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Updated: 08 जून, 2017 01:11 PM
राहुल लाल
राहुल लाल
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ईरान में लोकतंत्र के मंदिर संसद समेत दो जगहों पर बुधवार 7 जून को बड़ा आतंकी हमला हुआ है. 4 आत्मघाती हमलावर संसद परिसर में घुस गए और गोलीबारी शुरु कर दी. स्थानीय मीडिया के अनुसार, संसद भवन की चौथी मंजिल पर एक आतंकी ने खुद को बम से उड़ा लिया है और वहां से गोलीबारी की आवाज भी आ रही है. समाचारों के अनुसार संसद हमले में 7 लोग मारे गए हैं और 4 लोगों को बंधक बनाया गया है. तस्नीम न्यूज के अनुसार अब भी ईरान की संसद के अंदर गोलीबारी जारी है. कुछ सूचनाओं के अनुसार हमलावरों ने कुछ सांसदों को भी बंधक बन लिया है. अगर यह समाचार सही है तो इस हमले की गंभीरता को समझा जा सकता है. ईरानी संसद के राष्ट्रीय सुरक्षा एवं विदेश नीति प्रवक्ता के अनुसार चार में एक हमलावर को गिरफ्तार कर लिया गया है.

Iran terror attackईरान की संंसद पर हमला

ईरानी संसद के अलावा तेहरान स्थित खुमैन के मकबरा में दो आत्मघाती हमलावरों ने खुद को उड़ा लिया और तीसरे हमलावर को सुरक्षाकर्मियों ने ढेर कर दिया. आतंकी संगठन आईएस ने इन हमलों की जिम्मेवारी ली.

लोकतांत्रिक ढंग से आगे बढ़ते हुए ईरान पर इन आतंकवादी हमलों के पीछे मुख्य कारण क्या है?

अगर मूल कारणों की खोज की जाए तो इस संपूण क्षेत्र में वर्चस्व की लड़ाई अब नाजुक दौर में पहुंच गया है. महाशक्तियों ने इस क्षेत्र में आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष के नाम पर शिया-सुन्नी के उभारों को और भी बढ़ाने का काम किया है. ट्रंप ने अपने घोषणाषत्र में जहां मुस्लिम देशों से दूरी बनाने की बात की थी, परंतु अपनी प्रथम यात्रा सऊदी अरब की तथा साऊदी अरब के धुर विरोधी ईरान पर जमकर भड़के. जबकि इसके पहले अमरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरान के साथ तनाव घटाने का उल्लेखनीय कार्य किया था. वहीं ट्रंप शिया-सुन्नी विवाद का लाभ उठाकर तथा सऊदी अरब को ईरान का डर दिखाकर हथियार बेचने में लगे रहे.

Iran terror attack

इतने संवेदनशील क्षेत्र में जहां निशस्त्रीकरण की आवश्यकता थी, अमेरिका अपने संकीर्ण लाभ हेतु शस्त्रीकरण में लगा हुआ है, इसी कड़ी का अगला प्रतिफल सऊदी अरब समेत 6 देशों द्वारा कतर से रिश्ते तोड़ने के रुप में भी सामने आई. यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि वैश्विक स्तर पर वहाबी को प्रोत्साहन देकर सऊदी अरब भी कट्टरता फैलाने में लगा हुआ है. वह अपने प्रभाव वाले क्षेत्र जो पूरी दुनिया में विस्तृत है, कट्टर वहाबी के फैलाव में लगा है, जो आतंकवाद को भी प्रोत्साहित ही करता है. इस वहाबी कट्टरपंथ को सूफी के द्वारा ही रोका जा सकता है.

इस पूरे क्षेत्र में आतंकवाद को समझने हेतु शिया और सुन्नी संबंधी मामले को भी समझना आवश्यक है, क्योंकि आज हुए हमले की जिम्मेदारी आईएस ने ली है. आईएस ने 37 मिनट का वीडियो जारी कर पहले ही ईरान पर आतंकवादी हमले करने की धमकी दी थी. इस वीडियो में ईरान पर यह आरोप था कि वह लगातार सुन्नियों को प्रताड़ित कर रहा है.

अरब देशों में शिया सुन्नी विवाद क्या है?

दुनिया के लिए ईरान और सऊदी अरब दोनों ही बेहद महत्वपूर्ण देश हैं. ईरान शिया बहुल देश है और संयुक्त अरब अमीरात सुन्नी बहुल. दोनों ही देश इस्लाम के इन पंथों के रखवाले के रुप में विश्व में अपने आप को प्रस्तुत करते हैं. अब हमलोग शिया-सुन्नी को समझने का प्रयत्न करते हैं. मुस्लिम मुख्य रुप से दो समुदायों में बंटे हैं- शिया और सुन्नी. पैगंबर मोहम्मद के बाद मुस्लिमों में नेतृत्व को लेकर विवाद हो गया था. सुन्नी शब्द "अहल अल सुन्ना" से बना है जिसका मतलब है "परंपरा को मानने वाला". सुन्नी उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका वर्णन कुरान में किया गया है. दूसरी ओर शियाओं का दावा है कि मुस्लिमों को नेतृत्व का अधिकार शियत अली और उनके वंशजों का  ही है. विश्व में कुल मुस्लिम आबादी का 85% सुन्नी है, जबकि करीब 15% शिया.

इरान, इराक, बहरीन, अजरबैजान यमन में शियाओं का बहुमत है. 1979 की ईरानी क्रांति से जब उग्र शिया इस्लामी एजेंडे की शुरुआत हुई तो इसे सुन्नी सरकारों ने खासकर खाड़ी के देशों ने एक चुनौती के रुप में देखा. ईरान के द्वारा सीमाओं के शिया लड़ाकों को समर्थन देने के जवाब में खाड़ी देशों ने सुन्नी संगठनों को मजबूत किया. एक तरफ जहां पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबान जैसे कट्टरपंथी सुन्नी संगठन प्राय: शियाओं के धार्मिक स्थानों को निशाना बनाते हैं, वहीं दूसरी ओर इराक और सीरिया में जारी संघर्ष ने दोनों समुदायों के बीच खाई पैदा कर दी है.

सऊदी अरब और ईरान के बीच ताजा विवाद

सऊदी अरब द्वारा प्रमुख शिया धर्मगुरु शेख अल निम्र को फांसी दिए जाने के कारण ईरान के साथ उसका तनाव पिछले तीन दशकों में अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गया है. इस आग में घी डालने का आरोप अगर अमेरिका पर लगे तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. सालों तक ईरान में रह चुके अल निम्र सऊदी अरब और बहरीन में शियाओं के अधिकारों का समर्थन कर रहे थे. अल निम्र की फांसी से उकसावे में आकर ईरान ने तेहरान में सऊदी दूतावास और कंसुलेट पर धावा बोल दिया. इससे दोनों देशों के संबंध की आखिरी डोर भी टूट गई.

Iran terror attackईरान संसद की इमारत से एक बच्चेे को बचाते लोग

यही नहीं 1987 के बाद ईरान समर्थित चरमपंथी समूह हिजबुल्लाह द्वारा सऊदी राजघराने पर कई जानलेवा हमले किए गए और यहीं से दोनों देशों के बीच तनाव में वृद्धि होती चली गई. अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ भी मानते हैं कि खाड़ी में ईरान का सबसे बड़ा खतरा उसका परमाणु कार्यक्रम नहीं बल्कि हिजबुल्लाह और यमन में हूती विद्रोहियों का समर्थन करना है. इस पूरे क्षेत्र में तनाव और आतंकवाद के पनपने का प्रमुख कारण वर्चस्व की वह लड़ाई है जो क्षेत्रीय सत्ताओं के बीच खतरनाक रुप लेती जा रही है.

महाशक्तियों के अतिरिक्त ईरान और सऊदी अरब भी सीरिया मामले में शिया सुन्नी वर्चस्व के लिए आमने सामने-

ईरान सीरिया सरकार के सबसे बड़े समर्थकों में से एक है, जो रूस के साथ सीरिया के बचाव में लगा हुआ है. वहीं सऊदी अरब सीरिया सरकार को बर्खास्त करने की मांग करता रहता है. अमेरिका भी सीरिया सरकार को हटाने में लगा है. सीरिया मामले पर अभी रूस और अमेरिका के बीच तनाव उच्चतम स्तर पर है. इसप्रकार सीरिया मामले पर महाशक्तियों के साथ संयुक्त अरब अमीरात और ईरान भी आमने-सामने हैं.

यमन मामले पर भी सऊदी अरब और ईरान आमने-सामने-

यमन में भी हालात सीरिया से बेहतर नहीं हैं. संयुक्त अरब राष्ट्रपति अब्दु राबु मंसूर हादी की मदद कर रहा है, तो दूसरी ओर ईरान देश के सबसे बड़े हिस्सा पर कब्जा जमाने वाले शिया विद्रोहियों के साथ है.

इस तरह मध्यपूर्व में शिया-सुन्नी विवाद की सांप्रदायिक राजनीति और महाशक्तियों के हस्तक्षेप ने स्थिति को ओर बिगाड़ दिया है. इससे इन पड़ोसी देशों में न केवल जबरदस्त अविश्वास पैदा हुआ अपितु देशों ने शिया-सुन्नी आधार पर चरमपंथियों को भी सहयोग दिया है. इस विवाद के चलते जहां आज ईरान आतंकवाद के चपेटे में है, वहीं जवाबी कार्यवाही में भविष्य में ईरान समर्थित हिजबुल्लाह की गतिविधियां भी सामने आएंगी. आवश्यकता है, किसी भी स्तर के आतंकवाद जो दुनिया में कहीं भी हो, उसके विरुद्ध संपूर्ण दुनिया मिलकर लड़े. साथ ही महाशक्तियों से भी विश्व जिम्मेवारी पूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करता है.

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लेखक

राहुल लाल राहुल लाल @rahul.lal.3110

लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं

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