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Updated: 14 फरवरी, 2017 05:10 PM
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बसन्त पंचमी अभी बीती है. शहर के थोड़ा बाहर जाएं तो सरसों की पीली चादर ओढ़े धरती प्रेम का संदेश बांट रही है और हवाएं इसकी खुशबू से सराबोर हैं. ऐसे में इस बदलते हुए समय में प्रेम का मतलब क्या है? क्या है प्रेम की भारतीय परम्परा और कैसे उसे बदलती हुई सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों ने बदला है? प्रेम में क्या गलत है और क्या सही तथा इसके समर्थन व विरोध में उठने वाले स्वरों की हकीकत क्या है?

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आदम और हव्वा के जमाने से ही पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम का सहज आकर्षण और समाज द्वारा उसके नियन्त्रण की कोशिशें जारी हैं. मनोविज्ञान और जीवविज्ञान दोनों इसे सहज और प्राकृतिक बताते हैं. लेकिन जैसे-जैसे सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाएं बनीं और उसमें विभिन्न संस्तर बने वैसे-वैसे ही प्रेम पर नियंत्रण की कोशिशें और तेज होती गईं. जाति, धर्म तथा अमीरी-गरीबी मे बंटे समाज में प्रेम का अर्थ भी बदला और रूप भी.

राजा-महाराजाओं के सामंती युग में विवाह और प्रेम का निर्णय व्यक्तिगत न होकर सामाजिक हो गया. पिता और समाज के नियंता पुरोहित, पादरी और मुल्ले तय करने लगे कि किसकी शादी किसके साथ होनी चाहिये. पुरुषप्रधान समाज में औरतों और दलित कही जाने वाली जातियों को घरों में कैद कर दिया गया और उनकी पढ़ाई-लिखाई पर रोक लगा दी गयी, कि कहीं वे अपने अधिकारों की मांग न कर बैठें. ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता’ किताबों मे कैद रहा और औरतें चूल्हे से लेकर चिताओं तक में सुलगती रहीं.

सामन्ती समाज के विघटन के साथ-साथ जो नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था औद्योगिक क्रान्ति के साथ सामने आई उसने जनतन्त्र को जन्म दिया जो मूलतः समानता, भाईचारे और व्यक्ति की स्वतंत्र अस्मिता के सम्मान पर आधारित थी. यह आजादी अपनी जिंदगी के तमाम फैसलों की आजादी थी और समानता का मतलब था जन्म (भारत के सन्दर्भ में धर्म, जाति, ज़ेन्डर और क्षेत्रीयता) के आधार पर होने वाले भेदभावों का अन्त. यही वजह थी कि हमारे संविधान मे जहां सबको वोट देने का हक दिया गया वहीं दलितों, स्त्रियों और दूसरे वंचित तबकों की सुरक्षा तथा प्रगति के लिये प्रावधान भी किये गये. अन्तर्जातीय तथा अंतर्धार्मिक विवाह को कानूनी मान्यता देकर जीवनसाथी चुनने के हक को सामाजिक से व्यक्तिगत निर्णय मे बदल दिया गया.

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लेकिन दुर्भाग्य से जहां संविधान में ये क्रान्तिकारी प्रावधान किये गये, समाज मे ऐसा कोई बडा आन्दोलन खड़ा नहीं हो पाया और जाति तथा धर्म के बन्धन तो मजबूत हुए ही साथ ही औरतों को भी बराबरी का स्थान नहीं दिया जा सका. पन्चायतों से महानगरों तक प्रेम पर पहरे और भी कड़े होते गए.

इसी के साथ बाजार केन्द्रित आर्थिक व्यवस्था ने प्रेम और औरत को एक सेलेबल कमोडिटी में बदल दिया. हालत यह हुई कि प्रेम की सारी भावनाओं की जगह अब गर्लफ़्रैंड-ब्वायफ़्रैन्ड बनाना स्टेटस सिम्बल बनते गये. बाजार ने सुन्दरता के नये-नये मानक बना दिये और प्रेम मानो सिक्स पैक और ज़ीरो फिगर मे सिमट गया. वेलेन्टाइन ने प्रेम के लिये बलिदान किया था पर बाजार ने उसे ‘लव गुरु’ बना दिया. इस सारी प्रक्रिया ने कट्टरपन्थी मज़हबी लोगों को प्रेम और औरत की आजादी पर हमला करने के और मौके उपलब्ध करा दिये. यह हमला दरअसल हमारी संस्कृति तथा लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमला है.

प्रेम का अर्थ क्या है? हमारा मानना है कि यह एक दूसरे की आजादी का पूरा सम्मान करते हुए बराबरी के आधार पर साथ रहने का व्यक्तिगत निर्णय है और इसमें दखलंदाज़ी का किसी को कोई अधिकार नहीं. बिना आपसी बराबरी और सम्मान के कभी भी सच्चा प्रेम हो ही नहीं सकता.

आज विवाह क्या है? लड़की के सौन्दर्य और घरेलू कामों मे निपुणता तथा लड़के की कमाई के बीच एक समझौता जिसकी कीमत है दहेज की रकम. आखिर जो लडके/लडकी एक डॉक्टर, इन्जीनियर, मैनेज़र या सरकारी अफसर के रूप में इतने बड़े-बड़े फैसले लेते हैं, वे अपना जीवनसाथी क्यों नहीं चुन सकते?

हमारा मानना है कि एक बराबरी वाले समाज में ही प्रेम अपने सच्चे रूप मे विकसित हो सकता है तथा इस दुनिया को एक बेहतर दुनिया में तब्दील कर सकता है. प्रेम और शादी का अधिकार हमारा संवैधानिक हक है और व्यक्तिगत निर्णय. आप क्या सोचते हैं ?

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लेखक

सुजाता सुजाता @sujata.chokherbali

लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं

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