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Updated: 21 जुलाई, 2016 09:08 PM
कुमार कुणाल
कुमार कुणाल
 
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दिल्ली में दो दिन की बारिश क्या हुई, सब कुछ धुल गया. गली, कूंचे, सड़क, गलियां, नदी, नाले सब कुछ. अब धुलना ही था तो साथ में सरकार, एमसीडी, पीडब्ल्यूडी, डीडीए, बाढ़ नियंत्रण विभाग, दिल्ली जल बोर्ड और भी शायद कई एजेंसियों के दावे धुल गए जिनका नाम 12 साल से दिल्ली में ख़बर ढ़ूंढ़ते ढूंढते मैं भी याद नहीं रख पाया हूं. इसके लिए ख़ास तौर पर क्षमा चाहता हूं, क्योंकि क्रेडिट उन सबको जाता हैं इसी लिए किसी भी एजेंसी से दिल्ली को दरिया बनाने का क्रेडिट छीनने में कोई ख़ास रुचि नहीं है मेरी. लेकिन वक्त ऐसा है जहां छोटे मोटे कामों के लिए क्रेडिट लेने वाली एजेंसियां ये चाहने लगती हैं कि हमारे जैसे पत्रकार उनका नाम वाकई भूल जाएं और क्रेडिट लाइन से ये नाम फटाफट गायब हो जाए.

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मज़े की बात तो ये है कि जब जलभराव के साथ ही एजेंसियां सड़कों से पानी हटाने के लिए हरकत में आएं या न आएं लेकिन एक अजीब छटपटाहट जरुर शुरु हो जाती है. कोशिश इस बात की कि ये सड़क मेरी नहीं उसकी है. यानि जलभराव खत्म हो ना हो लेकिन टीवी स्क्रीन से इस जल भराव के लिए जिम्मेदार एजेंसी का नाम टीवी स्क्रीन से जरुर हट जाना चाहिए. लापरवाहियों की कहानी कहीं लोगों तक पहुंच न जाए ये डर भी अंदर ही अंदर सताता है. क्योंकि नालों की सफाई का बजट अलग-अलग एजेंसियां तय करती हैं. बड़ी एजेंसियों का बजट तो सैकड़ों करोड़ में आता है, और छोटी मोटी एजेंसियां भी करोड़ों में पैसा तो नालियों को साफ करने में बहा ही देती हैं.

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दिल्ली में बारिश

खैर बात पिछले शनिवार की. पहली दफा दिल्ली में ज़ोरदार बारिश हुई, इस मॉनसून की. एक तरफ झमाझम बारिश हो रही थी, तमाम रिपोर्टर उन जगहों पर तैनात थे जहां लोगों को वाटर लॉगिंग की वज़ह से परेशानी का सामना करना पड़ रहा था. कोई दिल्ली वाला पानी के भीतर स्कूटर खींच रहा था, तो कहीं जल भराव उन बच्चों को स्वीमिंग पूल का मज़ा दे रही थी जो बच्चे अपनी ज़िंदगी में तो ऐसे किसी पूल में जाने का सोच नहीं सकते. इसी बीच मेरे फोन की घंटी बजी, उम्मीद थी कि कहीं से कोई और ख़बर आई, पानी इकट्ठा होने की. लेकिन फोन एक सरकारी एजेंसी के किसी सीनियर अधिकारी महोदय का बजा था. फोन उठाया, तो इस कदर शिकायती अंदाज़ में थे कि नमस्ते का जवाब तक नहीं दिया. तपाक से छूटते ही बोले कि आप लोग ग़लत ख़बर चलाते हैं. मैं भी उनके इस आक्रामक तेवर से सकते में था, थोड़ा शांत किया और पूछा बताइए हुआ क्या. उन्होंने दिल्ली के जाने माने चौराहों में से एक को लेकर शिकायत की जिसके बारे में ख़बर ताबड़तोड़ चल रही थी. मैंने उनके फोन रखते हुए ही बात की तह तक जाने की कोशिश की तो पता चला कि पानी जमने की बात तो छोड़िए वहां दो बसें पानी के साथ ही जम के खड़ी हो गईं हैं, जो हिलने का नाम तक नहीं ले रहीं। शायद मॉनसून के मज़े में वो भी भीगना चाहती हों या फिर ड्राइवर से कह दिया हो कि इन पानी वाली सड़कों पर तो चलना नामुमकिन है.

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चलिए ये बात भी आई गई हुई. ख़बर आई कि दक्षिणी दिल्ली में एक ऐसा इलाका है जहां इंसान नहीं बल्कि बस गले तक डूबी है. मामला सुनने में ही बड़ा था इसलिए रिपोर्टर दौड़ा दिया. लेकिन अब उसके सामने चुनौती इस बात की थी कि वो उतने ज़्यादा पानी में लोकेशन पर पहुंचे तो कैसे. पहुंचना तो सायद फिर बी मुमकिन हो जाता लेकिन वहां रिपोर्टिंग करना तो उससे कहीं ज़्यादा चुनौती भरा था. बात इतने तक ही रुक जाती तो बात होती. जहां पानी में बस डूबी हो वहां लोगों के सामने भी चुनौती कम नहीं थी. ख़ास तौर पर वो जो वहीं के रहने वाले हों. आना-जाना, खाना-पीना सब ठप्प होने की नौबत आ पड़ी थी. इस लिए हिंदुस्तानी जुगाड़ वहां भी काम का निकला. लोगों ने एक भैंसा गाड़ी का इंतजाम किया जो बाइक से लेकर लोगों को उस “दिल्ली की दरिया” से पार करा रहा था. शायद उसने उस दिन जैसा रोजगार कभी ही कमाया हो. आधे किलोमीटर की एक ट्रिप का किराया 10 रुपए था लेकिन आप उस भैंस का सोचिए जो गले तक डूब कर लोगों को पानी से बाहर निकाल रहा था.

खैर जैसे तैसे दिन भी बीता, और उन एजेंसियों की चिंता भी खत्म हुई कि करोड़ों का हिसाब मीडिया भी तभी पूछती है जब तक सड़कों पर पानी भरा रहता है. पानी एक बार निकला, उनकी जवाबदेही भी खत्म और मीडिया में हल्ला गुल्ला भी. फिर कौन पूछेगा कि करोड़ों कहां गए, अजी पानी में चले गए सब!

लेखक

कुमार कुणाल कुमार कुणाल

लेखक आजतक में पत्रकार हैं.

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