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Updated: 19 जून, 2015 01:59 PM
सुरेश कुमार
सुरेश कुमार
  @sureshkumaronline
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'...तो मेरे बेटे, मेरे बिना अपनी सैर जारी रखो, क्योंकि मैं तुम्हारे मजबूत पैरों की बराबरी नहीं कर सकता. मैं तुम्हारे लौटने का, मुझे गले लगाने, मेरे लिए खरीदारी करने और साथ में शतरंज खेलने का इंतजार कर रहा हूं.' यह शब्द सर्वश्रेष्ठ के पिता सुनील गुप्ता के हैं जो उन्होंने एक वेबसाइट पर लिखे हैं.

(22 वर्षीय सर्वश्रेष्ठ अमेरिका के मशहूर इन्वेस्टमेंट बैंक Goldman Sachs में काम करता था. 16 अप्रैल 2015 को सर्वश्रेष्ठ अपनी कार में मृत पाया गया था. पिता सुनील गुप्ता के मुताबिक ऑफिस में काम के दबाव की वजह से उनका बेटा बहुत परेशान था.)

सर्वश्रेष्ठ की तरह ही हजारों सर्वश्रेष्ठ देश के महानगरों में रहते हैं और सुनील गुप्ता की तरह ही हजारों पिता गांव में बसते हैं. उनकी भी चाहत कुछ ऐसी ही रहती है जैसे कि सर्वश्रेष्ठ के पिता की है. वह भी इंतजार कर रहे होते हैं अपने बेटे का अपनी बेटी का. वह आए, साथ बैठे, बातें करें, साथ खेले. पर ऐसा संभव हो पाता है क्या?

लोग खुद को पाने के लिए अपनों से इतने दूर होते चले जाते हैं कि एक शहर बन जाते हैं. वैसे भी बेचैनी और बदहवासी के बीच गांव नहीं बसता है और बेचैनी एवं बदहवासी छा जाए तो फिर गांव नहीं रहता. हजार मील की दूरी अपने घर वालों के लिए दूसरी दुनिया से कम नहीं होती. यहां की व्यस्तता खुद को खुद से दूर लिए चली जाती है. यहां की भागदौड़, भौतिक संसाधनों को जुटाने की ललक कभी यह सोचने का मौका नहीं देती कि वास्तव में आप इससे हासिल क्या कर रहे हैं. और जब यह सोचने का समय मिलता है तब तक काफी वक्त निकल चुका होता है.

सर्वश्रेष्ठ की कहानी कुछ अलग नहीं है. दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु, चेन्नई जैसे महानगरों में हजारों सर्वश्रेष्ठ रहते हैं. उनकी जिंदगी भी उससे अलग नहीं है. कहीं काम का दबाव, कही खुद को बनाए रखने की ललक उसे हरदम भागदौड़ में बनाए रखती है. यही भागदौड़ उसे अपनों से दूर करते चली जाती है. स्थिति ऐसी हो जाती है कि घर पर अपने मां-बाप, सगे संबंधियों से रोज बात करने वाले सप्ताह और फिर महीनों में बात करने लगते हैं.

मां-बाप गांव में अकेलेपन को इस उम्मीद के साथ काट रहे होते हैं कि कभी उसका फोन आएगा. दो दिन के लिए ही सही, वो साथ रहने आएगा. फिर खूब सारी बातें करेंगे. उनकी उम्मीद की उम्र बढ़ते जाती है. लेकिन दुनिया तो सर्वश्रेष्ठ बनने के दौर में पहुंच गई है. और सर्वश्रेष्ठ इस दौर में दौड़ रहे होते हैं. 

जरा याद कीजिए, आप हममें से कितने लोगों ने पिछले कुछ दिनों में मां-बाप, भाई-बहन, बेटे-बेटियों, सगे-संबंधि‍यों के साथ बैठकर बेपरवाह होकर खूब गप्प मारी हो? ठहाकों के बीच शाम गुजारी हो? कब यह जानने की कोशिश की हो कि किसी दूसरे शहर में रहने वाला भाई कैसे रह रहा है? राखी की डोर से परिवार को बांधने वाली बहन का घर कैसा चल रहा है? आपके लिए खाने पर घंटों इंतजार करने वाली मां के जोड़ों का दर्द कैसा है? आपको हल्का बुखार भी आ जाए तो डॉक्टर के पास दौड़ कर जाने वाले पिता जी की तबीयत कैसी है? हम ये सब जानने की कोशि‍श कर रहे हैं क्या? हम सर्वश्रेष्ठ बनने की राह पर चल रहे हैं लेकिन किस कीमत पर? सबसे अलग होकर? अपनों से दूर होकर? दबावों में जीते हुए? क्या इन दबावों के बीच एक नंबर डायल करना इतना मुश्कि‍ल है, जो अपने भाई-बहन, मां-बाप के लिए हो? 

इस दबाव और इस भागदौड़ भरी जिंदगी के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं. हम चाहे तो इसे बदल सकते हैं. चाहें तो सर्वश्रेष्ठ अपनों से जुड़ें रहकर भी बन सकते हैं.

लेखक

सुरेश कुमार सुरेश कुमार @sureshkumaronline

लेखक आज तक वेबसाइट के एडिटर हैं.

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