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Updated: 17 नवम्बर, 2018 06:43 PM
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दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी ऑडिटोरियम में 16 नवंबर से साहित्य आजतक शुरू हो गया है और ये तीन दिन तक चलने वाला कार्यक्रम कई साहित्यकारों को साथ लाएगा. इस कार्यक्रम में तीन मंच हैं और हर मंच पर अलग-अलग लोगों द्वारा देश और साहित्य के ज्वलंत मुद्दों पर बात की जा रही है. इसी बीच एक सत्र राम के बारे में बातचीत की गई जो देश में अब एक मुद्दा बनते जा रहे हैं. वो भगवान न रहकर अब राजनीति का विषय बन गए हैं और यही तो बेहद दुख की बात है. इस बातचीत का विषय था 'राम की अयोध्या'. इस सत्र में एक बेहद अहम मुद्दे पर बात की गई और वो था एक जव्लंत सवाल कि आखिर कौन सी भाषा किस धर्म की है.

इस मुद्दे पर जाने माने पत्रकार और लेखक हेमंत शर्मा और साहित्यकार यतींद्र मिश्रा ने अपने विचार सामने रखे.

राम राजनीति का विषय है या आस्था का?

इसपर यतींद्र मिश्रा का कहना था कि, 'राम कबसे राजनीति का विषय हो गए अयोध्या के मामले में? हमारे लिए राम और अयोध्या एक ही हैं और ये कभी अलग नहीं हो सकते. हम राम को राजनीति से जोड़कर नहीं देखते हैं और इसके लिए कुछ अलग नहीं हो सकता. पिछले दो दशकों से परे हटकर राम को न देखने का चलन जो पिछले दो दशकों से चल रहा है वो बहुत दुखद है. राम को लेकर के ज्यादा बड़ी बातें की जा सकती हैं न कि सिर्फ राजनीति से जोड़कर देखने की जरूरत है.'

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एक तरह से ये बात भी सही है कि राम को सिर्फ राजनीति से जोड़कर देखने की जो प्रथा लंबे समय से चली आ रही है वो बहुत दुखद है क्योंकि अब राम भगवान और उनका मंदिर आम आस्था के प्रतीक न रहकर बस एक राजनीतिक मुद्दा ही रह गए हैं. इसके अलावा और कुछ नहीं. उन्हें सिर्फ राजनीतिक कारणों से ही जाना जाने लगा है. पर ये कहां तक सही है कि राम के नाम पर इतना कत्लेआम हुआ है और इतनी राजनीति हुई है उसे देखा जाए और इसके बारे में न सोचा जाए कि राम आखिर क्या थे और वो हिंदुस्तान के लिए क्या हैं.

राम पर राजनीति आखिर शुरू कब हुई?

इस सवाल का जवाब देने वाले थे पत्रकार और लेखक हेमंत शर्मा उनके अनुसार, 'राम पर राजनीति सिर्फ दो दशक पुरानी नहीं है बल्कि ये तो पिछले 50 सालों से चलती आ रही है. राम आवाम के लिए आस्था का विषय हैं तो नेताओं के लिए राजनीति का. कभी कांग्रेस इसपर राजनीति करती थी अब भाजपा कर रही है. क्योंकि राम के नाम पर सरकारें बनती हैं और राम के नाम पर वोट पड़ते हैं, राम के नाम पर ही सरकारें गिरती भी हैं. राम का विरोध करने वाले उत्तर प्रदेश में आते हैं और राम का नाम लेने वाले केंद्र में आते हैं. राम खुद टेंट में हैं, लेकिन उनका नाम लेकर आंदोलन करने वाले कानून मंत्री बन गए. तो राम सबको कुछ न कुछ उपलब्ध करवाते हैं.'

राम के नाम पर वोट पड़ते हैं और इस बात को बिलकुल सही कहा गया है. ये तो हम मौजूदा हालात में ही देख रहे हैं कि राम के नाम पर कितना कुछ हो रहा है और उनके नाम के कारण. क्या राम को राजनीति बनाने का कारण नेता हैं या फिर हम जो उनके नाम पर वोट दे रहे हैं. राम मंदिर का मुद्दा इतना लंबा इसलिए खिंचा है कि नेता उसपर राजनीति कर रहे हैं या इसलिए क्योंकि हम उन्हें वो राजनीति करने दे रहे हैं.

अयोध्या राम की है या बाबर की?

राम आपके लिए क्या हैं इस सवाल के जवाब के भीतर एक और सवाल छुपा है कि आखिर अयोध्या किसकी है. राम की या फिर बाबर की. इसी सवाल का जवाब हेमंत शर्मा ने दिया. इस देश की राजनीति, समाज और बौद्धिक वर्ग बटा हुआ है इसी सवाल को लेकर कि आखिर अयोध्या किसकी है, राम की या फिर बाबर की. राम को खुद अयोध्या में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है और अयोध्या राम की है, वो हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक एकता के सूत्रधार हैं. राम इस देश में उत्तर और दक्षिण की एकता के प्रतीक के रूप में देखे जाते हैं.

ये तो यकीनन सच है कि भारत और भारतीयों के लिए अयोध्या सिर्फ और सिर्फ राम की ही रहेगी और इसके मायने भी राम से ही जोड़े जाते हैं, लेकिन क्या ये कभी बाबर की भी रही है या नहीं? राम के नाम पर जितना बवाल अभी तक भारत में हो रहा है वहां क्या कभी भी अयोध्या को बाबर का कहा जा सकता है?

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