर उतारा गया तो भी उसे ऑस्कर मिला. कभी-कभी तो लगता है जैसे भारत की गरीबी, यहां की समस्याएं, कुरीतियां हमारे लिए भले ही परेशानी हों, लेकिन हॉलीवुड वालों के लिए काफी फायदेमंद साबित होती हैं.

दुनिया के सबसे बड़े फिल्म पुरस्कार Oscar Awards में उत्तर प्रदेश के हापुड़ के एक गांव में रहने वाली महिलाओं की सच्चाई बता रही एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'पीरियडः एंड ऑफ सेंटेंस' (Period- End of Sentence) को शार्ट डाक्यूमेंट्री के लिए ऑस्कर मिला है. इस डॉक्यूमेंट्री की निर्देशक हैं Rayka Zehtabchi, जो ईरानी हैं. और फिल्म की निर्माता हैं गुनीत मोंगा. लोग खुश हो रहे हैं कि भारत की फिल्म ने विदेशों में झंडे गाड़े हैं. खुशी की बात है. लेकिन हकीकत तो यही है कि जिस विषय को लेकर ये फिल्म बनी है वो असल में देश के लिए शर्म की बात है.

period end of sentencePeriod- End of Sentence को शार्ट डाक्यूमेंट्री के लिए ऑस्कर मिला है

शर्म इसलिए क्योंकि-

- शर्म इसलिए क्योंकि हमारे देश में बहुत से पुरुष माहवारी को बीमारी कहते हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि इसपर बात करने से लड़कियों के सिर शर्म से झुक जाते हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि लड़कियों के लिए 'पीरियड', 'महीने से' या 'माहवारी' बोलना तक शर्मिंदगी भरा होता है. छोटी बच्चियां जिनके लिए ये सब नया होता है वो ऐसे में खुद को बीमार या अपराधी समझती हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि पीरियड शुरू होने के बाद ज्यादातर बच्चियां स्कूल छोड़कर घर बैठ जाती हैं क्योंकि दिन में कई बार पैड बदलना पड़ता है और स्कूलों में सुविधाएं नहीं हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि हमारे देश के कई इलाकों और वर्ग की महिलाओं ने 'पैड' नाम तक नहीं सुना है. हां टीवी पर विज्ञापन जरूर देखे हैं जिसमें बताया जाता है कि पैड अच्छा होता है, कोई कपड़ा खराब नहीं होता और लोग मजाक भी नहीं बनाते.

- शर्म इसलिए क्योंकि खराब कपड़ा फेंकने जाने के लिए उन्हें लोगों की नजरों से छिपना होता है जिसके लिए अंधेरे का इंतजार किया जाता है.

- शर्म इसलिए क्योंकि आज भी घरों में 5 दिन माहवारी वाली महिला या बच्चियों के साथ अछूतों की तरह व्यवहार होता है. उन्हें रसोई में घुसने नहीं दिया जाता, जमीन पर सोना होता है और खाने-पीने के बर्तन भी अलग दिए जाते हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि बच्चियों को पीरियड होने पर ही ये बता दिया जाता है कि वो इन दिनों अशुद्ध हो जाती हैं, वो पूजा नहीं कर सकतीं, मंदिर नहीं जा सकतीं, अचार छुएंगी तो खराब हो जाएगा क्योंकि वो अशुद्ध हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि महिलाएं ही ये नहीं जानतीं कि उन्हें पीरियड क्यों होते हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि न तो महिलाओं को इस विषय में बताया जाता है और न वो खुद ही इसपर बात करना चाहती हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि आज भी महिलाएं पीरियड में पुराने कपड़े, अखबार और राख, लकड़ी का बुरादा जैसी अनहाइजीनिक चीजों का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं.

- शर्म इसलिए क्योंकि पढ़े-लिखे लोग सब कुछ जानते हुए भी पीरियड से जुड़े अंधविश्वासों को प्रथा और परंपरा के नाम पर ढो रहे हैं.

क्या ये शर्म की बात नहीं है?

इस अवार्ड के लिए फक्र क्यों किया जाए?

हमारे देश में पीरियड को लेकर समाज जिस तरह से सोचता है वो पूरी दुनिया के लिए बड़े आश्चर्य की बात है. दुनिया हैरान है कि कैसे इस देश की महिलाओं की हस्ती पीरियड के वक्त बिलकुल बदल जाती है. जिस देश में नारियों को पूजा जाता है वो पीरियड में अचानक अछूत कैसे हो जाती हैं. और कैसे भारत जैसा प्रगतिशील देश पीरियड को लेकर एक हारे हुए देश की तरह नजर आता है. बड़े हैरान हैं विदेशी. और इसीलिए जब हापुड़ के गांव की महिलाएं आत्मनिर्भर होने के लिए पैड बनाने का काम करती हैं तो दुनिया इसपर तालियां बजाती है, अवार्ड देती है.

सच डॉक्यूमेंट्री से जरा अलग है

ये डॉक्यूमेंट्री जिसमें महिलाएं मेहनत से पैड बनाती दिख रही हैं. वहां एक लड़की आत्मनिर्भर होने का सपना सिर्फ इसलिए देखती है जिससे उसे शादी न करनी पड़े. इस डॉक्यूमेंट्री में वक्त को बदलते जरूर दिखाया गया है कि अब महिलाएं पैड का इस्तेमाल भी कर रही हैं और उसे बना भी रही हैं. लेकिन बदलाव सिर्फ कपड़े से पैड होने तक का ही दिखता है. हकीकत तो ये है कि पीरियड नाम के इस टैबू से जुड़े अंधविश्वास जस के तस ही पड़े हैं. शर्म वहीं की वहीं है, पुरुष वैसे ही मौन हैं. झिझक नहीं मिटी है. महिलाएं पैड बना रही हैं लेकिन पुरुषों को बता रही हैं कि बच्चों के हगीज़ बन रहे हैं.

2019 में महिलाएं चंद पैसों के लिए पैड बना रही हैं, अपनी जरूरत और पर्सनल हाइजीन के लिए काम करने लगी हैं- ये फक्र की बात हो सकती है कि शुरुआत हो गई है. लेकिन इस विषय पर मानसिक हाइजीन की ज्यादा जरूरत है. डॉक्यूमेंट्री का नाम भले ही Period-End of Sentence हो यानी सजा का अंत लेकिन सच्चाई से आप भाग नहीं सकते. टीवी पर दिनभर सैनिटरी नैप्किन्स के विज्ञापन का आना बदलाव नहीं होता, 30 सालों से तो मैं ही देख रही हूं, लेकिन महिलाओं की स्थिति तो आज भी वही है जो कल थी.

कुछ बातें जो देश को पुरस्कार दे जाएं उनपर फक्र किया जाना चाहिए, लेकिन इस ऑस्कर पर फक्र नहीं होता. क्योंकि भारत के लिए पीरियड की शर्म अब भी बरकरार है. सिर्फ फिल्मों में ही बदलाव आ रहा है, ग्राउंड लेवल पर हम आज भी हारे हुए ही हैं. और इसी बीच एक पुरस्कार हमारे देश की इस समस्या पर हमें चिढ़ाकर चला गया. और हम इतने भोले हैं कि उसकी खुशियां मना रहे हैं.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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