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Updated: 04 अक्टूबर, 2022 09:14 PM
निधिकान्त पाण्डेय
निधिकान्त पाण्डेय
  @1nidhikant
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दशहरे के दौरान अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि आखिर रावण को कब तक मारते रहेंगे?

ये कैसा रावण है कि मरता ही नहीं और हर साल जिंदा होकर हमारे सामने आ जाता है?

इसके बारे में आपके फोन में कई मैसेज या सोशल प्लेटफॉर्म्स पर कई पोस्ट आपको देखने को मिलते होंगे जिन्हें या तो पढ़कर आप छोड़ देते हैं या फॉरवर्ड करके आगे लोगों को दशहरा की बधाई दे देते हैं. उन संदेशों में भी एक संदेश ऐसा है जो हमेशा हमारे सामने आता है और शिक्षा भी देता है-

अपने अंदर के रावण को लोग कब मारेंगे?

रावण को बुराई का प्रतीक माना जाता है और हमारे अंदर की बुराई को जब तक हम मार नहीं डालते तब तक हम अपना ऐसा राम कहां से लाएंगे जो रावण का संहार कर सके. इसके साथ ही मुझे एक भजन की पंक्तियां याद आ गईं-

कलयुग बैठा मार कुंडली, जाऊं तो मैं कहां जाऊं.

अब हर घर में रावण बैठा, इतने राम कहां से लाऊं.

यानी रावण मौजूद है किसी न किसी रूप में, शायद इसीलिए उसको हर बार मारने की जरूरत पड़ती है. वैसे आपको बता दूं कि पौराणिक कथा के मुताबिक, रावण भगवान श्रीराम के हाथों इस वजह से मारा जाना चाहता था क्योंकि उसे मुक्ति चाहिए थी. मुक्ति की चाहत भी ऐसी कि रावण सीधे बैकुंठ धाम जाना चाहता था.. बैकुंठ धाम.. यानी स्वर्ग से भी ऊपर.. वो जगह जहां स्वयं भगवान श्री हरि विराजते हैं यानी भगवान विष्णु..

Ravan, Ramayana, Ram, Sita, Ideal, Dussehra, Human, Kabirdas, Laxmanरावण बुराई का प्रतीक है और ये अपने दिलचस्प है कि बुराई हम सब में है

अब आप में से कुछ लोग सोच सकते हैं कि रावण बैकुंठ धाम क्यों जाना चाहता था और श्री हरि के हाथों हार और मार के बाद क्या उसकी इच्छा पूरी हो पाई? इस कहानी को समझने के लिए हमें चलना होगा बैकुंठ धाम जहां जय-विजय हमारा इन्तजार कर रहे हैं..

इसके लिए मैं आपको एक कथा सुनाता हूं-

कहा जाता है कि एक बार सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार ऋषि अपने मन की शांति के लिए सभी लोकों के चक्कर लगाने के बाद भगवान विष्णु के दर्शन के लिए बैकुंठ लोक के द्वार पर पहुंचे. इन चारों ऋषियों को सनकादिक भी कहा जाता है और ये देवताओं के पूर्वज माने जाते हैं. बैकुण्ठ के द्वार पर इन्हें दो द्वारपालों ने रोक लिया और कहा कि प्रभु आराम कर रहे हैं. ये दोनों द्वारपाल ही जय और विजय थे. कहते हैं कि रूप-गुण और बल-बुद्धि में ये भी श्री हरि के मुकाबले में ही थे. शायद इसी बात का इन्हें अहंकार होने लगा था.

सनकादिक ऋषियों ने कहा– ‘हम लोग तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं और हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है. हम देवाधिदेव के दर्शन करना चाहते हैं. तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये. भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, तुम्हारा स्वभाव भी वैसा ही होना चाहिये. हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो.’

कथानुसार, ऋषियों के ऐसा कहने पर भी जय और विजय ने उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोका तो सनकादिक ऋषियों ने क्रोध में आकर कहा- ‘भगवान विष्णु के पास रहने से तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता. इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग तीन जन्म असुर योनि यानी राक्षस योनि में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो.’

उनके इस प्रकार शाप देने पर जय-विजय सनकादिक ऋषियों के चरणों में गिर पड़े और क्षमा मांगनेलगे. ये जानकर कि सनकादिक ऋषि मिलने आये हैं भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने सभी पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिय पधारे. भगवान विष्णु ने उनसे कहा- "हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं. इन दोनों ने अहंकार बुद्धि धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है. आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है. इनको शाप देकर आपने ठीक काम किया है. मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा याचना करता हूं.’

भगवान के मधुर वचनों से सनकादिक ऋषियों का क्रोध शान्त हो गया और वे बोले- ‘आप धर्म की मर्यादा रखने के लिये ही इतना आदर दे रहे हैं. हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध में आकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते हैं. आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते हैं.’

भगवान विष्णु ने कहा- ‘हे मुनिगण! मैं सर्वशक्तिमान होने के बाद भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नहीं करना चाहता. आपने जो शाप दिया है वो भी मेरी ही प्रेरणा से हुआ है. जय-विजय तीन जन्म असुर योनि को प्राप्त होंगे. जब मेरे द्वारा इनका संहार होगा तभी ये इस धाम में वापिस आ पाएंगे.’ अब आप सब iChowk के पाठक ये सोच रहे होंगे कि आखिर जय-विजय ने तीन जन्म कौनसे लिए और भगवान ने संहार करके कैसे उन्हें मोक्ष दिलवाया कि वे वापस बैकुंठ लोक में लौट सके !

कुछ जानकारों की मदद से हम आपको पूरी बात बताएंगे ताकि आपको सारी डिटेल ठीक से मिल सके लेकिन उस जानकारी में एक ट्विस्ट भी है इसीलिए जरा ध्यान से पढ़िए इन पौराणिक कथाओं के अंश और अगर हमसे कोई त्रुटि यानी गलती हो जाए तो हम अग्रिम क्षमा प्रार्थी हैं..

सबसे पहले जय-विजय के पहले जन्म की कथा जान ली जाए--

पौराणिक कथा के अनुसार, सतयुग में जय ने हिरण्यकश्यप और उसके भाई हिरण्याक्ष के रूप में विजय ने धरती पर जन्म लिया. हिरण्याक्ष का वध भगवान विष्णु ने वराह के रूप में और हिरण्यकश्यप का वध नरसिंह रूप में किया. इस बारे में हमारे साहित्य तक के एक सहयोगी जय प्रकाश पांडेय जी का कहना है कि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस में बालकाण्ड का एक दोहा भी इसकी पुष्टि करता है-

जनम एक दुइ कहउं बखानी. सावधान सुनु सुमति भवानी.

द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ. जय अरु बिजय जान सब कोऊ.

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई. तामस असुर देह तिन्ह पाई.

कनककसिपु अरु हाटकलोचन. जगत बिदित सुरपति मद मोचन.

बिजई समर बीर बिख्याता. धरि बराह बपु एक निपाता.

होइ नरहरि दूसर पुनि मारा. जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा.

मुकुत न भए हते भगवाना. तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना.

एक बार तिन्ह के हित लागी. धरेउ सरीर भगत अनुरागी.

भगवान शिव ये कथा माता पार्वती को सुनाते हुए कहते हैं- ‘हे सुंदर बुद्धि वाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूं, तुम सावधान होकर सुनो. श्री हरि के दो प्यारे द्वारपाल हैं, जय और विजय, जिनको सब कोई जानते हैं. उन दोनों भाइयों ने सनकादि ब्राह्मणों के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया. एक का नाम था हिरण्यकश्यप और दूसरे का हिरण्याक्ष. ये देवराज इन्द्र के गर्व को छुड़ाने के लिए सारे जगत में प्रसिद्ध हुए.

इनमें से एक हिरण्याक्ष को भगवान ने वराह का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे हिरण्यकश्यप को नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद का यश फैलाया.. भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि शाप तो तीन जन्म के लिए था. इसीलिए उनके कल्याण के लिए भक्तप्रेमी भगवान ने एक बार फिर अवतार लिया.

जय-विजय के इस जन्म और मृत्यु के बारे में बस इतनी ही बात करेंगे क्योंकि हमारा मुख्य विषय तो रावण है.

क्या कहा?

आपने कहानी जोड़ ली?

सही ही जोड़ी होगी और नहीं तो हम हैं ना बताने को.. त्रेतायुग में जय ने रावण और विजय ने कुंभकर्ण के रूप में धरती पर जन्म लिया. उस जन्म में इनके पिता महर्षि विश्रवा और माता कैकसी थे. अब ये तो आप जानते हैं कि उस जन्म में इन दोनों का वध भगवान विष्णु ने राम रूप में किया था लेकिन सवाल तो अब भी बरकरार है कि

क्या रावण और कुंभकर्ण को मोक्ष मिला?

क्या वे जय-विजय के रूप में वापस बैकुंठ में लौट पाए?

क्या उन्हें सनकादिक ऋषियों के शाप से मुक्ति मिली?

क्योंकि ये तो दो ही जन्म हुए. जब तक तीसरा जन्म नहीं होगा तब तक जय-विजय का उद्धार कैसे?

हमारे साहित्य तक के सहयोगी जय प्रकाश पांडेय जी इस बारे में भी लंकाकांड के एक दोहे का उदाहरण देते हैं जो बताता है कि रावण को मोक्ष मिल गया था.

राम सरिस को दीन हितकारी. कीन्हे मुकुत निसाचर झारी.

खल मल धाम काम रत रावन. गति पाई जो मुनिबर पावन.

अर्थ ये हुआ कि श्रीरामचंद्रजी के समान दीनों का हित करने वाला कौन है, जिन्होंने सारे राक्षसों को मुक्त कर दिया. दुष्ट, पापों के घर और कामी रावण ने भी वो गति पाई जिसे श्रेष्ठ मुनि भी नहीं पाते.

अगर ये जय-विजय का तीसरा जन्म था तो दूसरा जन्म कब हुआ?

इसके बारे में जय प्रकाश जी बालकाण्ड के एक दोहे से एक और कथा की बात बताते हैं जिसके अनुसार,

राज धनी जो जेठ सुत आही. नाम प्रतापभानु अस ताही..

अपर सुतहि अरिमर्दन नामा. भुजबल अतुल अचल संग्रामा..

जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस..

प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुं नहीं अघ लेस..

ये कथा भी शिवजी ने पार्वती से कही थी- संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश था. वहां  सत्यकेतु नाम का राजा था जिनके बेटे थे प्रतापभानु और अरिमर्दन. जब प्रतापभानु राजा बना तो देश में उसकी दुहाई दी जाने लगी. वो वेद में बताई हुई विधि के अनुसार उत्तम रीति से प्रजा का पालन करने लगा. उसके राज्य में पाप लेश मात्र भी नहीं रह गया. पर उसके पूर्वजन्म के अनुसार विधि ने चाल चली. और एक बार शिकार करते हुए वह घने जंगल में चला गया.

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा. तहं बस नृपति कपट मुनिबेषा.

जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई. समर सेन तजि गयउ पराई.

वन में उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था. उस कपट मुनि ने उसे बहाकाया और यज्ञ कराकर ब्राह्मणों को वश में करने की बात कही ताकि वह अजर अमर हो सके. ज्यों ही राजा ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन परोसने लगा, उसी समय आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठो! अपने घर जाओ, ये अन्न मत खाओ. ये खाना ठीक नहीं है. कुछ लोगों के मुताबिक उस खाने में किसी का मांस होने की बात भी कही जाती है. तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो.

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा, भयउ निसाचर सहित समाजा..

दस सिर ताहि बीस भुजदंडा, रावन नाम बीर बरिबंडा.

समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ. उसके दस सिर और बीसभुजाएं थीं और वो बड़ा ही प्रचण्ड शूरवीर था. अब देखिये कथा का ट्विस्ट.. प्रतापभानु और अरिमर्दन का मर्दन यानी वध तो भगवान विष्णु ने कोई अवतार लेकर किया नहीं.. किसी पौराणिक कथा में इसका जिक्र नहीं मिलता.. इसका अर्थ ये हुआ कि जय-विजय का तीसरा जन्म अभी बाकी है.

एक और बात यहां सोचने की है और वो ये कि जय-विजय को पहले सतयुग में मारा गया और उसके बाद त्रेता-युग में रावण-कुंभकर्ण को तो फिर द्वापर युग की भी कथा होनी चाहिए. कुछ जानकारों के अनुसार, अपने तीसरे जन्म में जय ने भगवान कृष्ण के फुफेरे भाई के रूप में जन्म लिया और नाम हुआ शिशुपाल. विजय का जन्म श्री कृष्ण के मौसरे भाई दन्तवक्र के रूप में हुआ. शिशुपाल का वध भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में किया और दन्तवक्र का वध श्री कृष्ण ने शाल्व से युद्ध करते समय किया. तब जाकर जय-विजय को मुक्ति मिली.

खैर, हमारा खास विषय रावण था तो उसकी बात भी कर ली जाए कि रावण की मुक्ति नहीं हुई इसीलिए शायद हमें उसे हर साल जलाना पड़ता है जिससे हम याद रख सकें कि अपने विकारों को हमें समय रहते नष्ट कर देना है. वैसे आपको एक बात तो पता ही होगी कि रावण बहुत बुद्धिमान और ज्ञानी व्यक्ति भी था. जाते-जाते एक कथा और सुन लीजिये कि रावण के अंतिम समय में प्रभु श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहा कि जाओ और रावण से कुछ ज्ञान की बातें जान लो.

बड़े भाई का आदेश मानकर, लक्ष्मण गए और रावण के सिर के पास खड़े हो गए लेकिन रावण ने उन्हें कुछ नहीं कहा.लक्ष्मण ने वापस आकर श्री राम को सब हाल सुनाया तब प्रभु ने कहा कि किसी का भी ज्ञान लेने के लिए उसके चरणों के पास खड़े होना चाहिए. लक्ष्मण ने वैसा ही किया और रावण ने लक्ष्मण को अभूतपूर्व ज्ञान दिया. उनमें से एक बात ऐसी है जिसे आप एक अलग दोहे से भी पहचानते हैं वो भी बताता चलूं..

रावण कई काम करना चाहता था लेकिन अहंकार के कारण ये सोचकर कि सबकुछ तो मेरा ही है.. कल कर लूंगा वो आखिरकार नहीं कर पाया इसीलिए रावण ने लक्ष्मण से कहा कि – शुभस्य शीघ्रम यानी शुभ कार्य को कल पर टालना नहीं चाहिए और कर लेना चाहिए. संत कबीर का दोहा भी कुछ ऐसा ही कहता है –

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब.

पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ..

आप भी कल पर मत टालिए और जल्दी से अभी कॉमेंट करके बताइए कि आपको ये लेख कैसा लगा? 

लेखक

निधिकान्त पाण्डेय निधिकान्त पाण्डेय @1nidhikant

लेखक आजतक डिजिटल में पत्रकार हैं.

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