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Updated: 09 नवम्बर, 2018 06:28 PM
मंजीत ठाकुर
मंजीत ठाकुर
  @manjit.thakur
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'उमराव जान का फ़ैज़ाबाद अब अयोध्या कहलाया जायेगा...हिंदुस्तान की रगों में सांप्रदायिकता का जहर भरकर, सैकड़ों साल पुरानी मुस्लिम विरासत को तबाह करने की ये साजिश कामयाब नहीं होगी. ‪शहरों के नाम बदलने से तारीख नहीं मिटा करती. ‪हिंदुस्तान जितना हिंदू है, उतना मुस्लिम भी है.'

फेसबुक पर यह स्टेटस एक मशहूर मुस्लिम महिला एंकर और पत्रकार ने लिखा. मुझे मुस्लिम नहीं लिखना चाहिए था, पर उनका यह पोस्ट वाकई मुस्लिम विरासत के लिए था. एकपक्षीय था इसलिए लिखना पड़ा. बहरहाल, मुझे भी शहरों, नदियों के नाम बदलने पर दिक्कत थी. लेकिन मेरी दिक्कत के तर्क अलग थे. मसलन मैं चाहता हूं कि कोलकाता का नाम भले ही लंदन कर दिया जाए, लेकिन फिर उसके साथ विकास के तमाम काम किए जाएं. हमारे मधुबनी का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया जाए पर वहां तरक्की भी हो.

शहरों और राजधानियों के नाम तय करना हमेशा सत्ताधारी पक्ष के हिस्से में होता है. पहले भी नाम सियासी वजहों से बदले गए थे. मसलन कनॉट प्लेस का राजीव चौक. बंबई का मुम्बई और मद्रास का चेन्नै. अब भी सियासी वजहों से बदले जा रहे हैं. आपके मन की सरकार आए तो वापस अय़ोध्या को फैजाबाद, प्रयागराज को इलाहाबाद कर दीजिएगा.

यकीन कीजिए, रोटी की चिंता करने वाले लोगों को बदलते नामों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आपको पड़ेगा. जिनके लिए धर्म और दीन रोटी से ऊपर है, उनको उस विरासत की चिंता होगी. आप जैसों के स्टेटस से ही किसी गिरिराज सिंह को दहाड़ने का मौका मिलता है कि इनको पाकिस्तान भेजो. भारतीय संस्कृति की जो दुहाई आप दे रही हैं न, वह सिर्फ एक संप्रदाय की विरासत की बात नहीं करता. जैसा कि फैजाबाद के नाम पर आपको एक नगरवधू का इतिहास भर दिखा.

जैसा कि ऊपर के उद्धृत पोस्ट में, फैज़ाबाद का नाम अयोध्या पर उक्त एंकर को कष्ट हुआ, और उन्हें लगा कि यह सैकड़ों साल की मुस्लिम विरासत को तबाह करने की साजिश है. मोहतरमा, आपको पुराने नाम बदलने पर दिक्कत है, तो आप यह तो मानेंगी कि फैजाबाद कोई नया शहर नहीं था. अयोध्या उससे पुराना मामला है. (खुदाई में एएसआइ कह चुका है) तो फैजाबाद भी किसी को बदलकर रखा गया था.

और जिस तारीख पर इतना नाज है न आपको, भारत में वह हजार साल पुरानी ही है. आपकी ही बात, अयोध्या का नाम फैजाबाद रखने से उसका इतिहास नहीं बदल गया. वैसे भी हिंदुस्तान नाम का यह देश ही नहीं है. यह भारत दैट इज इंडिया है.

आप काफी विद्वान हैं, पर पूर्वाग्रहग्रस्त लग रही हैं. आप जैसे विद्वानों की वजह से खीजे हुए हिंदुओं ने दिवाली पर दिल्ली में रिकॉर्ड आतिशबाजी की. मान लीजिए कि यह हिंदुओं की गुस्सैल प्रतिक्रिया थी. मुझे जैसे इंसान ने, जिसने करगिल के युद्ध के बाद आतिशबाजी बंद कर थी, कल तय समय सीमा में ही सही, खूब पटाखे छुड़ाए. पता है क्यों? क्योंकि सेकुलर जमात की न्यायिक सक्रियता एकपक्षीय है. दि‍वाली पर प्रदूषण सूझता है. होली पर पानी की कमी दिखती है.

आपको तो पता भी नहीं होगा कि जिस विदर्भ में पानी की कमी की वजह से किसान रोजाना आत्महत्य़ा कर रहे हैं वहां सरकार ने 47 नए तापबिजली घरों के निर्माण को मंजूरी दी है. पहले ही वहां बहुत सारे तापबिजलीघर हैं. ताप बिजलीघरों में एक मेगावॉट बिजली बनाने के लिए करीबन 7 क्यूबिक मीटर पानी खर्च होता है. यानी, ताप बिजलीघरों का हर 100 मेगावॉट सालाना उत्पादन पर करीबन 39.2 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी का खर्च है. देश भर में 1,17,500 मेगावॉट के कोयला आधारित ताप बिजलीघरों को पर्यावरणीय मंजूरी दे दी गई है. इतनी मात्रा में बिजली पैदा करने के लिए 460.8 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी खर्च होगा. इतने पानी से 920,000 हेक्टेयर खेतों की सिंचाई की जा सकती है, या 8.4 करोड़ लोगों की सालभर की पानी की जरूरते पूरी की जा सकती हैं.

होली पर पानी की बचत का ज्ञान तो घर में जेट पंप से कार धोने वाले भी देने लगते हैं. लगता है देश में होली की वजह से ही सूखा पड़ता है. इसे सेकुलरिज्म नहीं, हिंदुफोबिया कहते हैं. एसी में बैठकर हमें कार्बनफुट प्रिंट का ज्ञान दिया जा रहा है. कभी सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल नहीं करेंगे, घर में चार कारें रखेंगे और चिंता प्रदूषण की करेंगे. अब इस हिप्पोक्रेसी का क्या किया जाए. आपके वैचारिक पतन की यही वजह है.

आपकी नजर इस पर गई ही नहीं होगी, क्योंकि आपको होली-दि‍वाली के आगे कुछ दिखेगा ही नहीं. अगर प्रदूषण के मामले में दिल्ली दि‍वाली से पहले एकदम साफ-सुथरी होती तो पटाखों के खिलाफ सबसे पहले मैं खड़ा होता. पर, दि‍वाली को साफ-सुथरा मनाने की सलाह देने के पीछे मंशा उतनी ही कुत्सित है जितनी सबरीमला में खून से सना सैनिटरी पैड ले जाने की, तो यकीन मानिए, आपके विरोध में उठी पहली आवाज भी मेरी होगी.

दिवाली, प्रदूषण, सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली, त्योहार     दिवाली पर कोर्ट का रुख साफ बताता है कि अब त्योहार में केवल रंग में भंग डालने का काम किया जा रहा है 

वैसे यह भी मानिए कि सत्ताओं के पास आम आदमी को लड़ाने के लिए जब भूगोल नहीं बचता, तो वह इतिहास के नाम पर लड़ाता है. द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल कमोबेश स्तिर हो गया है और दुनिया के कुछेक इलाकों, इज्राएल-फिलीस्तीन, पाकिस्तान-बारत सरहद जैसे क्षेत्रों को छोड़ दें तो भूगोल के नाम पर लड़ाइयां नहीं होती. इसलिए सत्ताओं के पास हमने लड़ाने के लिए कोई चारा नहीं, सिवाए इतिहास के.

जनता लड़ेगी नहीं तो सत्ता के लिए प्रेरणाएं कहां से हासिल होंगी. इसलिए आने वाले संघर्ष अस्मिताओं के होंगे. इसलिए कभी शहरों के नाम बदले जाएंगे, कभी सदियों पहले के अत्याचारों का बदला लिया जाएगा और कभी आप अपनी कथित मुस्लिम विरासत की रक्षा के लिए जिहाद को उठ खड़ी होंगी.

विरासत को छोड़िए, भविष्य बचाइए. शहरों के नाम बदलने पर आपको जिस संप्रदाय की विरासत के खत्म होने का खतरा महसूस हो रहा है, उनके भविष्य के लिए रोजगार और शिक्षा की मांग कीजिए. वैसे चलते-चलते एक डिस्क्लेमर दे ही दूं, खैर छोड़िए उससे कोई फायदा तो है नहीं.

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लेखक

मंजीत ठाकुर मंजीत ठाकुर @manjit.thakur

लेखक इंडिया टुडे मैगजीन में विशेष संवाददाता हैं

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